इस बात की हर तऱफ तारी़फ हो रही है कि बराक ओबामा ने पाकिस्तान के ख़िला़फ बयान दिया. तारी़फ इस बात की भी हो रही है कि अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन किया है. यूपीए सरकार इसके लिए ख़ुद ही अपनी पीठ थपथपा रही है. मुख्य विपक्षी दल को भी इसमें अमेरिका का खेल समझ में नहीं आया. दरअसल, इसमें कई पेंच हैं, कई उलझनें हैं, कई शर्तें हैं. इनमें से कुछ को बराक ओबामा ने अपने भाषण में बताया और कुछ उन्होंने देश की जनता को समझने के लिए छोड़ दिया. अमेरिका भारत को उसी रोल में देखना चाहता है, जिस रोल में वह ख़ुद आ सकता है. अमेरिका यह चाहता है कि भारत एशिया में उसके रोल को पूरा करे. बराक ओबामा ने यह साफ कर दिया कि भारत को अगर सुरक्षा परिषद में जाना है तो उसे कई सारे अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को निभाना होगा.
अंग्रेजी भाषा में ऑस्कर जीतने वाली एक फिल्म आई थी, ए ब्यूटीफुल माइंड. यह फिल्म नोबेल प्राइज़ विनर डियोन नैश के जीवन की असली कहानी है. डियोन नैश गेम थ्योरी के जनक माने जाते हैं. अंतरराष्ट्रीय राजनीति को समझने में गेम थ्योरी काफी मदद करती है. गेम थ्योरी में कई तरह के खेल होते हैं. एक खेल का नाम है चिकन गेम यानी मुर्गों का खेल. इस खेल को समझते हैं. मान लीजिए कि किसी पुल पर स़िर्फ एक ही गाड़ी के जाने का रास्ता है और दोनों तऱफ से एक-एक गाड़ी आ रही है. अगर दोनों पुल में घुस जाती हैं तो दोनों फंस जाएंगी. दोनों ने ब्रेक नहीं लगाया तो टक्कर हो जाएगी. दोनों तबाह हो जाएंगी. अक्सर ऐसा होता है कि एक रुक जाती है और दूसरी पुल से गुजर जाती है. चिकन गेम के मुताबिक़, जो रुक गया वह चिकन बन गया. राजनीतिशास्त्र की इस थ्योरी को अगर हम भारत-अमेरिका समझौते के तहत आंके तो यही लगता है कि ओबामा भारत को मुर्गा बनाने में कामयाब रहे. हम चूक गए. भारत और अमेरिका के बीच हुए समझौते में ओबामा वह सब हासिल करने में कामयाब हुए, जिसकी वह आस लगाकर भारत आए थे. लेकिन भारत की जनता को अमेरिका की तऱफ से संसद में अच्छा भाषण, पाकिस्तान के ख़िला़फ कोरी बयानबाज़ी और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लालच के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ. इस बात के सबूत दो घटनाओं से मिलते हैं. एक, जब गुस्से से लाल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कहा कि भारत किसी दूसरे देश से नौकरियां चुराने का काम नहीं करता है और दूसरा सबूत ओबामा के जाने के बाद मिला, जब सरकार ने म्यांमार को लेकर यह वक्तव्य दिया कि भारत म्यांमार के आंतरिक मामलों में दख़ल देने के पक्ष में नहीं है. ये दोनों ही बातें इस बात की ओर संकेत करती हैं कि भारत-अमेरिका रिश्ते में कुछ ऐसी बात है, जिसे छुपाया जा रहा है. दोनों देशों के रिश्ते में सब कुछ ठीक नहीं है.
