यह बजट खोखला और दिशाहीन है

Share via

यह एक पुराना तर्क है कि जब समस्याएं असामान्य हों, तो ऐसी समस्याओं से निपटने का तरीक़ा भी असामान्य होना चाहिए. अगर कठिन समस्याओं से निपटने के लिए हम साधारण तरी़के अपनाएंगे, तो वे कभी हल नहीं होंगी. कुछ साल पहले तक भारत एक सुपर पावर बनने की ओर अग्रसर था, लेकिन पिछले तीन सालों में स्थिति उलट गई है. भारत को वापस विकास और उन्नति के रास्ते पर लाकर खड़ा करने के लिए 2013-14 का बजट एक सुनहरा अवसर था, जिसे सरकार ने गंवा दिया. सरकार ने एक ऐसा साधारण बजट पेश किया है, जिससे न तो किसान खुश हैं और न मध्यवर्ग. इस बजट में न तो ग़रीबों के लिए कोई राहत है और न ही मज़दूरों को खुशहाल करने की कोशिश हुई है. इसके अलावा इस बजट को देखकर विदेशी निवेश की संभावना भी ख़त्म हो गई है.

budget

एक महीने पहले चौथी दुनिया ने यह छापा था कि देश की सरकार किस तरह कॉरपोरेट जगत के हाथों की कठपुतली बन गई है. हमने बताया था कि यूपीए सरकार किस तरह कॉरपोरेट जगत को लगातार टैक्स में छूट दे रही है. बजट के आंकड़े बताते हैं कि इस बार कॉरपोरेट जगत को 5.73 लाख करोड़ रुपये की छूट टैक्स में दी गई है. इसमें कॉरपोरेट टैक्स, एक्साइज ड्यूटी और कस्टम ड्यूटी शामिल हैं. यूपीए सरकार कॉरपोरेट जगत को छूट देने में कोई कमी नहीं करती. 2005-06 में 2.29 लाख करोड़ रुपये की छूट दी गई, जो अब बढ़ते-बढ़ते 2011-12 में 5.73 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुकी है. वित्त मंत्री वित्तीय घाटे को लेकर आंसू बहाते हैं, लेकिन वे घड़ियाली प्रतीत होते हैं, क्योंकि अगर सरकार कॉरपोरेट जगत को टैक्स में यह छूट देना बंद कर दे, तो एक ही झटके में न स़िर्फ वित्तीय घाटा ख़त्म हो जाएगा, बल्कि हमारे पास डीजल, पेट्रोल और रसोई गैस की सब्सिडी के लिए भी पैसा बच जाएगा. यह बिल्कुल साफ़ है कि सरकार कॉरपोरेट जगत को दिल खोलकर मदद पहुंचाती है, लेकिन जब कभी भी ग़रीबों को राहत देने की बात होती है, तो वह पैसा नहीं है, का रोना रोती है. अजीब बात है.

सरकार अगर ग़रीबों के फ़ायदे के लिए नीतियां बनाए, तो उसे लोकप्रिय बजट या पॉपुलिस्ट बजट बताकर खारिज कर दिया जाता है और अगर वही सरकार अमीरों के फ़ायदे के लिए नीतियां बनाए, तो लोग उसे सुधार यानी रिफार्म की संज्ञा दे देते हैं. 2014 में लोकसभा का चुनाव है, इसलिए बजट-2013 के पेश होने से पहले यह कयास लगाए जा रहे थे कि बजट पॉपुलिस्ट होगा या फिर रिफार्म को तेज करने वाला होगा. यह बजट न तो पॉपुलिस्ट है और न ही रिफार्मिस्ट. लगता है कि देश में ऐसे अर्थशास्त्रियों की कमी हो गई है, जो जनता की भलाई की बात करें या फिर देश के मीडिया, खासकर टीवी चैनलों की आत्मा बिक चुकी है, जो ऐसे अर्थशास्त्रियों को पेश करता है, जो कॉरपोरेट जगत की दलाली करते हैं. उदाहरण के तौर पर बजट में जैसे ही फार्म क्रेडिट के लिए 7 लाख करोड़ रुपये आवंटित किए गए, मीडिया चिल्लाने लगा. किसी ने इस हकीकत को जानने की कोशिश भी नहीं की कि दरअसल, इसमें से महज 50 हज़ार करोड़ रुपये छोटे एवं मध्यमवर्गीय किसानों के पास जाएंगे और बाकी 6.5 लाख करोड़ रुपये का फ़ायदा बड़े किसान एवं कृषि उद्योगों के मालिक उठा ले जाएंगे. यह एक चुनौतीपूर्ण समय का साधारण बजट है. इस बजट की तारीफ़ स़िर्फ कॉरपोरेट जगत और मीडिया कर रहा है.

