देश के सरकारी तंत्र में फैला भ्रष्टाचार अपने अंतर्विरोध की वजह से एक्सपोज हो रहा है. आज उद्योगपति के ख़िला़फ उद्योगपति, नेता के ख़िला़फ नेता, अधिकारी के ख़िला़फ अधिकारी, मीडिया के ख़िला़फ मीडिया, कोर्ट के ख़िला़फ कोर्ट, सब लड़ रहे हैं. जो अब तक देश को लूट रहे थे, अब आपस में लड़ रहे हैं. सवाल यह है कि देश चलाने वालों को जब भ्रष्टाचार के इस राक्षस के बारे में सब कुछ पता था तो वे अब तक चुप
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हर दिन एक न एक नया घोटाला आम जनता के सामने उजागर हो रहा है. अ़फसोस की बात यह है कि यह सब ऐसे प्रधानमंत्री के शासनकाल में हो रहा है, जो स्वयं ईमानदार एवं सज्जन पुरुष हैं. जिस तरह हर दिन एक के बाद एक घोटाले सामने आ रहे हैं, सरकारी तंत्र में फैले भ्रष्टाचार की असलियत सामने आ रही है, मन में एक सवाल उठता है कि अगर आज गांधी ज़िंदा होते तो क्या करते. शायद सत्याग्रह या
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जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी गठबंधन की ऐसी जीत इसलिए हुई, क्योंकि बिहार की जनता यह मानती है कि नीतीश कुमार की सरकार लालू यादव की सरकार से का़फी बेहतर है. चौथी दुनिया के सर्वे में 73 फीसदी लोगों ने इस बात को माना था और स़िर्फ 12 फीसदी लोगों को यह लगता था कि लालू यादव की सरकार नीतीश सरकार से बेहतर थी. इसका मतलब यह है कि लोग जब वोट देने गए तो उनके दिमाग में
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इस बात की हर तऱफ तारी़फ हो रही है कि बराक ओबामा ने पाकिस्तान के ख़िला़फ बयान दिया. तारी़फ इस बात की भी हो रही है कि अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन किया है. यूपीए सरकार इसके लिए ख़ुद ही अपनी पीठ थपथपा रही है. मुख्य विपक्षी दल को भी इसमें अमेरिका का खेल समझ में नहीं आया. दरअसल, इसमें कई पेंच हैं, कई उलझनें हैं, कई शर्तें हैं. इनमें से कुछ
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सवाल यह है कि राहुल ने बिहार में ऐसी रणनीति क्यों अपनाई. दरअसल राहुल गांधी के लिए बिहार चुनाव एक प्रयोगशाला है, उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनना है, युवाओं का सर्वमान्य नेता बनना है. इसी मायने में बिहार चुनाव राहुल गांधी का इम्तहान है. बिहार के चुनाव में यह भी फैसला होना है कि राहुल गांधी का करिश्मा चुनाव पर असर डालता है या नहीं? राहुल गांधी में संगठन का पुनर्निर्माण करने की क़ाबिलियत है या नहीं? बीस साल पहले
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विधानसभा लोकतंत्र का मंदिर है, वहां जाने का अधिकार सिर्फ योग्य, कर्मठ, ईमानदार एवं जनहितैषी शख्स को है, जो नुमाइंदगी के फर्ज़ को ब़खूबी निभा सके. दाग़दार दामन वालों और सौदेबाज़ बहुरूपियों को विधानसभा भेजना लोकतंत्र और देश की गरिमा की सरासर अनदेखी है. बिहार की जनता को इस बार पूरी सावधानी से अपने मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए, वरना अगले पांच सालों तक हाथ मलने के अलावा उसके पास और कोई चारा शेष नहीं रहेगा. बिहार के चुनावों में
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भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए बी वर्धन देश के वरिष्ठतम और सम्मानित राजनीतिज्ञों में शुमार किए जाते हैं. देश, विदेश और राज्यों से संबंधित विभिन्न मामलों के वह अच्छे जानकार हैं. बिहार विधानसभा चुनाव का मामला हो या अयोध्या पर आए ताजा फैसले का, वह हर बिंदु पर बेबाक बोलते हैं. चौथी दुनिया के समन्वय संपादक मनीष कुमार ने पिछले दिनों उनसे विभिन्न गंभीर मुद्दों पर एक लंबी बातचीत की. पेश हैं मुख्य अंश: बिहार विधानसभा में पिछली बार
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जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी गठबंधन जीत की स्थिति में इसलिए है, क्योंकि बिहार की जनता यह मानती है कि नीतीश कुमार की सरकार लालू यादव की सरकार से का़फी बेहतर है. उसे लगता है कि पिछले पांच सालों में संतोषजनक विकास हुआ है. बिहार का चुनाव हमेशा से जटिल रहा है. विजेता कौन होगा, यह रिजल्ट आने के बाद ही पता चल पाता है. चौथी दुनिया के सर्वे के मुताबिक़, जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी
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हम रोज़ चिल्लाते हैं, सांप्रदायिकता की आलोचना करते हैं, धर्मनिरपेक्ष मानसिकता का समर्थन करते हैं. समाधान भी यही है कि धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा दिया जाए. इस देश में स़िर्फ मुस्लिम ही अल्पसंख्यक नहीं हैं, सिख, ईसाई और जैन भी अल्पसंख्यक हैं. दलित भी कहता है कि हम अलग अल्पसंख्यक हैं तो मान लिया जाए कि हम लोगों ने पार्टी बना ली. पार्टी और लोगों ने भी बना ली तो देश का बनेगा क्या? देश तो तभी ज़िंदा रह सकता है,
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नीतीश कुमार को फिर से मुख्यमंत्री बनना है, उन्हें अपने विकास पर भरोसा है. लालू यादव और रामविलास पासवान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, दोनों को अपने वोट बैंक पर विश्वास है और राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने का रास्ता सा़फ कर रहे हैं. उनके लिए बिहार चुनाव सबसे महत्वपूर्ण प्रयोगशाला है. हर नेता के सामने चुनौतियों का पहाड़ है. बिहार का चुनाव दूसरे राज्यों के चुनाव से अलग है, क्योंकि यहां की जनता राजनीतिज्ञों के इशारों को भी
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