जिन्ना-इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंस, विवादों के घेरे में है. यह किताब वरिष्ठ भाजपा नेता जसवंत सिंह ने लिखी है. जसवंत सिंह ने किताब के शीर्षक से ही साफ कर दिया है कि उनकी किताब भारत की आज़ादी और विभाजन का विश्लेषण मोहम्मद अली जिन्ना के इर्द-गिर्द घूमती है. जसवंत सिंह की किताब का सार है कि जिन्ना साहब एक महान व्यक्ति थे और उन्हें बेवजह हिंदुस्तान में खलनायक बना दिया गया. मैंने यह किताब नहीं पढ़ी है और न ही पढ़ने की इच्छा रखता हूं. जसवंत सिंह कोई स्वतंत्र इतिहासकार नहीं हैं. भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं. वैसे भी भारत के विभाजन पर सभी दस्तावेज़ और शोध- जिसे पढ़कर जसवंत सिंह ने इस किताब को लिखा है-हर किसी के लिए उपलब्ध है. इन्हें पढ़कर हर व्यक्ति अपनी समझ ख़ुद पैदा कर सकता है. ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम और उस समय के सारे नेताओं का विश्लेषण हर संगठन, हर विचारधारा और अलग-अलग नेताओं ने अपने हिसाब से किया है. राजनेताओं के विश्लेषण में एक डर और भी है. ऐतिहासिक घटनाओं का विश्लेषण या तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना राजनीतिक फायदे और किसी योजना के तहत करते हैं. इसलिए राजनेताओं द्वारा लिखी गई किताबों पर अक्सर बवाल मचता है. जसवंत सिंह की किताब भी उन्हीं किताबों में से एक है.
जसवंत सिंह की किताब का पूरा ज़ोर यह स्थापित करने पर है कि जिन्ना सेकुलर हैं और विभाजन के लिए नेहरू और पटेल ज़िम्मेदार हैं, जिन्ना सच्चे भारतीय हैं और उन्हें ग़लत तरीक़े से समझा गया है, मुसलमानों ने विभाजन की बड़ी क़ीमत चुकाई है, विभाजन के लिए कांग्रेस की केंद्रीकृत नीतियां ज़िम्मेदार हैं, जिन्ना के संघीकृत विकल्प (फेडरल डिज़ाइन) को गांधी ने सही बताया था, बंटवारे का फैसला अगर नेहरू के बजाय महात्मा गांधी, राजगोपालाचारी और अबुल कलाम आज़ाद को लेना होता तो देश तोड़ने की नौबत ही नहीं आती. ऐसा लगता है कि जसवंत सिंह ने किताब लिखने व़क्त ही तय कर लिया था कि वह विवादों को जन्म देने वाली सारी बातें इस किताब में प्रस्तुत करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. इतना सब कुछ लिखने के बाद जसवंत सिंह कहते हैं कि यह किताब पार्टी का दस्तावेज़ नहीं है, उनकी निजी राय है. अब यह बात तो समझ के परे है कि कोई शख्स एक राष्ट्रीय पार्टी का वरिष्ठतम नेता हो, देश का वित्त मंत्री ही नहीं विदेश मंत्री भी रहा हो, उसकी राय एक आम भारतीय की या फिर निजी कैसे हो सकती है ?
जसवंत सिंह इस बात को पहले से ही जानते हैं कि जिन्ना को सेकुलर व सच्चा भारतीय बताना, और पटेल व नेहरू को विभाजन के लिए ज़िम्मेदार साबित करने का नतीजा क्या होगा? उन्हें यह भी पता है कि ऐसा लिखने से पार्टी उनके साथ नहीं होगी, कार्यकर्ता भी उन्हें छोड़ देंगे और वह संघ के निशाने पर आ जाएंगे. हमें नहीं भूलना चाहिए आडवाणी पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे और कई लोग मानते हैं आडवाणी के बाद जसवंत सिंह ही ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रधानमंत्री बन सकते हैं. तो अब सवाल उठता है कि आडवाणी और जसवंत सिंह जैसे पढ़े- लिखे और ज़िम्मेदार लोग क्या जानबूझ कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने को आतुर हैं या फिर यह किसी बड़ी योजना का हिस्सा है?
जिन्ना साहब एक महान नेता थे. इसकी शुरुआत 2005 में लालकृष्ण आडवाणी ने की थी, जब वह अपनी जन्मभूमि पाकिस्तान गए. उन्होंने क़ायद-ए-आज़म की समाधि के विजिटर्स बुक में यह लिखा कि जिन्ना साहब हिंदू-मुस्लिम एकता के अग्रदूत थे. पाकिस्तान में उन्होंने क़ायद-ए-आज़म को धर्मनिरपेक्ष बता दिया तो भारत में संघ परिवार में हंगामा खड़ा हो गया. पार्टी के लोग ख़िला़फ हो गए. संघ इतना नाराज़ हो गया कि उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा. जिन्ना विवाद में जब आडवाणी जैसे नेता को संघ ने सबक़ सिखा दिया तो जसवंत सिंह की क्या बिसात? जसवंत सिंह भी जानते होंगे कि जिन्ना को सच्चा भारतीय बताने पर उनका साथ देने वाला नहीं कोई होगा. फिर इस किताब को लिखने का मतलब क्या है?