वित्त मंत्री चिदंबरम ने अपने भाषण में कहा कि उन्हें तीन चेहरे नज़र आते हैं, युवा, महिला और ग़रीब आदमी. कुछ लोग इसका यह तात्पर्य निकाल रहे हैं कि वह युवा राहुल गांधी है, महिला सोनिया गांधी और वह ग़रीब आदमी कांग्रेस पार्टी के चुनावी नारे का आम आदमी है. बजट-2013 में इन तीनों के लिए वैसे कुछ मौलिक बदलाव की चेष्टा नहीं हुई है, यह स़िर्फ एक प्रतीकवाद ही रहा.

वैसे हकीकत यही है कि मनमोहन सिंह की सरकार ने सबको निराश किया. यूपीए सरकार ने अपना आख़िरी वार्षिक बजट संसद में पेशकर महज अपने दायित्व का निर्वाह कर दिया. जैसे-जैसे वित्त मंत्री पी चिदंबरम का बजट भाषण चलता रहा, वैसे-वैसे सेंसेक्स नीचे गिरता गया. शाम तक सेंसेक्स में 1.84 फ़ीसदी की गिरावट हुई. बाज़ार ने वित्त मंत्री के बजट को खारिज कर दिया. विपक्षी पार्टियों ने इस बजट को न स़िर्फ खारिज किया, बल्कि इसका मजाक भी उड़ाया. किसी ने इसे बाजीगरी कहा, तो किसी ने लॉलीपाप बताया. किसी ने इसे डल और उबाऊ बजट बताया, तो किसी ने जनविरोधी एवं ग़रीबविरोधी बजट की संज्ञा दी. लेकिन इस बजट पर सबसे हैरतअंगेज बयान कांग्रेस पार्टी के नेता एवं सांसद मणिशंकर अय्यर ने दिया. उन्होंने एक ऐसी बात कही कि सब चकित हो गए. उन्होंने साफ़-साफ़ कहा कि 1991 से लागू आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार करने का वक्त आ गया है. जब कांग्रेस के ही नेता ऐसे सवाल करने लगें, तो यह समझ लेना चाहिए कि यूपीए सरकार की आर्थिक नीति न स़िर्फ खोखली है, बल्कि दिशाहीन भी है. यह बजट कई मायनों में महत्वपूर्ण था, लेकिन यूपीए सरकार ने एक ऐतिहासिक मौक़ा अपने हाथों से गंवा दिया. इसकी क्या वजहें हो सकती हैं, इसका विश्‍लेषण ज़रूरी है, लेकिन सबसे पहले यह समझते हैं कि इस बजट की पृष्ठभूमि क्या है. आर्थिक दृष्टि से यह एक संकटकालीन दौर है. देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं, महंगाई आसमान छू रही है और विकास एवं उत्पादन के आंकड़े धरातल की ओर अग्रसर हैं. बेरोज़गारी की मार से युवाओं में बेचैनी है. आर्थिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है. सरकार की सारी सामाजिक एवं आर्थिक विकास योजनाएं विफल साबित हो रही हैं.

