महंगाई की मार से त्रस्त देश की जनता स्वयं को अनाथ महसूस कर रही है. उसके लिए सड़कों पर उतर कर आंदोलन करने वाला कोई नहीं है. आईपीएल के घोटाले में मंत्री, नेता, फिल्म स्टार, बड़े-बड़े बिजनेसमैन एवं अधिकारी और अंडरवर्ल्ड शामिल हैं. वे मिलजुल कर क्रिकेट के पीछे करोड़ों का खेल खेल रहे हैं, लेकिन इसके ख़िला़फ कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं है. देश में दलालों की भूमिका अब कैबिनेट मंत्री तय करने तक पहुंच गई है, लेकिन सब चुप हैं. एक समय था, जब स़िर्फ 64 करोड़ रुपये के बोफोर्स घोटाले के खुलासे ने देश को हिलाकर रख दिया था और सरकार को जाना पड़ा था. आज 60 हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला देश के सामने है, लेकिन हैरानी की बात यह है कि विपक्ष चुप है.
यह देश का दुर्भाग्य है कि हमारे यहां विश्वसनीय विपक्ष नहीं है. कहने को तो विपक्ष है, लेकिन उसे अपने कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों का एहसास ही नहीं है. महंगाई हो या बेरोज़गारी या फिर जनता से जुड़ी अन्य विभिन्न समस्याएं, विपक्ष चुप है. आईपीएल का घोटाला, जिसमें नेताओं, मंत्रियों, औद्योगिक घरानों एवं बीसीसीआई के अधिकारियों पर मैच फिक्सिंग से लेकर अंडरवर्ल्ड की मिलीभगत तक का खुलासा हुआ, लेकिन विपक्ष स़िर्फ खानापूर्ति के लिए संसद में शोर मचाकर फिर सुषुप्तावस्था में चला गया. भारतीय राजनीति का एक और काला अध्याय जनता के सामने आया, जिसमें मंत्रिमंडल तय करने में दलालों की भूमिका का खुलासा हुआ, लेकिन विपक्ष ने संसद में बहस करने के सिवा कुछ नहीं किया. भारतीय जनता पार्टी, वाममोर्चा, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल एवं जनता दल युनाइटेड आदि पार्टियां कहने को सरकार के बाहर हैं, सरकार का विरोध करने का दावा करती हैं, लेकिन क्या इनकी राजनीति का जनता से कोई सरोकार है? मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल का हाल ऐसा है कि जनता को यह पता ही नहीं चल पाता है कि वे सरकार के विरोध में हैं या फिर समर्थन में.
महंगाई के मुद्दे पर सदन से वाकआउट करके उन्होंने यह तो साफ कर ही दिया कि अगर यूपीए गठबंधन में कोई उतार-चढ़ाव हुआ, अगर ममता बनर्जी सरकार से बाहर गईं तो सरकार इन पार्टियों को अपना दोस्त मान सकती है. ऐसा लगता है कि इनकी राजनीति का मुख्य उद्देश्य केंद्र में किसी तरह से कुछ मंत्री पद पाने का है. इसलिए इन्हें विपक्ष का दर्जा नहीं दिया जा सकता. जनता से जुड़ी समस्याओं पर सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने का काम वाममोर्चा कर रहा है, लेकिन उसके पास संख्या कम है और वह स़िर्फ पश्चिम बंगाल एवं केरल जैसे दो राज्यों तक ही सीमित है. संख्या के हिसाब से और वैसे भी भारतीय जनता पार्टी देश की मुख्य विपक्षी पार्टी है, लेकिन वह अपनी ज़िम्मेदारियों को नहीं निभा रही है. यही सबसे बड़ी चिंता है.
सरकार के कामकाज पर नज़र रखना, उस पर अंकुश लगाना, जनता का पक्षधर बनकर सरकार की नीतियों और योजनाओं पर सवाल उठाना, ग़रीबों-ग्रामीणों एवं शोषित वर्गों के लिए आवाज़ उठाना और उनकी मांगों के समर्थन में आंदोलन करना जैसे कुछ दायित्व हैं, जिन पर एक विश्वसनीय विपक्ष अमल करता है. लोकतंत्र में जनता किसी पार्टी को इसलिए विपक्ष में बैठाती है, ताकि वह स़िर्फ जनता के लिए काम करे. उसके दु:खों और तकलीफों को लेकर सरकार के ख़िला़फ आवाज़ बुलंद करे. जब भी सरकार, ग़ैर सरकारी संस्थान अथवा किसी व्यक्ति द्वारा गबन, घोटाला, दलाली या सौदेबाज़ी आदि के मामले सामने आएं तो विपक्ष न्याय के लिए लड़े. विपक्ष को स़िर्फ संघर्ष ही नहीं करना होता है, बल्कि यह भी साबित करना होता है कि वह वर्तमान सरकार से ज़्यादा बेहतर काम कर सकता है, ताकि जनता उस पर भरोसा कर सके और उसे अगले चुनाव के बाद सरकार चलाने का मौक़ा दे. यही वजह है कि लोकतंत्र में विपक्ष की ज़िम्मेदारियां सत्तापक्ष से कहीं ज़्यादा होती हैं.
