एक पत्रिका ने बड़े ही मार्मिक ढंग से यह छापा था कि संजय दत्त की गिरफ्तारी के बाद सुनील दत्त साहब पर क्या बीती. इस रिपोर्ट के मुताबिक, पहले सुनील दत्त को इस बात पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि संजय धमाके की साजिश का हिस्सा भी हो सकता है. जब सुनील दत्त संजय से मिले, तो संजय ने क़बूला कि उसने अनीस इब्राहिम से राइफल और कारतूस लिए थे. सुनील दत्त ने पूछा, बेटे, तुमने ऐसा क्यों किया? इस पर संजय दत्त का जवाब था, मेरे शरीर में एक मुसलमान का खून बह रहा है. शहर में जो कुछ हुआ, उसे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता. यह सुनकर सुनील दत्त पर मानो पहाड़ टूट पड़ा और वह चुपचाप पुलिस मुख्यालय से बाहर चले आए.
संजय दत्त को सजा क्या मिली, मानो देश में एक माहौल-सा बनाने की कोशिश की गई कि उसकी सजा माफ़ हो जानी चाहिए. इंटरनेट और मीडिया में एक अभियान-सा छिड़ गया. लोग राष्ट्रपति और राज्यपाल को चिट्ठियां लिखने लग गए, नेता प्रतिनिधि मंडल बनाकर राज्यपाल से मिलने लग गए. फिल्म इंडस्ट्री ने एकता का मानो ऐसा पाठ पढ़ लिया कि वह सही-गलत का होश गंवा बैठी. वैसे होश गंवाने वालों में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज के साथ-साथ कई मंत्री और नेता भी शामिल हो गए. ये सारे लोग एक से एक अजीबोग़रीब तर्क देने लग गए. किसी ने कहा कि बीस साल से संजय दत्त झेल रहे हैं, यह कोई कम सजा है? इन लोगों से पूछा जाना चाहिए कि देश में कौन से मामले में आख़िरी ़फैसला इससे कम समय में आता है? देश के सारे अपराधी इससे ज़्यादा समय तक न्याय के लिए इंतजार करते हैं. संजय दत्त तो जेल में भी नहीं है, जबकि कई लोग तो बिना किसी कुसूर के इतने दिनों तक जेल में फंसे रह जाते हैं. किसी ने कहा कि अब वह शादीशुदा है, उसके बच्चे हैं, यह सजा तो संजय दत्त से ज़्यादा उसके परिवार को मिल रही है. सवाल यह है कि आख़िर किस अपराधी का परिवार नहीं होता. क्या जस्टिस काटजू जैसे लोग ऐसे हर अपराधी के लिए इसी तरह व्याकुल हो जाते हैं, जिसका परिवार होता है, बच्चे होते हैं. किसी ने यह भी दलील दी कि जिस वक्त उसने यह अपराध किया, उस वक्त वह नादान था. गौरतलब है कि उस समय संजय की उम्र 33 साल थी. क्या यह उम्र नादानी की है? किसी ने यहां तक कह दिया कि वह 20 साल से समाजसेवा कर रहे हैं. यह तो हद ही हो गई! फिल्म बनाकर करोड़ों कमाना अगर समाजसेवा है, तो फिर देश का हर नागरिक इस तरह की समाजसेवा करेगा. फिर किसी को जेल भी नहीं होगी, चाहे वह अंडरवर्ल्ड के ख़तरनाक आतंकियों से दोस्ती करे और अपने घर में एके -56 और हथगोले रखे. आख़िर संजय दत्त में ऐसी क्या बात है कि उन्हें सजा मिलते ही लोगों का कलेजा फटने लगा और वे भावनाओं से ओतप्रोत होकर अनर्गल तर्क देने लग गए? क्या ये लोग पब्लिसिटी पाने के लिए संजय दत्त की तरफ़दारी कर रहे हैं या फिर देश में फिल्म स्टारों की चमक-दमक ही कुछ ऐसी है कि लोग अपनी बुद्धि और विवेक खो बैठते हैं या फिर मामला कुछ और है? संजय दत्त ने क्या किया, मुंबई धमाकों में उनका क्या किरदार था और क्या व्यवहार था, यह बाद में बताएंगे, लेकिन इससे पहले बुद्धि और विवेक खो देने वाली मानसिकता को समझते हैं.
क्या यह नादानी है या अपराध? क्या कोई नादानी में अंडरवर्ल्ड के खूंखार लोगों से दोस्ती करता है, घर में हथियार रखता है? बाद में यह दलील दी गई कि संजय दत्त ने खुद की सुरक्षा के लिए उक्त राइफल और हथगोले लिए थे. क्या इस देश में पुलिस एक सांसद और उसके परिवार को सुरक्षा नहीं दे सकती?