अमीर और ग़रीब के बीच का फ़ासला दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. अपनी बदहाली की वजह से मज़दूर, किसान और कामगार लोग आंदोलन कर रहे हैं. देश में पिछले 6-7 सालों से मूलभूत सुविधाओं का विकास रुक-सा गया है और जो ढांचा पहले से मौजूद है, उसका धीरे-धीरे क्षरण हो रहा है. उद्योग और व्यापार चौपट होने की कगार पर है. अर्थव्यवस्था में निवेश में कमी आई है. देश के निवेशक अब यहां निवेश करने के इच्छुक नहीं हैं, इसीलिए वे अपना पैसा बाहर लगा रहे हैं. वहीं विदेशी निवेशक देश की ब्यूरोके्रसी और सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों से परेशान होकर भारत में पैसा नहीं लगाना चाहते हैं. इन परिस्थितियों से निपटना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए थी, लेकिन इस बजट में इन समस्याओं का हल निकालने की न तो कोई कोशिश हुई और न ही सरकार ने ऐसे संकेत दिए कि वह जनता से जुड़ी समस्याओं का हल निकालने की इच्छुक है. हैरानी तो इस बात से है कि वित्त मंत्री ने अपने पूरे बजट भाषण में इन समस्याओं का जिक्र तक नहीं किया. इस बजट में देश के किसानों के लिए कुछ भी नहीं है. हालांकि वित्त मंत्री ने अनाजों की बढ़ती पैदावार, खाद सब्सिडी और कृषि सब्सिडी के बारे में जिक्र करके अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश ज़रूर की, जो स़िर्फ एक राजनीतिक स्टंट था. हक़ीक़त तो यह है कि पिछले नौ सालों में सरकार ने जिस तरह से किसानों की उपेक्षा की है, उससे तंग आकर वे खेती छोड़कर दूसरे व्यवसाय की ओर भाग रहे हैं. खेती में इस्तेमाल होने वाली हर चीजों की क़ीमत बढ़ गई, लेकिन अनाज की क़ीमत उसके अनुपात में कम है. किसानों को घाटा हो रहा है. छोटे एवं मध्यम किसानों को परिवार चलाने में भी कठिनाई हो रही है.

सरकार जो पैसा सब्सिडी के नाम पर खर्च करती है, उसका फ़ायदा चंद किसानों को हो पाता है. किसानों की कर्ज माफी पर सीएजी की रिपोर्ट आ चुकी है, जो बताती है कि किसानों के नाम पर बनी योजनाओं का किस तरह दुरुपयोग हुआ और किस तरह किसान ठगे गए. मतलब यह कि यूपीए सरकार किसानों के नाम पर लॉलीपाप योजनाओं की घोषणा तो ज़रूर करती है, लेकिन उसका सही ढंग से क्रियान्वयन नहीं होता है. इस बजट में अगर वित्त मंत्री ने एक जवाबदेह व्यवस्था और योजना की शुरुआत की होती, तो आने वाले समय में किसानों की कई समस्याएं दूर हो सकती थीं, लेकिन वित्त मंत्री ने कृषि क्षेत्र में आवंटित राशि की स़िर्फ घोषणा करना ही अपना दायित्व समझा. सामाजिक विकास की दृष्टि से यह एक निराशाजनक बजट है. इस बजट में सामाजिक क्षेत्र में पिछले साल की तुलना में ज़्यादा पैसा आवंटित किया गया है. लेकिन, इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि पिछले बजट में जिन योजनाओं में जितना पैसा आवंटित हुआ था, उसका क्या और कैसे उपयोग हुआ. हैरानी की बात तो यह है कि सामाजिक क्षेत्र में आवंटित राशि पूरी तरह से ट्रांसफर नहीं हो पाती और जो पैसा खर्च होता है, उससे अपेक्षित नतीजा नहीं निकलता. मनरेगा में पिछले बजट में 33 हजार करोड़ रुपये आवंटित किए गए, जिन्हें सरकार पूरी तरह से खर्च नहीं कर सकी. सर्वशिक्षा अभियान में आवंटित राशि का मात्र 61 फ़ीसदी पैसा खर्च हो पाया. सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक, स्लम डेवलपमेंट प्रोग्राम में आवंटित राशि का स़िर्फ 49 फ़ीसदी पैसा ही ट्रांसफर हो पाया. अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर एंड गवर्नेंस प्रोग्राम में आवंटित राशि 44 फ़ीसदी पैसा ट्रांसफर हो पाया. यह सरकार की विफलता है. इसके अलावा ज़्यादातर योजनाएं भ्रष्टाचार से ग्रसित है. मीडिया में इन योजनाओं में भ्रष्टाचार की ख़बरें पटी पड़ी हैं. वित्त मंत्री का काम स़िर्फ राशि आवंटित करना नहीं होता, बल्कि पैसे का सही उपयोग हो और अपेक्षित नतीजा निकले, यह सुनिश्‍चित करना भी होता है. इसके लिए प्रशासनिक सुधार की ज़रूरत है, जो इस बजट से गायब है.