भारतीय जनता पार्टी और अध्यक्ष नितिन गडकरी को इस ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं है. अध्यक्ष बनने के बाद शिबू सोरेन की ग़लतियों की वजह से गडकरी के सामने पहली राजनीतिक चुनौती आई. इस पर पूरे देश की नज़र थी कि गडकरी अब क्या करेंगे. भाजपा ने सबसे पहले समर्थन वापस लेने की घोषणा की. इस फैसले का सभी ने स्वागत किया, लेकिन बाद में गडकरी ने सरकार बनाने का फैसला ले लिया. गडकरी के इस फैसले को राजनाथ सिंह का समर्थन मिला. गडकरी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नुमाइंदे हैं तो क्या यह मान लिया जाए कि इस फैसले में संघ की सहमति थी. विपक्ष की राजनीति के देश के सबसे अनुभवी नेता आडवाणी जी के रहते ऐसी रणनीति क्यों बनी. आडवाणी जी चुप क्यों रहे.
गडकरी ने इस दौरान एक और ऐसा काम किया, जिससे भाजपा के समर्थक भी हैरान रह गए. उन्होंने मुलायम सिंह और लालू यादव के लिए असभ्य भाषा का प्रयोग किया. बाद में माफी भी मांग ली. यह बात और है कि हमारे नेताओं का स्तर इतना गिर गया है कि इस तरह की भाषा सुनने को तो मिलती है, लेकिन ज़िले और विधायक स्तर के नेताओं के मुंह से. देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष को इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते पहले कभी न देखा गया और न ही कभी सुना गया. भारतीय जनता पार्टी पिछले चुनाव में हार के बाद बिखरने की कगार पर थी, तब संघ ने गडकरी को अध्यक्ष बनाकर पार्टी संगठन को दुरुस्त करने के लिए भेजा था, लेकिन पार्टी संगठन मज़बूत होता नज़र नहीं आ रहा. यह ज़रूर है कि पार्टी ऐसी रणनीति अपनाने पर उतारू है, जिससे स़िर्फ पार्टी की विचारधारा और कार्यकर्ताओं की किरकिरी हो रही है.
जब भारतीय जनता पार्टी को झारखंड में सरकार बनाने का मौक़ा मिला तो पार्टी की अंदरूनी कलह जगज़ाहिर हो गई. पार्टी में कितना अनुशासन है, इसका सबको पता चल गया. गडकरी के नेतृत्व में भाजपा के छोटे-छोटे नेताओं को कितना भरोसा है, यह भी साफ हो गया. यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने में इतना समय लग गया. यह साफ हो गया कि झारखंड में पार्टी पूरी तरह से बिखरी हुई है. ऐसा एक भी नेता नहीं है, जो विधायकों या पार्टी को सर्वमान्य हो. यह भी सबके सामने आ गया कि केंद्रीय नेताओं की ऐसी साख नहीं है कि उनके फैसले को झारखंड के विधायक मान लें. यही वजह है कि झारखंड में हर छोटे-बड़े नेता को लग रहा था कि वह मुख्यमंत्री बन सकता है. दिल्ली से राजनाथ सिंह और अनंत कुमार को भेजा गया, लेकिन उन्हें भी खाली हाथ वापस लौटना पड़ा. भाजपा की परेशानी यहीं ख़त्म नहीं हुई. सरकार बनने से पहले ही भाजपा की तऱफ से बयान आने लगा कि अगली सरकार अपना टर्म पूरा करेगी, यानी यह सरकार पूरे साढ़े चार साल तक चलेगी. जब दिल्ली से आए नेता भावी मुख्यमंत्री की तलाश में लगे थे, उसी व़क्त झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन धमकी दे रहे थे. दोनों पार्टियों के बीच 28-28 महीने सरकार चलाने की सहमति बनी है. अब यह भाजपा को तय करना है कि वह स्थाई सरकार बनाना चाहती है या नहीं.