ब्लैक फ्राइडे, यानी 12 मार्च, 1993 को मुंबई शहर में एक के बाद एक, 13 बम धमाके हुए. ऐसे सीरियल धमाके हिंदुस्तान में पहली बार हुए थे. इन धमाकों के पीछे अंडरवर्ल्ड सरगना दाऊद इब्राहिम था, जिसने पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के साथ मिलकर इस कायरतापूर्ण हमले को अंजाम दिया था. हमलावरों को पाकिस्तान में बम बनाने की ट्रेनिंग दी गई थी. इस हमले का मकसद भारत में दहशत फैलाना था, लेकिन कुछ लोग इसे बाबरी मस्जिद ध्वंस के बदले के रूप में भी देखते हैं. इन धमाकों में 257 लोगों की जानें गईं और एक हज़ार से ज़्यादा लोग घायल हुए थे. पुलिस ने कुछ ही दिनों में सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया. उनमें कई ऐसे भी थे, जो बेगुनाह थे, ग़रीब और मुसलमान थे, लेकिन तब किसी ने कोई आवाज़ नहीं उठाई. कई बेगुनाहों को टार्चर किया गया. बाद में अदालत ने उन्हें बरी कर दिया. लेकिन उन पर लगा आतंकवादी होने का दाग मिटाने की कोशिश किसी ने नहीं की. मुंबई में रेस्टोरेंट चलाने वाले राजकुमार खुराना नामक एक शख्स को पुलिस स़िर्फ इसलिए पकड़ कर ले गई, क्योंकि वह एक अभियुक्त का दोस्त था. उस पर आतंकवादी होने का दाग लग गया, तो उसने अपने हाथों से अपने छोटे-छोटे बच्चों और पत्नी की हत्या करके खुद को गोली मार ली. तब किसी ने न्याय की गुहार क्यों नहीं लगाई थी? वहीं अगर शाहरुख खान को किसी अमेरिकी एयरपोर्ट पर स़िर्फ रोका जाता है, तो देश में मानो मातम छा जाता है और मीडिया हाय-तौबा मचाने लगता है. आनन-फ़ानन में मंत्रियों के बयान भी आने लगते हैं. नेताओं, फिल्म स्टारों, क्रिकेटरों, उद्योगपतियों, अमीरों एवं रसूख वालों की इज्जत इज्जत है और ग़रीब-बेसहारा लोगों की इज्जत का कोई मोल नहीं है. यही वह मानसिकता है, जिसका परिणाम हम इस रूप में देख रहे हैं कि संजय दत्त को माफ़ करने की आवाज़ देश के कुछ बड़े लोग भी उठा रहे हैं. संजय दत्त फिल्म स्टार है, अमीर है, एक मंत्री का बेटा और एक सांसद का भाई है. उसके रिश्ते देश के राजनीतिक दलों एवं नेताओं से हैं. जिन लोगों ने यह मान लिया है कि अमीरजादों से जुर्म नहीं, नादानी होती है, दरअसल, वही संजय दत्त के लिए माफ़ी की गुहार लगा रहे हैं.
लेकिन सवाल यह है कि क्या संजय दत्त माफ़ी के लायक हैं? उनका जुर्म क्या है और उन्होंने क्या किया? इन सवालों के जवाब के बाद ही यह पता चल सकता है कि संजय दत्त के साथ न्याय हुआ है या अन्याय. जिन लोगों ने मुंबई धमाके किए थे, उनकी तैयारी पुख्ता थी. वे आरडीएक्स जैसे विस्फोटक तो पाकिस्तान से लाए ही थे, साथ में उन्होंने यह भी तैयारी कर रखी थी कि बम धमाकों के बाद अगर दंगा भड़कता है, तो हथियारों की कमी न होने पाए. इसलिए भारी मात्रा में एसाउल्ट राइफलें, पिस्टलें एवं हथगोले भी पाकिस्तान से मंगवाए गए. यह काम भी दाऊद इब्राहिम के लोगों ने पूरा किया. उक्त सारे हथियार समुद्री रास्ते से दो ठिकानों पर लाए गए. इसके लिए पुलिस वालों को रिश्वत भी दी गई. हालांकि उन पुलिस वालों को सज़ा मिल चुकी है.