बराक ओबामा जब अमेरिका में राष्ट्रपति पद पर चुने जाने के लिए चुनाव प्रचार कर रहे थे, तब अमेरिका मंदी की मार झेल रहा था. उन्होंने अमेरिका की जनता से यह वादा किया था कि वह सबसे पहले बेरोज़गारों को रोज़गार देंगे. उनके चुने जाने से स़िर्फ अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में एक नई उम्मीद और जोश का संचार हुआ. उनके 22 महीने के कार्यकाल के बाद ये उम्मीदें ख़त्म हो चुकी हैं. अभी हाल में ही अमेरिका के सीनेट और हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव का चुनाव हुआ. बराक ओबामा की डेमोक्रेटिक पार्टी चुनाव हार गई. अमेरिकी जनता को ओबामा से जो उम्मीदें थीं, वह उन्हें पूरा नहीं कर पाए. अमेरिका की जनता को लगता है कि ओबामा की आर्थिक नीति देश को पीछे ले जा रही है. चुनाव में हारने के बाद ओबामा भारत पहुंचे. इस यात्रा से अमेरिका को वह सब मिल गया, जिसकी उसे उम्मीद थी. अमेरिका में बेरोज़गारी और अपनी घटती लोकप्रियता की चुनौतियों से जूझ रहे ओबामा को दिल्ली में हुए व्यापारिक समझौतों की बदौलत अमेरिकी लोगों को नौकरियां मिलेंगी. इस व़क्त अमेरिका के लिए शायद सबसे ज़रूरी चीज यही है. उनके सामने साफ एजेंडा यह था कि भारत के साथ जो भी समझौता हो, उससे अमेरिका में रोज़गार के अवसर पैदा होने चाहिए. भारत दौरे के बाद ओबामा गर्व से कह सकते हैं कि वह भारत से 50,000 लोगों के रोज़गार की व्यवस्था कर आए हैं और आने वाले सालों में भारत के साथ हुए समझौतों से अमेरिका में सात लाख बेरोज़गारों को रोज़गार मिल सकेगा. इसमें अकेले इंडियन एयरफोर्स को दिए जाने वाले बोइंग विमान से 22,160 नौकरियां मिलेंगी.
इंडियन एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी को जो मशीनें दी जाएंगी, उनसे अमेरिका में साढ़े चार हज़ार लोगों को रोज़गार मिलेगा. इसी तरह स्पाइस जेट द्वारा ख़रीदे जाने वाले कॉमर्शियल एयरक्राफ्ट की वजह से अमेरिका में क़रीब तेरह हज़ार लोगों को रोज़गार मिलेगा. ओबामा ने भारत में जितने भी समझौते किए, उनमें अमेरिकावासियों के लिए रोज़गार के अवसर मौजूद हैं. भारत के मध्य वर्ग को भी इससे फायदा होने की उम्मीद है. बराक ओबामा के दौरे के बाद उद्योग जगत में उत्साह है. इस उत्साह की वजह यह है कि ओबामा ने मुंबई में दस अरब डॉलर के बीस सौदे किए. सवाल यह है कि ओबामा के दौरे से भारत की आम जनता को क्या मिला. हमारे देश में बेरोज़गारी है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, छोटे व्यापारियों की हालत ख़राब है, बिजली नहीं है, पानी नहीं है, ग़रीबी है, भुखमरी है और मजदूरों की स्थिति दयनीय है. इन मूलभूत समस्याओं से निपटने के लिए अमेरिका से भारत को क्या मिला? बराक ओबामा के दौरे से फायदा देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों को हुआ है. पाकिस्तान के ख़िला़फ बयान देकर और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनाने का लड्डू दिखाकर बराक ओबामा ने न स़िर्फ सरकार को ठगा है, बल्कि भारत की जनता को भ्रमित किया है. अब तो यही लगता है कि ओबामा अमेरिकी जनता के लिए नौकरी की व्यवस्था करने आए थे, वह कर गए. हमारी सरकार को ही पता नहीं है कि देश की जनता की ज़रूरत क्या है. कहने को हमारे देश के साथ कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य और मौसम विज्ञान में साझीदारी की बात हुई है, लेकिन इसके क्या मायने हैं? शिक्षा में विदेशी पूंजी का मतलब यह नहीं है कि भारत में ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की कोई ब्रांच खुलने वाली है. शिक्षा का बाज़ारीकरण होगा और भारत में थर्ड क्लास इंस्टीट्यूट्स और विश्वविद्यालयों की भरमार हो जाएगी. कृषि क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के आने से किसानों को नुक़सान होगा. खासकर उन लोगों को, जिनकी जीविका खेतों में काम करने से चलती है. उच्च टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में लगे प्रतिबंधों को ढीला करने का क्या मतलब है. यह सा़फ है कि अमेरिका टेक्नोलॉजी के नाम पर अपनी मशीनों को भारत भेजेगा. इससे अमेरिकी कंपनियों की स्थिति बेहतर होगी. मतलब यह है कि इस समझौते से नुक़सान भारत के किसानों, मजदूरों और छोटे व्यापारियों का होगा. जो लोग समझते हैं कि अमेरिका ने भारत के साथ परमाणु करार भारत के लाभ के लिए किया है, वे हक़ीक़त से बेख़बर हैं. उससे अमेरिका की जर्जर अर्थव्यवस्था को फायदा होगा.
