मनमोहन सिंह को बचाने के लिए सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी. यह जरा हास्यास्पद है, लेकिन फिर भी जानना ज़रूरी है कि जब सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कड़ा रुख अपनाया, तो मनमोहन सिंह सरकार ने कहा कि फाइलें गायब हो गईं. अब पता नहीं कि फाइलें गायब हुई थीं या फिर गायब कर दी गई थीं. सुप्रीम कोर्ट के रवैये की वजह से कोयला मंत्री ने फाइलें ढूंढने के लिए टीम बनाई और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंपने का निर्देश दिया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के जजों को यह बात समझ में आ गई थी कि फाइलें गायब नहीं हुईं, बल्कि गायब कर दी गई हैं. इसलिए तीनों जजों ने एकमत होकर सरकार को चेतावनी दी है कि आप इस तरह दस्तावेजों पर नहीं बैठ सकते. सीबीआई की जांच के लिए जो दस्तावेज ज़रूरी हैं, उन्हें उपलब्ध कराना होगा.
अब तो साफ़ हो गया है कि कोयला घोटाले में सरकार की तरफ़ से गलतियां हुईं, क्योंकि अब केंद्र सरकार ने ही सुप्रीम कोर्ट में माना है कि कोल ब्लॉक आवंटन में गलतियां हुई हैं और कुछ न कुछ गलतियां ज़रूर हुई हैं. अटॉनी जनरल के इस बयान के बाद कांग्रेस पार्टी में हड़कंप मच गया और इतना दबाव बढ़ गया कि उन्हें अगले दिन अपने ही बयान से पलटने को मजबूर होना पड़ा. सोचने वाली बात यह है कि कोयला घोटाले के मामले में सरकार का पक्ष रखने वाले अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती अब तक यही कहते आए हैं कि कोयला ब्लॉक आवंटन में कुछ भी गलत नहीं हुआ है. अब सवाल यह है कि क्या गलतियां हुईं, किसने गलतियां कीं, इस घोटाले के लिए कौन ज़िम्मेदार है और क्या इसके लिए किसी को सजा मिलेगी या नहीं?
यह सवाल इसलिए पूछना ज़रूरी है, क्योंकि जब कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री का नाम आया, तब कांग्रेस पार्टी और सरकार इमोशनल हो गई. पार्टी ने कहा कि मनमोहन सिंह जैसे ईमानदार व्यक्ति की निष्ठा पर सवाल उठाना एक मजाक है. वहीं मनमोहन सिंह ने एक आदर्शवादी स्टैंड लिया और कहा कि कोयला घोटाले में शक की सुई भी उन पर उठी या जरा भी शक हुआ, तो वह सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे. मनमोहन सिंह का नाम कोयला घोटाले से इसलिए जुड़ा, क्योंकि 2006 से 2009 तक प्रधानमंत्री के पास ही कोयला मंत्रालय था और यही वह कालखंड है, जब सबसे ज़्यादा कोयला खदानों का आवंटन किया गया था. एक तरफ़ ऐसे बयान दिए गए, लेकिन दूसरी तरफ़ उन्हें बचाने के लिए सरकार ने सारी सीमाएं लांघ दीं. सरकार ने कोयला घोटाले को सिरे से नकार दिया. कांग्रेस के कई बड़े वकील-टर्न-नेताओं ने तो सीएजी और सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों पर ही सवाल खड़ा कर दिया. ऐसे बड़बोले नेताओं का तर्क यह था कि सरकार के नीतिगत ़फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती. आज स्थिति यह है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी गलती मान ली है, लेकिन किसी ने सार्वजनिक जीवन से न तो संन्यास लिया और न ही किसी ने माफी मांगी.
कोयला घोटाले की कहानी की शुरुआत 29 अप्रैल, 2011 से हुई, जब चौथी दुनिया ने सबसे पहले इस घोटाले का पर्दाफाश किया था. हमने यह दावा किया था कि यूपीए सरकार ने देश और संसद को गुमराह करके 26 लाख करोड़ रुपये के कोयले का बंदरबांट कर दिया. उस वक्त न तो सरकार ने इस पर ध्यान दिया और न ही विपक्षी पार्टियों ने इस मुद्दे को उठाया, जबकि भारतीय जनता पार्टी और वाममोर्चा के कई नेताओं को इस घोटाले के बारे में पूरी जानकारी थी. राजनीतिक दलों ने इस मसले को नहीं उठाया, लेकिन सीएजी की नज़रों से यह घोटाला नहीं बच पाया. सीएजी ने कोयला आवंटन के सारे मामलों की जांच की और अपनी रिपोर्ट दी, तो बवंडर मच गया. सीएजी 2जी घोटाले में अपने अनुमान को लेकर सवालों के घेरे में आई थी. कोयला घोटाले में सीएजी ने कोयले की बंदरबांट के मूल्यांकन में काफी कंजूसी बरती और कहा कि यह घोटाला 1.86 लाख करोड़ रुपये का है. चौथी दुनिया का आज भी दावा है और हमारे पास यह सुबूत है कि यह घोटाला 26 लाख करोड़ रुपये का है.