ये हथियार लेकर अंडरवर्ल्ड डान अबू सलेम मुंबई पहुंचा था. ये हथियार बड़े-बड़े बक्सों में बंद थे, इसलिए उसे कोई एकांत जगह चाहिए थी, जहां पर वह इन बक्सों से हथियार निकाल सके. इसके लिए हनीफ कड़ावाला और समीर हिंगोरा के दफ्तर चुने गए. इन दोनों को दाऊद इब्राहिम के भाई अनीस ने फोन किया कि इस काम के लिए वे अपने दफ्तर परिसर को इस्तेमाल करने दें, लेकिन उन्होंने मना कर दिया और संजय दत्त का नाम सुझा दिया. अनीस ने संजय दत्त से बात की. यह सब कुछ जानते हुए भी कि अनीस एवं अबू सलेम कौन हैं, वे साथ में ख़तरनाक हथियार ला रहे हैं और उनके घर का इस्तेमाल करना चाहते हैं. अगर ऐसे में संजय दत्त ने अपने घर का इस्तेमाल होने दिया, तो यह आतंकवादियों के साथ मिलीभगत का पहला गुनाह बनता है. इसके बाद उन्हें इस बात का डर था कि संजय दत्त के घर पर तैनात गार्ड्स को कोई शक न हो जाए, क्योंकि मुंबई पुलिस द्वारा सुनील दत्त को मिले गार्ड्स ऐसी जगह पर खड़े होकर पहरा देते थे, जहां से गैराज सीधा दिखाई देता था. संजय दत्त ने अबू सलेम से गाड़ी दूसरे गेट से लाने को कहा और इसके बाद हथियार निकाले गए. संजय दत्त ने उनमें से कुछ चीजें अपने पास रख लीं, जिनमें एक एके-56 राइफल और कुछ हथगोले शामिल थे. संजय दत्त ने अबू सलेम को कपड़ों का बैग भी उपलब्ध कराया, जिसमें वह ये हथियार छुपाकर ले गया.
क्या यह नादानी है या अपराध? क्या कोई नादानी में अंडरवर्ल्ड के खूंखार लोगों से दोस्ती करता है, घर में हथियार रखता है? बाद में यह दलील दी गई कि संजय दत्त ने खुद की सुरक्षा के लिए उक्त राइफल और हथगोले लिए थे. क्या इस देश में पुलिस एक सांसद और उसके परिवार को सुरक्षा नहीं दे सकती? जब अबू सलेम हथियार लेकर चला गया, तब संजय दत्त ने अनीस को फोन किया और बताया कि हथगोले घर पर रखना ख़तरनाक हो सकता है. इसके बाद मंसूर अहमद को संजय दत्त के घर भेजा गया. उसने हथगोले संजय दत्त से वापस ले लिए. बस इसी जुर्म के लिए मंसूर अहमद को 9 साल की सजा मिली. संजय दत्त के गुनाह और मंसूर अहमद के गुनाह को देखें, तो यह कहा जा सकता है कि मंसूर अहमद को ज़्यादा सजा मिली है, लेकिन उसके लिए कौन आवाज़ उठा रहा है? अबू सलेम ने इन हथियारों को जैबुन्निशा के घर में रखा. जैबुन्निशा की बेटी के मुताबिक़, उसकी मां को हथियारों के बारे में पता ही नहीं था. शायद पता भी होता, तो अबू सलेम जैसे ख़तरनाक शख्स को न कहने की हिम्मत कौन जुटा पाता? वह भी एक अकेली महिला! जैबुन्निशा को टाडा के तहत 5 साल की सजा मिली है, लेकिन इस विधवा के लिए आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं है. काटजू साहब ने संजय दत्त को बचाने का बीड़ा उठाया, तो मीडिया में जैबुन्निशा की कहानी आ गई. उन्हें अब शायद इस गलती का एहसास हुआ, तब जाकर उन्होंने संजय दत्त के साथ उसका भी नाम जोड़ा है.
पुलिस को संजय दत्त के कारनामों के बारे में हिंगोरा और कड़ावाला ने जब बताया था, उस वक्त संजय मारीशस में शूटिंग कर रहे थे. संजय दत्त को जब यह पता चला, तो उन्होंने अपने दोस्त यूसुफ नूलवाला को हथियारों को नष्ट करने को कहा. उसने हथियारों को मरीन लाइंस में नष्ट करने की कोशिश की. सब कुछ नष्ट हो गया, लेकिन एके-56 की नली और पिस्टल नष्ट नहीं हो पाई. नूलवाला ने पिस्टल संजय दत्त को वापस कर दी और एके-56 की नली अपने घर में छिपा दी. यही पुलिस के हाथ लग गई और नूलवाला गिरफ्तार हो गया. एक दोस्त की मदद करने के जुर्म में उसे 5 साल की सजा मिली.