इस बात की हर तऱफ तारी़फ हो रही है कि बराक ओबामा ने पाकिस्तान के ख़िला़फ बयान दिया. तारी़फ इस बात की भी हो रही है कि अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन किया है. यूपीए सरकार इसके लिए ख़ुद ही अपनी पीठ थपथपा रही है. मुख्य विपक्षी दल को भी इसमें अमेरिका का खेल समझ में नहीं आया. दरअसल, इसमें कई पेंच हैं, कई उलझनें हैं, कई शर्तें हैं. इनमें से कुछ को बराक ओबामा ने अपने भाषण में बताया और कुछ उन्होंने देश की जनता को समझने के लिए छोड़ दिया. अमेरिका भारत को उसी रोल में देखना चाहता है, जिस रोल में वह ख़ुद आ सकता है. अमेरिका यह चाहता है कि भारत एशिया में उसके रोल को पूरा करे. बराक ओबामा ने यह साफ कर दिया कि भारत को अगर सुरक्षा परिषद में जाना है तो उसे कई सारे अंतरराष्ट्रीय दायित्वों को निभाना होगा. समझने वाली बात यह है कि बराक ओबामा ने यह कहकर साफ संकेत दे दिए कि अ़फग़ानिस्तान में भारत की भूमिका है. दरअसल, अमेरिका भारतीय सैनिकों को अ़फग़ानिस्तान में तैनात करना चाहता है, ताकि जब वे वहां से निकलें तो वहां भारत की सेना मौजूद रहे. मतलब यह कि अमेरिका अ़फग़ानिस्तान पर अपना नियंत्रण तो बरक़रार रखना चाहता है, लेकिन फौज भारत की तैनात करना चाहता है. सच्चाई यह भी है कि हिंदुस्तान ऐसा नहीं कर सकता है. अभी तक भारत इससे बचता आया है. बराक ओबामा यही बता रहे थे कि पाकिस्तान और अ़फग़ानिस्तान में शांति लाने की जिम्मेदारी भारत की भी है.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ओबामा ने कहा कि म्यांमार पर भारत को अपनी चुप्पी तोड़नी होगी. सुरक्षा परिषद में जगह पाने के लिए उन देशों के खिलाफ बोलना होगा, जहां डेमोक्रेसी नहीं है, जहां मानवाधिकारों का हनन होता है, जहां चुनाव के नाम पर फर्जीवाड़ा होता है. अमेरिका अब तक पूरी दुनिया में यही करता आया है. भारत को बराक ओबामा दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में ऐसे ही रोल में देखना चाहते हैं. इसकी वजह यह भी है कि अमेरिका ईरान को भी दबाना चाहता है, लेकिन भारत के रिश्ते ईरान के साथ काफी अच्छे हैं. यहां समझने वाली बात यह है कि म्यांमार हमारा पड़ोसी है. पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्ते अच्छे नहीं हैं. अब म्यांमार से भी अगर हम रिश्ते ख़राब कर लेंगे तो आगे क्या होगा? देखना यह है कि भारत अमेरिका के साथ कितनी दूर तक जा सकता है. क्या हम अमेरिका से दोस्ती के नाम पर विदेश नीति में बदलाव करने वाले हैं? दोनों सरकारें इस बात को कह रही हैं कि पहली बार हिंदुस्तान की अमेरिका से इतनी गहरी दोस्ती बढ़ रही है. यह दोस्ती ख़तरे से खाली नहीं है. अमेरिका का यह रिकॉर्ड रहा है कि जिससे भी इसने दोस्ती की, वह देश तबाह हो गया. चाहे वह इराक हो या फिर पाकिस्तान. आर्थिक क्षेत्र में भारत और अमेरिका एक-दूसरे के उपभोक्ता बाज़ारों पर नज़र गड़ाए हुए हैं, लेकिन अमेरिका चाहता है कि भारत अपनी अर्थव्यवस्था को और उदार बनाने की दिशा में पहल करे और रिटेल जैसे क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमा में वृद्धि करे. अमेरिकी कंपनियों की आर्थिक ताक़त से ख़तरनाक स्थिति पैदा हो सकती है. वॉलमार्ट जैसी कंपनियों का रिकॉर्ड भारत के डर को बल प्रदान करता है, जिसने दूसरे देशों में अपने