दरअसल, भाजपा के नेताओं को ग़लतफहमी है कि जिन्ना की प्रशंसा करते ही मुसलमान वोटर उन्हें धर्मनिरपेक्ष और उदार मान लेंगे. आडवाणी जानते थे कि आने वाले चुनाव में वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे और देश में, ख़ासकर मुसलमानों के बीच उनकी छवि कट्टर हिंदू की है. इसलिए उन्होंने जिन्ना पर जुआ खेला. यह अलग बात है कि उन्हें लेने के देने पड़ गए. अब सवाल है कि क्या जसवंत सिंह ख़ुद को अगली लोकसभा चुनाव में आडवाणी की जगह देखना चाहते हैं? क्या उन्हें लगता है कि ऐसे विचार सामने रख कर वह एनडीए के सहयोगी पार्टियों के बीच भाजपा के सबसे मान्य नेता बन कर उभरेंगे? क्या उन्होंने भाजपा के अंदर चल रहे सत्ता संग्राम में अपनी एक चाल चली है? ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब जसवंत सिंह के किताब से मिल सकते हैं. भाजपा के जिन्ना प्रेम एक दूसरा मक़सद भी है. जिन्ना को सेकुलर और सच्चा भारतीय बता कर वह आसानी से नेहरू और कांग्रेस पर हमला बोल सकते हैं. अगर जिन्ना महान थे, तो विभाजन के लिए लिए नेहरू और पटेल जैसे लोग दोषी थे. भाजपा के नेताओं को लगता है कि जिन्ना के ज़रिए नेहरू को तो नीचा दिखाया जा सकता है. भाजपा की समस्या है कि इस योजना में भाजपा के रास्ते संघ दीवार की तरह खड़ी है.
जसवंत की किताब से आरएसएस फिर आगबबूला है. इसमें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए कि जिन्ना को अच्छा बताने वाला कोई भी शख्स आरएसएस के निशाने पर तो आएगा ही. इसकी वजह स़िर्फ इतनी है कि संघ और भाजपा अपने हिसाब से स्वतंत्रता संग्राम को देखते हैं. आरएसएस के लोग मोहम्मद अली जिन्ना का नाम सुनते ही इसलिए बेक़ाबू हो जाते हैं क्योंकि उन्होंने संघ के सपने को ख़त्म करने का काम किया. जिन्ना की वजह से संघ का अखंड भारत का सपना, सपना ही रह गया. दूसरी बात यह भी कि संघ को हमेशा खटकता है कि ये लोग तो हिंदूराष्ट्र नहीं बना सके , लेकिन जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग देश बनाने में कामयाब रहे. आरएसएस की नाराज़गी की वजह एक और भी है. चुनाव में हार के बाद संघ भाजपा को दुरुस्त करने में लगा है, लेकिन यह किताब उनकी मान्यताओं और विचारधारा के बिल्कुल उलट है. कांग्रेस पार्टी की तऱफ से भी जिन्ना का जब विश्लेषण होता है तो वह भी किसी सच्चाई पर टिका नहीं होता है. वाजिब है, जिन्ना की लड़ाई ही कांग्रेस के साथ थी, नेहरू और गांधी के विचारों से थी. इसलिए कांग्रेस पार्टी इतिहास के उस नज़रिए को सच मानती है जिसमें जिन्ना को भारत के बंटवारे के लिए ज़िम्मेदार बताया जाता है. जो नेहरू पर सवाल खड़े करता है, उसे कांग्रेस इतिहास के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ और मज़ाक बताती है. कांग्रेस यह मानती है कि जिन्ना के चलते ही भारत और पाकिस्तान में दंगे हुए और हज़ारों लोगों की जान गई. जसवंत सिंह की किताब पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया भी उनकी अपनी राजनीति और नज़रिए से प्रेरित है. कांग्रेस के मुताबिक पाकिस्तान और जिन्ना की धर्मनिरपेक्षता भाजपा, आडवाणी और जसवंत सिंह को इसलिए ज़्यादा भाती है क्योंकि यह उनकी कट्टर विचारधारा के ज़्यादा क़रीब है. ये लोग सांप्रदायिक हैं, इसलिए भाजपा के नेताओं को जिन्ना ज़्यादा पसंद हैं.
समझने वाली बात यह है कि देश के विभाजन के लिए कोई एक नेता ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. नेहरू और पटेल को विभाजन के लिए ज़िम्मेदार बताना इसलिए ग़लत है कि कैबिनेट मिशन के सुझावों को कांग्रेस कार्यसमिति ने माना था. 1940 से 1947 तक हर बड़े नेता से कुछ ग़लती हुई. शायद कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था, इसलिए किसी एक को ज़िम्मेदार बताना ग़लत है. आज़ादी के इतने दिनों बाद इस मामले को उठाने का मक़सद राजनीतिक छोड़ और कुछ नहीं हो सकता है.