बात कहां से शुरू हुई और कहां जाकर ख़त्म हुई, यह शायद फैसला लेने वाले भाजपा नेताओं को पता नहीं चल सका. कांग्रेस को समर्थन के सवाल पर शिबू सोरेन को सज़ा देने निकली भाजपा इस तथाकथित झारखंड ऑपरेशन में पूरी तरह से फंस गई. अगर भारतीय जनता पार्टी पर्दे के पीछे की साठगांठ और डील से ऊपर उठकर सीधे जनता के पास जाती और झारखंड में चुनाव कराने की रणनीति बनाती तो उसकी साख निश्चित रूप से बढ़ जाती. आईपीएल और नीरा राडिया की दलाली को लेकर जनता से समर्थन लेने का अच्छा मौक़ा था, जिसे गडकरी ने गंवा दिया. इतने बड़े घोटाले को लेकर जनता के बीच उतरने से भारतीय जनता पार्टी को झारखंड में बहुमत मिल सकता था. साथ ही इसका फायदा बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनावों में भी मिलता, लेकिन नितिन गडकरी ने ठीक इसका उल्टा किया. अब तो हर तऱफ यही संदेश गया कि भाजपा आईपीएल और नीरा राडिया जैसे घोटाले के ख़िला़फ आवाज़ उठाने और जनता को साथ लेने में सक्षम नहीं है. यह पार्टी बस किसी तरह जोड़-तोड़ करके झारखंड में सरकार बनाना चाहती है और इसे स़िर्फ सत्ता का लालच है.
भाजपा में कुछ भी नहीं बदला है. संगठन के अंदर जब वर्चस्व की लड़ाई होती है तो अंदर की ख़बरें भी बाहर आ जाती हैं. माना यह जा रहा है कि प्राकृतिक संसाधनों और उद्योगों से भरपूर इस मलाईदार राज्य में भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं का अपना निजी स्वार्थ है, इसलिए सरकार बनाने के लिए यह घमासान हो रहा है. यही वजह है कि झारखंड में सरकार बनाने को बेचैन भाजपा के कई नेता मुख्यमंत्री पद की रेस में कूद पड़े, जिसकी वजह से राजनीति का यह खेल लंबा खिंचता चला गया. भाजपा की आपसी खींचतान में जीत चाहे जिस गुट की हो, लेकिन पार्टी के लिए यह पूरी कवायद नुक़सानदेह है. सच तो यही है कि मुख्यमंत्री कोई भी हो, उसे अपनी ही पार्टी का पूरा समर्थन नहीं है. ऐसी सरकार कितने दबाव में काम करेगी और जनता के कितने काम आएगी, यह अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं है.
समझने वाली बात यह है कि इसका छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सरकार पर बुरा असर होगा, जहां रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान बेहतर काम कर रहे हैं. यह कैसी रणनीति है, जिससे सरकार बनाने के चक्कर में पार्टी संगठन में विद्रोह की स्थिति पैदा हो जाए, मुख्यमंत्री बनने की होड़ में संगठन
अलग-अलग गुटों में बंट जाए, संगठन के सारे दोष सामने आ जाएं और जनता का पार्टी से विश्वास उठ जाए. और तो और, गडकरी के नेतृत्व में भाजपा की यह रणनीति ऐसी है, जिससे दूसरे राज्यों में अच्छा काम करने वाले मुख्यमंत्रियों की छवि पर छींटे पड़ने लगेंगे. हैरानी की बात यह है कि झारखंड में पार्टी के पास बहुमत से आधी सीटें हैं. झारखंड की कुल 82 सीटों में स़िर्फ 18 भाजपा के पास हैं, फिर भी उसने इतना बड़ा जोखिम झारखंड मुक्ति मोर्चा के समर्थन के आधार पर लिया है. वही पार्टी, जिसके नेता ने कांग्रेस का साथ दिया और जिसके नेता सरकार बनने से पहले ही उसे गिराने की धमकी दे रहे हैं. अब ऐसी रणनीति बनाने वाले पर देश की जनता कैसे विश्वास करे. जनता यह कैसे मान ले कि भाजपा के पास कांग्रेस से बेहतर सरकार देने का विवेक और शक्ति है.
लोकतंत्र नेताओं की रणनीति, राजनीतिक दलों की साठगांठ और डील पर नहीं चलता. जनता का विश्वास लोकतंत्र का सबसे अहम पहलू है. अटल बिहारी वाजपेयी को लगा कि इंडिया शाइनिंग को लोगों का आशीर्वाद मिलेगा, लेकिन वह भी हार गए. इंदिरा गांधी इमर्जेंसी लगाने के बावजूद चुनाव में गईं, वह भी हार गईं, लेकिन लोकतंत्र की जीत हुई. देश को बचाए रखने के लिए यह ज़रूरी है कि जनता का लोकतंत्र में विश्वास बना रहे. आज यह भरोसा टूट रहा है. इसे बनाए रखना सरकार की अपेक्षा विपक्ष की ज़्यादा ज़िम्मेदारी है. अगर राजनीतिक दल सरकार बनाने और गिराने को शतरंज का खेल समझने लगेंगे तो लोकतंत्र ख़तरे में आ जाएगा. आज देश के सामने यही ख़तरा है.