पैर पसारने के बाद स्थानीय देशी कंपनियों को प्रतियोगिता से ही बाहर कर दिया है. ओबामा के दौरे के बाद यह कहा जा सकता है कि यूपीए सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी के लिए पूरी तरह खोलने की तैयारी कर चुकी है. अमेरिकी सामान भारत में बेचने के लिए बाज़ार की क़ीमत निर्धारण आदि प्रक्रियाओं को पूरी तरह नियंत्रण मुक्त कर दिया जाएगा. अब तक बाजार और निजी देशी-विदेशी पूंजी को पूरी आजादी और पर्याप्त सरकारी समर्थन देने का सीधा-सीधा कुप्रभाव किसी एक बड़ी संख्या वाले वर्ग पर नहीं पड़ रहा था, फुटकर बिक्री करने वालों, पटरी-ठेले वालों को इस ख़तरे का आभास ज़रूर हुआ था, लेकिन अमेरिकी कंपनियां देश में खुदरा बिक्री के बड़े-बड़े स्टोर खोलना शुरू करेंगी तो आम जनता पर इसका असर दिखने लग जाएगा. सच्चाई यह है कि ऐसा होने पर अरबपति बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसान से सीधे ख़रीद के नाम पर उनका मनमाना दोहन करेंगी. यही नहीं, हमारी साढ़े सात हज़ार कृषि मंडियों में जो व्यापारी हैं, उन्हें हटाकर ये कंपनियां सीधे माल ख़रीदेंगी. जो लोग खेत से बाज़ार तक सामान पहुंचाने की प्रक्रिया से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं, उन्हें अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ेगा. यानी फुटकर व्यापार में विदेशी कंपनियों का आगमन पहले से काम कर रहे व्यापारियों की छुट्टी करेगा. ऐसे में भारत में बेरोज़गारों की संख्या लाखों में बढ़ जाएगी. जिस तरह पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक विकास के आंकड़े तो मज़बूत हुए हैं और बेरोज़गारों की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई है. उसी तरह अमेरिका से दोस्ती का नतीजा यह निकलेगा कि सरकारी आंकड़ों में आर्थिक वृद्धि तो होगी, लेकिन वह रोज़गारविहीन वृद्धि होगी. सवाल यह है कि पाकिस्तान के ख़िला़फ महज़ बयानबाज़ी और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता के लालच में फंसकर सरकार किसका हित साधने वाली है. अमेरिका से दोस्ती देश में कई प्रकार की समस्याओं को जन्म देने वाली है. अफसोस की बात यह है कि सरकार की नीति देश के उद्योगपतियों एवं अमेरिका की कंपनियों को फायदा पहुंचा रही है और देश की मुख्य विपक्षी पार्टी भी इन नीतियों का समर्थन करती नज़र आ रही है. ऐसे में देश की जनता क्या करे?
विदेश नीति बनाने वाले रणनीतिकारों को यह समझना चाहिए कि भारत की असली ताक़त इसकी उपजाऊ ज़मीन है, देश में मौजूद मेहनतकश मध्य वर्ग है, हमारे पास दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार है. साथ ही हमारे देश में ग़रीबी है, भुखमरी है, अशिक्षा है, मूलभूत सुविधाओं की कमी है. अच्छी बात यह है कि भारत के लोगों को अपनी खामियों के साथ जीना आता है, उनसे लड़ना आता है. अगर भारत को विश्व शक्ति बनना है तो उसके लिए अमेरिका या किसी और देश के समर्थन की ज़रूरत नहीं है. जिस दिन हमारे देश में ग़रीबी का खात्मा होगा, सब लोग शिक्षित हो जाएंगे, मूलभूत सुविधाएं बेहतर हो जाएंगी, बेरोज़गारी और भुखमरी ख़त्म हो जाएगी और उसी दिन हम अपने आप विश्व शक्ति बन जाएंगे. और फिर दुनिया में भारत को अपनी ज़िम्मेदारी कैसे निभानी है, इसके लिए हमें अमेरिका की सीख की ज़रूरत नहीं है.