प्रधानमंत्री कार्यालय आरोपों के जवाब तलाशने में जुट गया. घोटाले की जांच की जगह दलीलें और बयान देकर मामले को निपटाने की कोशिश की गई. ठीक उसी तरह, जिस तरह 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले के खुलासे के बाद प्रधानमंत्री ने की थी, संसद के अंदर और संसद के बाहर इसी तरह से ए राजा के बचाव में बयान दिए थे. जब मामला कोर्ट पहुंचा, तो सरकार के चेहरे से नकाब उतर गया. प्रधानमंत्री ने अभी तक देश को यह नहीं बताया कि तीन सालों तक उन्होंने ए राजा का क्यों बचाव किया. वैसे राजनीति में नैतिकता के लिए कोई जगह बची ही नहीं है, वर्ना राजनीतिक मर्यादा जिंदा होती, तो 2-जी घोटाले में कई लोग स्वयं ही इस्तीफा दे देते और किसी को बयानबाजी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. एक बार फिर देश ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां हर दस्तावेज, हर रिपोर्ट और हर ज़िम्मेदार एजेंसी देश के सबसे बड़े घोटाले की ओर इशारा करते हैं.
अब तो यह कहने की भी ज़रूरत नहीं है कि कोयला घोटाले में शक की सुई सीधे प्रधानमंत्री पर जा टिकती है, क्योंकि कोयला खदानों की बंदरबांट सबसे ज़्यादा उस वक्त हुई, जब कोयला मंत्री स्वयं प्रधानमंत्री थे. सबसे पहले सरकार की तरफ़ से यह दलील दी गई कि कोयला खदानों के आवंटन का मकसद पैसा उगाहना नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की विकास दर तेज करना था. अब कांग्रेस के नेताओं को बताना चाहिए कि दो सालों से वे देश की जनता को क्यों गुमराह करते रहे और अब जबकि सरकार ने गलती मान ली है, तो क्या कोयला घोटाले के लिए कोई ज़िम्मेदारी लेगा या नहीं? दूसरा यह है कि कोयला खदानों को देश में मूलभूत सुविधाएं जुटाने और विकास के लिए आवंटित किया गया था. आवंटन स़िर्फ ऐसी कंपनियों को किया जाना था, जिनका रिश्ता स्टील, बिजली और सीमेंट से है. अब जबकि यह पता चल गया है कि कोयला आवंटन ऐसी-ऐसी कंपनियों को हुआ, जो इसके लिए योग्य नहीं थीं. तो क्या आवंटन करने वाले मनमोहन सिंह पर कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए?
सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस के नेताओं ने लोगों को यह कहकर भी गुमराह किया था कि कोयला खदानों का आवंटन मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों की सहमति से किया गया था. मामले को राजनीतिक जामा पहनाने के लिए मीडिया में भाजपा शासित मुख्यमंत्रियों के पत्रों को भी लीक किया गया. सुप्रीम कोर्ट में अब यह साफ़ हो चुका है कि कोयला खदानों के आवंटन पर पूरी तरह से केंद्र का नियंत्रण है और आख़िरी ़फैसला केंद्र के कोयला मंत्री ही लेते हैं. कोयला घोटाले में जिन आवंटनों पर सवाल उठ रहे हैं, उन्हें आवंटित मनमोहन सिंह ने अपने दस्तखत से किया है. मनमोहन सिंह को बचाने के लिए सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी. यह जरा हास्यास्पद है, लेकिन फिर भी जानना ज़रूरी है कि जब सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कड़ा रुख अपनाया, तो मनमोहन सिंह सरकार ने कहा कि फाइलें गायब हो गईं. अब पता नहीं कि फाइलें गायब हुई थीं या फिर गायब कर दी गई थीं. सुप्रीम कोर्ट के रवैये की वजह से कोयला मंत्री ने फाइलें ढूंढने के लिए टीम बनाई और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंपने का निर्देश दिया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के जजों को यह बात समझ में आ गई थी कि फाइलें गायब नहीं हुईं, बल्कि गायब कर दी गई हैं. इसलिए तीनों जजों ने एकमत होकर सरकार को चेतावनी दी है कि आप इस तरह दस्तावेजों पर नहीं बैठ सकते. सीबीआई की जांच के लिए जो दस्तावेज ज़रूरी हैं, उन्हें उपलब्ध कराना होगा. उन दस्तावेजों को न देने का कोई तर्क नहीं है. अगर ऐसा नहीं कर सकते, तो सीबीआई के पास मुकदमा दर्ज कराना पड़ेगा. कोर्ट ने सरकार के वकील अटॉर्नी जनरल वाहनवती को यह भी चेतावनी दी है कि इसे ऐसे नहीं छोड़ा जा सकता है. हैरानी की बात यह है कि अदालत की फटकार के बाद गायब हुईं फाइलें खुद-ब-खुद सामने आ गईं.