भारत एक संकटकाल से गुजर रहा है. उदारीकरण और निजीकरण का फ़ायदा आम आदमी को नहीं हुआ है. पिछले बीस सालों में ग़रीब की हालत खराब हुई है. मध्यवर्ग पहले से ज़्यादा परेशान एवं चिंताग्रस्त है. मनमोहन सिंह सरकार के नव उदारवाद का फ़ायदा स़िर्फ अमीरों और बड़े व्यवसायियों को हुआ है. नव उदारवादी नीतियों की वजह से भ्रष्टाचार ने पूरे तंत्र को खोखला कर दिया है.

वित्त मंत्री चिदंबरम ने अपने भाषण में कहा कि उन्हें तीन चेहरे नज़र आते हैं, युवा, महिला और ग़रीब आदमी. कुछ लोग इसका यह तात्पर्य निकाल रहे हैं कि वह युवा राहुल गांधी है, महिला सोनिया गांधी और वह ग़रीब आदमी कांग्रेस पार्टी के चुनावी नारे का आम आदमी है. बजट-2013 में इन तीनों के लिए वैसे कुछ मौलिक बदलाव की चेष्टा नहीं हुई है, यह स़िर्फ एक प्रतीकवाद ही रहा. सबसे पहले युवाओं के हालात देखते हैं. वित्त मंत्री चिदंबरम ने बड़े जोर-शोर से यह ऐलान किया कि सरकार युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए नई संस्थाएं खोलेगी, जिनसे हर साल 15 लाख युवा प्रशिक्षित होकर निकलेंगे. यहां तक तो ठीक है, लेकिन वित्त मंत्री ने यह नहीं बताया कि प्रशिक्षित होने के बाद उनका क्या होगा? उन्हें नौकरी कौन देगा? वैसे यह भी जानना ज़रूरी है कि इस साल 15 लाख से ज़्यादा नौजवान अलग-अलग कोर्स करके नौकरी की तलाश में जुटेंगे, लेकिन उनके लिए नौकरी उपलब्ध नहीं है. इन 15 लाख नौजवानों में से 5 लाख युवा ऐसे हैं, जिन्होंने निजी संस्थानों से अपनी प्रोफेशनल डिग्री ली है. मतलब यह कि 5 लाख युवाओं ने इस पढ़ाई के लिए डोनेशन दिया, खुद का पैसा खर्च किया. इनमें से कई ऐसे भी होंगे, जिनके घरवालों ने कर्ज लेकर, ज़मीन या खेत बेचकर पढ़ाया होगा. अगर इन्हें नौकरी नहीं मिलेगी, तो फिर ये क्या करेंगे? प्रधानमंत्री और अन्य दूसरे नेता बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि भारत एक युवा देश है, क्योंकि यहां दुनिया के सबसे ज़्यादा युवा रहते हैं. सही मायने में गर्व की बात तब होगी, जब सरकार इन युवाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करेगी या फिर ऐसी योजनाओं को प्राथमिकता देगी, जिसमें विकास के साथ-साथ रोजगार के पर्याप्त अवसर हों. अफ़सोस की बात तो यह है कि यूपीए सरकार की नव उदारवादी नीतियों ने विकास के उस मॉडल को अपनाया है, जिसमें रोजगार का अभाव है. महिलाओं को राहत देने के नाम पर चिदंबरम ने अजीबोगरीब प्रतीकवाद का सहारा लिया. महिलाओं के लिए बैंक का मतलब यह है कि ऐसा बैंक, जो महिलाओं द्वारा चलाया जाएगा और जिसका उपयोग स़िर्फ महिलाएं कर सकेंगी. सवाल यह है कि क्या स़िर्फ एक बैंक खोल देने से महिलाओं की आर्थिक समस्याएं ख़त्म हो जाएंगी, वेतन-मज़दूरी के मामले में हो रहे भेदभाव ख़त्म हो जाएंगे. जहां तक बात ग़रीबों की है, तो सरकार ने यह पहले ही तय कर दिया है कि वह अर्थव्यवस्था को मुक्त करने की पक्षधर है, इसलिए अब ग़रीबों की स़िर्फ बात होगी, लेकिन उनके लिए कोई नीति नहीं बनेगी.

