अगले सौ दिनों में क्या-क्या करेगी मनमोहन सरकार

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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अगले सौ दिनों के अपने एजेंडे का ऐलान कर दिया है. इससे वह जताना चाहते हैं कि वादों को पूरा करने में ढिलाई बर्दाश्त नहीं होगी. वह अपनी सरकार को और क्षमतावान, असरदार और तेज़ बनाने की कोशिश में हैं. इसलिए हर तीन महीने के बाद मंत्रालयों के कामकाज की समीक्षा करने का भी ़फैसला लिया गया है. सरकार ने यह साफ कर दिया है कि आंतरिक सुरक्षा को मज़बूत करना, अर्थव्यवस्था में तेज़ी से सुधार

प्रधानमंत्री जी भविष्य को देखिए

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जय हो गया… कांग्रेस विजयी हो गई… नई सरकार बन गई. जनता ने अगले पांच साल के लिए देश की कमान मनमोहन सिंह के हाथों में दे दी है. देखना यह है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस मज़बूत जनादेश का अपनी दूसरी पारी में किस तरह इस्तेमाल करते हैं. मनमोहन सिंह एक अर्थशास्त्री हैं. पूरी दुनिया उन्हें भारत में निजीकरण के जनक के रूप में जानती है. यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है और यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी.

पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के मायने

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इस बार का चुनाव कई मायने में अभूतपूर्व रहा। जनता ख़ामोश रही। न कोई लहर, न कोई हवा। लोगों की चुप्पी ने यह बता दिया कि गुप्त मतदान का अर्थ क्या होता है। यह ख़ामोशी ही इस बात का सबूत है कि भारत की जनता कितनी परिपक्व है। कई सालों से लोगों कीनब्ज़ पहचानने का दावा करने वाले, स्विंग का स्वांग रचा कर चुनाव विश्लेषण करने वाले बड़े-बड़े विशेषज्ञ टीवी स्टूडियो में पहली बार हाथ खड़े करते नज़र आए। चुनाव

भाजपा को चाल, चरित्र और चिंतन बदलना होगा

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राजनीति में चीज़ों को दिल पर नहीं लेना चाहिए. चुनाव में हार जीत लगी रहती है. भाजपा के ख़िलाफ जनता ने जनादेश दे दिया है. अचरज की बात है कि भाजपा के सबसे बड़े नेता ही अपनी हार नहीं पचा पा रहे हैं. वैसे भारतीय जनता पार्टी एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ी है जहां वह पांच वर्षों पहले थी. उस वक्त भी भाजपा के नेताओं को लग रहा था कि वेे आसानी से चुनाव जीत जाएंगे. जनता ने

भाजपा को सलाहकारों ने डुबोया

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चाल,चिंतन और चरित्र में राजनीति अद्‌भुत होती है। हालिया चुनावी नतीजों ने यह बात बेहद साफ कर दी है। भाजपा के लिए तो और अधिक। कितनी अजीब बात है कि पांच वर्षों तक लालकृष्ण आडवाणी जिस शख्स के इशारे पर फैसले लेते रहे, जिस सलाहकार की हर बात को पत्थर की लकीर मानते रहे, आज वही शख्स हार के लिए आडवाणी को ही ज़िम्मेदार बता रहा है। वह शख्स हैं-सुधींद्र कुलकर्णी। आडवाणी के सलाहकार नंबर वन। उन्होंने चुनाव नतीजे आने

अरुण जेटली ऐसा क्यों कर रहे हैं?

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प्रधानमंत्री के  लिए भाजपा में अलग-अलग नाम के  उछलने पर ज़्यादातर नेता सकते में हैं. वैसे उनका मानना है कि आडवाणी के  ख़िला़फ इस साजिश को पार्टी में सिर्फ एक ही आदमी अंजाम दे सकता है. वह हैं-अरुण  जेटली. वह भाजपा के  प्रमुख राणनीतिकार हैं. चुनाव प्रचार के  कमांडर इन चीफ हैं. आडवाणी उन पर भरोसा करते आए हैं, लेकिन अरुण जेटली इस बार चुनाव परिणाम के  आने के  बाद खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. चुनाव के  इस मोड़ पर

शीर्ष दलों में नेतृत्व पर घमासान

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भारतीय चुनावी राजनीति में एक अजीब सी हवा चली है-बुजुर्ग नेताओं को अपमानित करने की. उन्हें सार्वजनिक तौर पर शर्मसार करने की नई शुरुआत हुई है. शीर्ष नेताओं का अपमान जिस तरह इस चुनाव में हो रहा है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ. चुनाव से पहले भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री घोषित किया था और अब चुनाव के  दौरान उसी पार्टी के  नेता नरेंद्र मोदी का नाम उछाल कर आडवाणी को अपमानित किया जा रहा है. कांग्रेस भी मनमोहन

दलितों के पैर छूते ब्राह्मण सामाजिक बदलाव की ओर एक कदम

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इस तस्वीर को अगर गांधी और अंबेडकर भी देखते तो उन्हें अपनी आंखों पर यकीन नहीं होता. उन्होंने भी यह नहीं सोचा होगा कि पूरी दुनिया के सामने किसी दलित महिला के पैर छूने के  लिए ब्राह्मण हाथ जोड़कर लाइन में खड़े होंगे. और आशीर्वाद देना तो दूर, वह आराम से सोफे पर बैठकर मंद-मंद मुस्कुरा रही होगी. यह पता करने की कोशिश कर रही होगी कि पैरों पर गिरने वाला ब्राह्मण किस चीज की भीख मांगने आया है. गांधी

अरुण जेटली का सपना

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कहते हैं कि सपनों के पंख होते हैं. वे आसमान में उड़ते हैं. जिनके सपने ज़्यादा ऊंचाइयों पर उड़ते हैं, वे उतने ही सफल होते हैं  अरुण जेटली दरअसल भारत की राजनीति में एक ऐसा सिकंदर है, जो बिना जनता के आशीर्वाद के, बिना चुनाव जीते ही राष्ट्रीय स्तर काबन जाता है. मंत्री बन जाता है. ऐसे में अगर वह देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी का सर्वेसर्वा भी बन जाते हैं, तो इसमें शक़ की कोई गुंज़ाइश नहीं कि

भाजपा को महंगी पड़ेगी आडवाणी और जोशी की अटल जंग

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दो दशकों की दुश्मनी ने भाजपा को एक होने न दिया लोकसभा चुनाव की तैयारी के बीच भारतीय जनता पार्टी के दो नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही है. एक प्रधानमंत्री बनना चाहता है, तो दूसरा उन्हें उसे कुर्सी से दूर रखने के लिए चक्रव्यूह रच रहा है. वर्चस्व की यह लड़ाई उतनी ही पुरानी है, जितनी भारतीय जनता पार्टी की उम्र है. यानी जब से पार्टी बनी, तब से मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच