यह एक शर्मनाक़ स्थिति है कि माई नेम इज ख़ान विवाद ने ऐसा रूप अख्तियार कर लिया, जहां राज्य सरकार ने फिल्म को रिलीज और हिट कराने का ज़िम्मा अपने सिर ले लिया हो. हद तो तब हो गई, जब उप मुख्यमंत्री आर आर पाटिल ख़ुद फिल्म देखने थियेटर पहुंच गए. जिस हिसाब से कांग्रेस और एनसीपी की सरकार ने इस फिल्म को रिलीज कराने में अपनी सारी ताक़त झोंक दी, अगर वैसी ही कोशिश ग़रीब टैक्सी वालों के लिए
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भारतीय जनता पार्टी अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राह पर चलेगी. भाजपा पहले भी संघ के इशारे पर ही चलती थी, लेकिन थोड़ा पर्दा था. नए अध्यक्ष नितिन गडकरी ने यह पर्दा भी उठा दिया है. पहले संघ के लोग कहते थे कि भाजपा के क्रियाकलापों में संघ का कोई हस्तक्षेप नहीं है और भाजपा के नेता कहते थे कि संघ उनके लिए वैचारिक प्रेरणास्रोत है, भाजपा के काम में संघ की कोई दख़लअंदाज़ी नहीं है. ऐसा पहली बार
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नितिन गडकरी के सामने चुनौतियों का पहाड़ है. देश की मुख्य विपक्षी पार्टी का अध्यक्ष होना कोई आसान काम नहीं है. उसके कंधों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है. प्रजातंत्र में विपक्षी पार्टी के नेता की ज़िम्मेदारी सरकार चलाने वाली पार्टी से कई मायने में कहीं ज़्यादा होती है. अगर यह कंधा कमज़ोर हो तो देश की राजनीति पर इसका बुरा असर पड़ता है. ऐसे व्यक्ति के पास देश को अलग राह दिखाने की दूरदर्शिता और व्यक्तित्व का होना अनिवार्य
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बिहार में विधानसभा चुनाव दरवाज़े पर दस्तक देने लगी है. नीतीश कुमार अलग अलग इलाक़ों में जाकर जनसमर्थन जुटा रहे हैं, तो कांग्रेस भी उत्तरप्रदेश की तर्ज पर, बिहार में संगठन मज़बूत करने और अपनी खोई हुई ज़मीन वापस जीतने की जुगत में लगी है. भारतीय जनता पार्टी और संघ ने भी अपनी पूरी ताक़त बिहार में झोंक दी है. इस बीच लालू यादव ने एक मास्टर स्ट्रोक खेला है. यादव और मुसलमानों को फिर से एकजुट करने की एक
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आपसी फूट, अविश्वास, षड्यंत्र, अनुशासनहीनता, ऊर्जाहीनता, बिखराव और कार्यकर्ताओं में घनघोर निराशा के बीच चुनाव दर चुनाव हार का सामना, वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी की यही फितरत बन गई है. ऐसे व़क्त में भारतीय जनता पार्टी को नया अध्यक्ष मिला है. 52 साल की उम्र वाले लोगों को अगर युवा कहा जा सकता है तो नया अध्यक्ष युवा है. उम्र न सही, लेकिन वह अपने बयानों, तेवर और राष्ट्रीय राजनीति के अनुभव के नज़रिए से युवा मालूम पड़ते हैं.
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रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट की अनुशंसाओं को लागू करने के मसले पर देश में मौक़ापरस्त सियासत की जो फिज़ां बनी है उससे एक बात तो सा़फ है कि सियासी दलों के लिए देश का दलित मुसलमान उसकी बिसात का बस एक मोहरा है और उनके हक़ ओ ह़ूकूक़ की बात महज़ एक सियासी चाल. इस बहाने सियासतदानों की चाल और चरित्र दोनों सामने हैं. इतिहास में ऐसे मौ़के कम ही आते हैं, जब किसी अ़खबार की वजह से सरकार को
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रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को लेकर सदन में लगातार हंगामा होता रहा. सांसद वेल में जाकर प्रदर्शन और नारेबाज़ी करते रहे. लगभग हर दल के सांसद चाहते थे कि यह रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी जाए, पर वे न सरकार को तैयार कर सके और न ही चेयर पर दबाव डाल सके. ससद में चौथी दुनिया की गूंज जारी है. कई सालों बाद किसी अ़खबार में छपी रिपोर्ट पर संसद में हंगामा हो रहा है. जब लोकसभा में
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इतिहास में तो यही लिखा जाएगा कि कांग्रेस की एक सरकार ने बाबरी मस्जिद को गिरने दिया और दूसरी ने बाबरी मस्जिद के गुनहगारों को छोड़ दिया. सरकार और कांग्रेस पार्टी ने लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट को समझने में चूक की है, इसलिए वह सही कार्रवाई नहीं कर सकी. उसने लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट के शब्दों और वाक्यों को पढ़ा, लेकिन वह रिपोर्ट को उसके सही संदर्भ में नहीं समझ सकी. सरकार ने कारण को प्रभाव समझ लिया और प्रभाव
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के रिश्तों के बारे में हमेशा यही कहा गया कि भाजपा एक स्वतंत्र संगठन है और संघ इसके आंतरिक मामलों में कोई दखलंदाजी नहीं करता है. जबसे यह बात सामने आई है कि अगले अध्यक्ष महाराष्ट्र के नितिन गडकरी होंगे, तबसे संघ परिवार का यह झूठ लोगों के सामने आ गया. बचपन में हमने एक कहानी पढ़ी थी कि कबूतर के अंडों को यूं ही पड़े देखकर कुछ बच्चों को लगा कि इन्हें
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भाजपा का अध्यक्ष कौन हो, संघ परिवार चुनाव के बाद से ही इसका जवाब तलाश रहा है. जिस दिन भाजपा चुनाव हार गई, लालकृष्ण आडवाणी के इस्ती़फे की बात चल रही थी, उनके ख़िलाफ़ माहौल बन रहा था, तब मोहन भागवत ने संघ के तीन वरिष्ठ अधिकारियों को लालकृष्ण आडवाणी के घर भेजा. यह संदेश देने के लिए कि वह इस्ती़फा दे दें. आडवाणी के घर गए संघ के तीनों अधिकारियों ने सारी बातें की, लेकिन यह कहने की हिम्मत
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