देश का ग़रीब महंगाई की मार झेल रहा है. अफ़सोस की बात यह है कि महंगाई ख़त्म करने की दिशा में इस बजट में कुछ नहीं किया गया है. उल्टे, रेल बजट में माल ढुलाई का किराया बढ़ा दिया गया है, जिससे महंगाई और भी बढ़ेगी. यह कहने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए कि मनमोहन सरकार ने जो बजट पेश किया है, वह ग़रीब विरोधी है. ग़रीबों को ग़रीब और अमीरों को अमीर बनाओ, यही इस बजट का मूलमंत्र है. भारत एक संकटकाल से गुजर रहा है. उदारीकरण और निजीकरण का फ़ायदा आम आदमी को नहीं हुआ है. पिछले बीस सालों में ग़रीब की हालत खराब हुई है. मध्यवर्ग पहले से ज़्यादा परेशान एवं चिंताग्रस्त है. मनमोहन सिंह सरकार के नव उदारवाद का फ़ायदा स़िर्फ अमीरों और बड़े व्यवसायियों को हुआ है. नव उदारवादी नीतियों की वजह से भ्रष्टाचार ने पूरे तंत्र को खोखला कर दिया है. प्रशासनिक सुधार नहीं हो सका है, जिसकी वजह से योजनाएं विफल हो रही हैं. आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में त्राहि-त्राहि मची हुई है, लेकिन सरकार के पास इन समस्याओं का न तो कोई ठोस उपाय है और न ही सोच. यही वजह है कि देश के किसान और मज़दूर आंदोलन कर रहे हैं. इसके अलावा देश भर में हज़ारों जनांदोलन चल रहे हैं, जिनकी ख़बरें मीडिया में नहीं आती हैं. देश में भ्रष्टाचार को लेकर जो आंदोलन हो रहे हैं, उन्हें व्यापक जनसमर्थन मिल रहा है. सरकार की साख दांव पर लगी है. युवाओं का भविष्य अंधकारमय है. व्यवस्था परिवर्तन की मांग ज़ोर पकड़ रही है. जो जहां है, वहीं सरकारी तंत्र से नाराज़ है. इसके अलावा देश के 270 जिलों में नक्सलियों का राज है. ये सारी समस्याएं साधारण नहीं, बल्कि असाधारण हैं. सरकार से यह अपेक्षा थी कि इस बजट में इन समस्याओं का कोई हल निकाला जाएगा, लेकिन हल निकालना तो दूर, इस बजट में इन समस्याओं पर ध्यान तक नहीं दिया गया. सरकार को यह समझना चाहिए कि अगर बजट में आम लोगों को राहत नहीं मिलती है, तो उनका ग़ुस्सा भड़क सकता है. देश के प्रजातंत्र पर संकट गहरा सकता है.

Share via