भाजपा से वरिष्ठ नेताओं के जाने का सिलसिला जारी है. कुछ को निकाला जा रहा है. कुछ पार्टी के अंदर घुटन महसूस करने की वज़ह से पार्टी छोड़ कर जा रहे हैं. आने वाले दिनों में कुछ और नेता आडवाणी एंड कंपनी के ख़िला़फ आवाज़ उठाने वाले हैं. जब से यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और अरुण शौरी ने चुनाव में हार के लिए ज़िम्मेदार कौन का सवाल उठाया है, तब से पार्टी अंतहीन खेमेबाज़ी में फंस गई. कौन, किसे, कहां और कब निशाने पर ले लेगा यह किसी को पता नहीं. जिन्हें यह षड्यंत्रकारी राजनीति पसंद है वे पार्टी में मौजूद हैं और जिन्हें यह वातावरण पसंद नहीं है वे एक-एक करके पार्टी छोड़ रहे हैं या फिर निष्क्रिय हो गए हैं.
भारतीय जनता पार्टी शिमला में चिंतन बैठक के बाद पहले से ज़्यादा चिंतित, भ्रमित, असंगठित, दिशाहीन और बिखड़ी हुई नज़र आ रही है. चिंतन बैठक की आग से तप कर निकलने के बजाय पार्टी अब अपनी छवि को लेकर चिंतित है. विचारधारा को लेकर भ्रमित है, संगठन में सुधार कैसे हो, उसपर दिशाहीनता की स्थिति है, पार्टी के टूटने का ख़तरा है और सबसे महत्वपूर्ण बात कि चिंतन बैठक में जिस तरह से नेताओं ने अपनी बातें कही, उससे यही कहा जा सकता है पार्टी पूरी तरह बिखरी हुई नज़र आ रही है. जिन्ना के बारे में जो बातें आडवाणी ने कहीं, वही बातें जसवंत सिंह ने अपने किताब में लिखी. दोनों ने एक ही जैसा काम किया लेकिन फर्क इतना है कि आज आडवाणी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं और जसवंत सिंह को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया. हालांकि भाजपा के कई नेता, कुछ दबे और कुछ खुले स्वर में अब यह कहने लगे हैं कि यह सब आडवाणी जी और उनकी मंडली की वजह से हो रहा है. पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से यह साफ हो गया है कि पार्टी चंद नेताओं की जागीर बन गई है. ऐसे माहौल में पढ़े-लिखे, सौम्य, सीधे-सादे, अविवादित और शालीन किस्म के नेताओं को पार्टी में घुटन होने लगी है. हैरानी की बात है कि आडवाणी एंड कंपनी यह सुनने को भी तैयार नहीं है कि पार्टी में कुछ गड़बड़ी है. जो भी पार्टी की बीमारी की बारे में कहता है, पार्टी उसे ही बीमार बताती है और अनुशासन का डंडा दिखा कर उन्हें बेइज़्ज़त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. लगता है कि पार्टी में हिटलर और स्तालिन किस्म के लोगों का राज है. प्रजातांत्रिक मूल्यों को मानना तो दूर भाजपा में आजकल फासीवाद का बोलबाला है.
हैरानी की बात यह है कि कल तक जो पार्टी के हर निर्णय में शामिल होते थे, बड़े बड़े फैसलों में जिनकी राय ली जाती थी, जो चुनाव की रणनीति तय करते थे, वही लोग आज भारतीय जनता पार्टी को घटिया, खंडित, कठोर, तानाशाह और पूरी तरह अपनी विचारधारा के ही ख़िला़फ खड़ी पार्टी बता रहे हैं. कार्यकर्ताओं को अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि आगे क्या होगा? समर्थकों को लग रहा है कि भारतीय जनता पार्टी को वोट देकर उन्होंने ग़लती की है. भाजपा के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को यह समझना मुश्किल हो गया है कि पार्टी को किस बीमारी ने अपनी चपेट में लिया है. दरअसल, भाजपा एक पुरानी बीमारी से पीड़ित है. यह पार्टी भस्मासुर पैदा करती है. इस पार्टी की चाल, चरित्र और चिंतन में ही ऐसा कुछ है कि जो भी सक्रिय होता है, पार्टी के अंदर आगे बढ़ने की कोशिश करता है, उसी के हाथ-पैर काट दिए जाते हैं. उसे ही दरकिनार कर दिया जाता है. अटल और आडवाणी के दौर में कई नेता आए और गए, लेकिन इन दोनों को छोड़कर कोई दूसरा इस पार्टी को नेतृत्व देने में असफल रहा. अब ज़माना बदल गया है, लेकिन भाजपा की यह परंपरा जारी है. भाजपा की दूसरी पंक्ति के नेता पहली पंक्ति में आने को बेकरार है, इसलिए भाजपा में हर नेता, दूसरे नेता से प्रतिस्पर्धा कर रहा है. भाजपा के अंदर ऐसी लड़ाई चल रही है जिसमें हर कोई हर किसी के निशाने पर है. भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि भाजपा की विचारधारा और आधुनिक भारत की सोच में विरोधाभास है साथ ही, पार्टी के संगठन और इसकी राजनीति में भी विरोधाभास है.
जसवंत सिंह और सुधींद्र के जाने के बाद पार्टी ने जो तर्क दिए, वे तो ज़ाहिर तौर पर शर्मनाक हैं. सुधींद्र ने जब इस्तीफा दिया तो, टेलीविजन चैनलों पर ख़बर चल रही थी कि भाजपा-सूत्रों ने कहा कि सुधींद्र तो भाजपा के सदस्य ही नहीं है. उनका तो भाजपा से कोई लेना-देना ही नहीं है.