हैरानी की बात यह है कि मुंबई धमाकों और इन हथियारों से जुड़े जितने भी लोग थे, सब पर टाडा लगा. जिस कस्टम अधिकारी ने इन हथियारों को आने दिया, उसे भी टाडा के तहत सजा मिली. जिसने संजय दत्त के घर से लाए गए तीन में से दो हथियारों को अपने घर में रखने दिया, उसे भी टाडा के तहत सजा मिली. मंजूर अहमद हो, समीर हिंगोरा हो या फिर बाबा मूसा चौहान, हर किसी को टाडा के तहत सजा मिली. अब इस बात को कौन बता सकता है, इसका तर्क दे सकता है कि एक ही तरह के जुर्म के लिए सभी लोगों को तो टाडा के तहत अपराधी बनाकर आतंकवादी करार दिया जाता है, लेकिन संजय दत्त पर टाडा की जगह सिर्फ़ आर्म्स एक्ट लागू होता है. अदालत का फैसला आख़िरी होता है, इसलिए संजय दत्त और उनकी सजा माफ़ कराने वालों को भगवान का धन्यवाद अदा करना चाहिए कि अदालत ने पहले ही संजय दत्त के साथ रियायत बरती है. इसी पत्रिका ने यह भी बताया कि इस फैसले के बाद संजय दत्त के वकील ने कहा, जब मुझसे कोई यह पूछेगा कि सिर्फ़ मेरे ही क्लाइंट को क्यों छोड़ दिया गया, तो मेरे पास कोई जवाब नहीं होगा.
सचमुच इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. संजय दत्त यह बात अच्छी तरह से जानते हैं. शायद इसलिए उन्होंने यह कहा है कि वह सजा माफ़ी के लिए कोई अपील नहीं करेंगे, बल्कि जेल जाएंगे और सजा काटकर आएंगे. संजय दत्त उसी तरह टेरेरिस्ट नहीं हैं, जैसे टाडा के तहत मुंबई धमाकों के लिए गिरफ्तार किए गए सैकड़ों लोग टेरेरिस्ट नहीं थे. उनमें कुछ रोजगार ढूंढ रहे नौजवान थे, तो कुछ इस गिरोह के लिए काम करने वालों के दोस्त थे और कुछ लोगों की उनसे स़िर्फ जान-पहचान ही थी. गिरफ्तार हुए लोगों में से कई की उस हमले में कोई भागीदारी नहीं थी, लेकिन उन्हें पुलिस का कहर झेलना पड़ा और यह भी सही है कि जिन्हें सजा मिल गई है, उनमें भी ऐसे कई लोग हैं, जो साजिश के शिकार हुए हैं. यूं कहें कि वे फंस गए. जो मास्टरमाइंड हैं, वे विदेशों में ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी जी रहे हैं और जो प्यादे थे, वे जेल में चक्की पीस रहे हैं. इसे पूर्णत: न्याय तो नहीं कहा जा सकता है, लेकिन अदालत का फैसला है, इसलिए यह हमारा दायित्व है कि हम इस फैसले का आदर करें.
जो लोग संजय दत्त के लिए माफ़ी की मांग कर रहे हैं, वे दरअसल, समाज में खाई पैदा कर रहे हैं. कहने का मतलब यह कि अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ना अच्छा काम है, लेकिन इसके लिए आंखों से पट्टी उतारने की ज़रूरत है. इसमें समानता होनी चाहिए. जो दर्द संजय दत्त के लिए उमड़ रहा है, वह मुंबई धमाकों में पिसे हुए परिवारों के लिए भी उमड़ना चाहिए. ग़रीब, बेसहारा, बेरोजगार लोग अगर किसी साजिश का शिकार हो जाते हैं, तो उनके लिए भी आवाज़ उठाने की ज़रूरत है. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो देश के बहुसंख्यक ग़रीब तबकों का विश्वास सरकार, तंत्र और न्याय व्यवस्था से पूरी तरह से उठ जाएगा. उन्हें लगेगा कि पैसे वालों के लिए देश का क़ानून अलग है और ग़रीबों के लिए अलग. अगर संजय दत्त की सजा माफ़ होती है, तो मुसलमानों को यही लगेगा कि देश में आतंकवाद से जुड़े क़ानून स़िर्फ उन्हीं पर लागू होते हैं. देश चलाने वालों की यह ज़िम्मेदारी है कि इस मुद्दे पर अदालत के आदेश पर अक्षरश: अमल हो, ताकि देश के ग़रीबों एवं अल्पसंख्यकों का भरोसा बना रहे.