वैसे प्रधानमंत्री को बचाने की कोशिश पहले भी हुई है. 26 अप्रैल, 2013 को सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दिया. इसमें सीबीआई ने बताया कि कोयला घोटाले की जांच की स्टेटस रिपोर्ट सरकारी नुमाइंदों के सामने 8 मार्च, 2013 को प्रस्तुत की गई थी. ये महानुभाव थे क़ानून मंत्री अश्विनी कुमार, प्रधानमंत्री कार्यालय के एक ज्वॉइंट सेक्रेटरी और कोयला मंत्रालय के ज्वॉइंट सेक्रेटरी. हैरानी की बात यह है कि इससे पहले सरकार और सीबीआई की तरफ़ से कहा गया था कि स्टेटस रिपोर्ट किसी को दिखाई नहीं गई है. देश के अटॉर्नी जनरल वाहनवती ने कोर्ट के सामने यह झूठ बोला था कि स्टेटस रिपोर्ट किसी ने नहीं देखी है, लेकिन सरकार के झूठ का पर्दाफाश हो गया. अगर कोई यह कहे कि प्रधानमंत्री को इसके बारे में जानकारी नहीं थी, तो इसे एक मजाक ही समझा जाएगा. अगर किसी प्लानिंग के तहत उस अधिकारी को इस मीटिंग में नहीं भेजा गया, तो उसके ख़िलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई? हैरानी की बात तो यह है कि सीबीआई ने स्टेटस रिपोर्ट को प्रधानमंत्री के चहेते क़ानून मंत्री, कोयला मंत्रालय एवं पीएमओ के अधिकारियों को स़िर्फ दिखाया ही नहीं, बल्कि रिपोर्ट को बदल भी दिया. 29 अप्रैल, 2013 को सुप्रीम कोर्ट के सामने सीबीआई ने इस बात को माना कि उसकी ओरिजिनल रिपोर्ट में 20 फ़ीसद बदलाव किए गए हैं. मतलब साफ़ है कि सरकार कोयला घोटाले में कोर्ट में झूठ बोलती आई है.
यह मामला स़िर्फ कोयला खदानों के ग़ैरक़ानूनी आवंटन का नहीं है, बल्कि यह संसद और देश की जनता से झूठ बोलने का भी मामला है. सरकार ने संसद में यह वादा किया था कि माइंस और मिनरल (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1957 में संशोधन किया जाएगा और तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. 2006 में यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया और यह माना गया कि जब तक दोनों सदन इसे मंजूरी नहीं दे देते और यह बिल पास नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी, लेकिन यह विधेयक चार साल तक लोकसभा में जानबूझ कर लंबित रखा गया और 2010 में ही यह क़ानून में तब्दील हो पाया. इस दरम्यान संसद में किए गए वादे से सरकार मुकर गई और कोयले के ब्लॉक बांटने का गोरखधंधा चलता रहा. इसके साथ-साथ यह मामला सरकारी नियमों के उल्लंघन का भी है. नियमों के मुताबिक, जिन खदानों में कोयले का खनन सतह के नीचे होना है, उनमें आवंटन के 36 माह बाद (और यदि वन क्षेत्र में ऐसी खदान है, तो यह अवधि छह महीने बढ़ा दी जाती है) खनन प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए. यदि खदान ओपन कास्ट किस्म की है, तो यह अवधि 48 माह की होती है (जिसमें अगर वन क्षेत्र हो, तो पहले की तरह ही छह महीने की छूट मिलती है). अगर इस अवधि में काम शुरू नहीं होता है, तो खदान मालिक का लाइसेंस रद्द कर दिया जाता है. हैरानी की बात यह है कि ज़्यादातर खदानों से कभी कोयला निकाला ही नहीं गया. तो सवाल यह है कि नियमों के उल्लंघन पर इन कंपनियों के ख़िलाफ मनमोहन सिंह ने एक्शन क्यों नहीं लिया? दोषी कंपनियों के लाइसेंस क्यों रद्द नहीं किए गए? मनमोहन सिंह की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कोई अनोखी बात नहीं कही, बल्कि सच कबूल किया है. देखना यह है कि अब मनमोहन सिंह अपने वादे से मुकरते हैं या फिर उसे कबूल करते हुए सार्वजनिक जीवन से संन्यास लेते हैं, क्योंकि अब तो शक की सुई ही नहीं, बल्कि सारे सुबूत मनमोहन सिंह के ख़िलाफ खड़े हो गए हैं.