यहां हमें यह कहना ही पड़ेगा कि भाजपा अजीबोगरीब पार्टी है. अगर वह भाजपा के सदस्य ही नहीं थे, तो आम चुनाव के दौरान भाजपा के वार रूम का संचालन कैसे कर रहे थे? वह कैसे चुनाव के दौरान भाजपा की रणनीति संबंधी बैठकों में निर्णायक भूमिका निभा रहे थे? जसवंत सिंह ने जब आडवाणी एंड कंपनी पर सवाल उठाए, तो पार्टी की तऱफ से यह स्टोरी प्लांट की गई कि संसद में जसवंत सिंह का कमरा जा रहा है, इसलिए परेशान हो रहे हैं. अरुण शौरी ने राजनाथ सिंह और अरुण जेटली पर पार्टी को एक कटी पतंग बनाने का आरोप लगाया, तो अक्सर टेलीविजन पर नज़र आने वाले एक भाजपा नेता ने कहा कि राज्यसभा से उनकी विदाई के दिन क़रीब हैं, इसलिए वह पार्टी के ख़िला़फ बोल रहे हैं.
इस तरह की दलील देकर भाजपा के नेता स्वयं कार्यकर्ताओं के बीच पार्टी की छवि ख़राब करते हैं. भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं की यह आदत बन चुकी है कि जब भी पार्टी के अंदर कोई गड़बड़ी होती है तो वह अपने प्रभाव के ज़रिए मीडिया का इस्तेमाल करते हैं. सूत्रों के हवाले से खबरें प्लांट करवाते हैं. ग़ौर करने वाली बात यह है कि जिन नेताओं ने पार्टी के मंच पर आवाज़ उठाई, उन्हें सज़ा मिली. जो लोग अख़बार और ख़बरिया चैनलों में ख़बर प्लांट करते रहे, उनके ख़िला़फ कोई कार्रवाई नहीं हुई.
भाजपा ने अपनी करतूतों से भारतीय राजनीति को 30 साल पीछे धकेल दिया है. राजनीति शास्त्र की किताबों में 80 के दशक तक की भारतीय राजनीति को एक पार्टी के प्रभुत्व (वन पार्टी डोमिनेन्स) से व्याख्यायित किया जाता था. यह सच है कि देश की जनता दो-दलीय व्यवस्था चाहती है. पिछले कुछ दिनों से भाजपा में जो हो रहा है, उससे तो यह तय लगता है कि भविष्य में भारतीय राजनीति में दो-दलीय व्यवस्था होगी तो ज़रूर. बस, दूसरी पार्टी भाजपा नहीं, कोई और होगी. तीसरे और चौथे मोर्चे को कमर कस कर मैदान में उतरना होगा, ताकि देश में प्रजातंत्र का विकास हो सके.इन मोर्चे की समस्या यह है कि ये मोर्चे सिर्फ चुनाव के दौरान बनते हैं और नतीजे आने के बाद फिर से बिखर जाते हैं. इनमें सामंजस्य बिठाना बहुत ही कठिन है, इसलिए ही ये दल एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने में असफल सबित हुए हैं. भारत में प्रजातांत्रिक विकास के लिये यह ज़रूरी है कि भाजपा बची रहे. भाजपा को अगर बचना है तो इसके लिए भाजपा को कई पुरानी चीज़ों को छोड़ना होगा. नए विचार, नए तरीक़े को अपनाना होगा. भाजपा को बचने के लिए ऐसी विचारधारा को अपनाना होगा जो सभी धर्मों, समुदाय और जातियों को समाहित कर सके. वर्तमान नेताओं को स्वार्थ और आपसी स्पर्धा से ऊपर उठकर एकता बहाल करने और एक-दूसरे के विचारों को सम्मान देने की ज़रूरत है. संगठन में बदलाव लाना होगा, ताकि कार्यकर्ताओं को एकजुट रखा जा सके, उनके मनोबल को ऊंचा रखा जा सके. संगठन में प्रजातांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देने की ज़रूरत है. भाजपा को ख़ुद को बचाने के लिए एयकंडीशन में बैठकर मीडिया के ज़रिए राजनीति करने वालों से बचना होगा. युवाओं, किसानों, मजदूरों और जनता के बीच काम करने वाले नेताओं को पार्टी में नेतृत्व देने की ज़रूरत है. छात्र राजनीति से युवा कार्यकर्ताओं को भाजपा में जगह देनी होगी. इक्कीसवीं सदी के भारत के लिए भाजपा का एजेंडा क्या है इस पर देश की जनता को साफ-साफ बताना होगा. भाजपा को उस सांप्रदायिक एजेंडे को छोड़ना होगा, जिसकी वज़ह से दूसरी पार्टियां समर्थन देने से मना करती हैं. अगर भाजपा ख़ुद को बदलने के लिए तैयार है, तो आने वाले समय में भाजपा फिर से खड़ी हो सकती है, अन्यथा धीरे-धीरे वे राज्य भी हाथ से निकल जाएंगे जहां इस व़क्त भाजपा की सरकार है. कमज़ोर भाजपा की वजह से देश का प्रजातांत्रिक विकास रुकेगा और देश में फिर से वन पार्टी डोमिनेन्स का दौर चल पड़ेगा जो देश में प्रजातंत्र के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है.