विधानसभा लोकतंत्र का मंदिर है, वहां जाने का अधिकार सिर्फ योग्य, कर्मठ, ईमानदार एवं जनहितैषी शख्स को है, जो नुमाइंदगी के फर्ज़ को ब़खूबी निभा सके. दाग़दार दामन वालों और सौदेबाज़ बहुरूपियों को विधानसभा भेजना लोकतंत्र और देश की गरिमा की सरासर अनदेखी है. बिहार की जनता को इस बार पूरी सावधानी से अपने मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए, वरना अगले पांच सालों तक हाथ मलने के अलावा उसके पास और कोई चारा शेष नहीं रहेगा.
बिहार के चुनावों में अपराधियों का बोलबाला नज़र आ रहा है. राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं. जिन लोगों ने पांच सालों तक पार्टी के लिए खून-पसीना बहाया, उन्हें दरकिनार करके बिहार में राजनीतिक दलों ने बाहुबलियों को टिकट दिया है. राजनीतिक दलों की दलील बस यह है कि उनके जीतने की संभावनाएं ज़्यादा हैं. इन राजनीतिक दलों से यह सवाल करना ज़रूरी है कि उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि पार्टी के साधारण कार्यकर्ता चुनाव हार जाएंगे और जिनके पास पैसा और ताक़त है, वे चुनाव जीत जाएंगे. समझने वाली बात यह है कि जब बाहुबली चुनाव मैदान में होंगे तो वे गांधी के सिद्धातों पर या फिर पार्टी की विचारधारा का प्रचार करके तो वोट नहीं मांगेगे. नीतीश कुमार कहते हैं कि उन्हें अगला मौक़ा मिलना चाहिए, क्योंकि उन्होंने पचास हज़ार अपराधियों को स्पीडी ट्रायल कराकर जेल भेजा. यह बात भी सही है कि अपराधी तो जेल चले गए, लेकिन अपराधियों के सरगना चुनाव लड़ रहे हैं. हर राजनीतिक दल ऐसे लोगों को टिकट देने पर आमादा है, जिनकी पृष्ठभूमि आपराधिक है.
एक अनुमान के मुताबिक़, बिहार में 44 फीसदी उम्मीदवार ऐसे हैं, जिनके खिला़फ आपराधिक मामले दर्ज हैं. अपराधियों को टिकट देने में किसी भी पार्टी ने कोई कंजूसी नहीं की है. यह आंकड़ा बड़ी-बड़ी पार्टियों द्वारा अब तक घोषित 183 उम्मीदवारों द्वारा पिछले चुनाव में जमा किए गए हल़फनामों पर आधारित है. मतलब यह कि जब इन उम्मीदवारों ने पिछली बार चुनाव लड़ा था तो चुनाव आयोग को इन्होंने यह जानकारी दी थी. अपराधियों को टिकट देने में सबसे आगे भारतीय जनता पार्टी है, जिसके 62 फीसदी उम्मीदवारों के खिला़फ आपराधिक मामले चल रहे हैं. दूसरे नंबर पर लोक जनशक्ति पार्टी है, जिसने 53 फीसदी ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दिया है. नीतीश कुमार के जनतादल यूनाइटेड ने 33 फीसदी, लालू यादव के राष्ट्रीय जनतादल ने 31 फीसदी और कांग्रेस ने 24 फीसदी ऐसे उम्मीदवारों के टिकट दिया है, जिनके खिला़फ विभिन्न अदालतों में आपराधिक मामले चल रहे हैं. इन उम्मीदवारों में कुछ के खिला़फ हत्या का मामला है, कुछ के खिला़फ हत्या के प्रयास का. कुछ के खिला़फ चोरी एवं डकैती तो कुछ के खिला़फ अपहरण और फिरौती के मामले चल रहे हैं. इनमें ज़्यादातर लोग ऐसे हैं, जिनके खिला़फ एक से ज़्यादा मामले हैं. मतलब यह कि इन उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि ही आपराधिक है. बिहार में ऐसे ही नेताओं को बाहुबली कहते हैं. हैरानी की बात यह है कि इन पार्टियों के नेता अपराधियों को चुनाव में उम्मीदवार भी बना रहे हैं, साथ ही यह भी कह रहे हैं कि राजनीति का अपराधीकरण खत्म हो.
बिहार देश का पहला राज्य है, जहां राजनीति का अपराधीकरण हुआ. देश में बूथ कैप्चरिंग की पहली घटना 1967 में बेगूसराय में हुई थी, उस व़क्त यह मुंगेर ज़िले का अंग था. पुलिस की ओर से गोलियां भी चली थीं और बूथ कैप्चर करने वाला एक शख्स मर भी गया था. यह वह ज़माना था, जब चुनाव में ताक़तवर लोग बैलेट बॉक्स लूट ले जाते थे और अधिकारियों से बैलेट छीनकर बोगस वोटिंग करते थे. कमज़ोर वर्ग के लोगों को पोलिंग बूथ तक जाने नहीं दिया जाता था. नेताओं को यह बात समझ में आ गई कि बिना विकास किए, बिना अपने दायित्वों को निभाए लाठी की ताक़त से चुनाव जीता जा सकता है. हर नेता अपने साथ बूथ लूटने वाले गुंडे-बदमाश जोड़ता चला गया. कई चुनावों के बाद इन गुंडों को लगने लगा कि अगर बूथ लूटने से ही चुनाव जीता जा सकता है तो वे किसी और के लिए क्यों, अपने लिए ही बूथ लूटें तो वे भी विधायक और सांसद बन सकते हैं. पहले एक बना, फिर दूसरा. धीरे-धीरे बिहार के अपराधियों ने चुनाव लड़ना अपना लक्ष्य बना लिया. आज हालत यह है कि बिहार की हर सीट पर कोई न कोई बाहुबली चुनाव लड़ने लगा है. राजनीतिक दलों ने भी इनके आगे हथियार डाल दिए हैं. इसलिए आपराधिक छवि वाले नेताओं को टिकट मिल जाता है. इससे राज्य का सबसे ज़्यादा नुक़सान हुआ है. विकास की गति रुक गई है और राजनीति में पढ़े-लिखे लोगों का आना बंद हो गया है. लोग राजनीति को अपराध के एक रूप की तरह देखते हैं. अपराधियों का राजनीति में प्रवेश अब संस्थागत तरीक़े से हो रहा है. लोग पहले अपने इलाक़े में गुंडागर्दी करते हैं, अपराध की दुनिया में अपनी खतरनाक़ छवि बनाते हैं और फिर किसी राजनीतिक दल के सदस्य बन जाते हैं. अपराधी इस तरह बड़ी आसानी से चुनावी राजनीति में प्रवेश करने में कामयाब हो जाते हैं. दूसरी तऱफ राजनीतिक दल हैं, जिनका यह कर्तव्य है कि वे ऐसे लोगों को बढ़ावा न दें, लेकिन अ़फसोस कि वे उन्हें अपना प्रत्याशी बना रहे हैं. अब चुनाव आयोग की कड़ी निगरानी होती है. आज बिहार में छह चरणों में चुनाव इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि एक साथ पूरे राज्य में सुरक्षाबलों को लगाना मुश्किल है. अब चुनाव भी पहले की तरह नहीं होते, लेकिन समस्या यह है कि जिस तरह के लोग पहले नेताओं के लिए बूथ लूटा करते थे, वे आज खुद उम्मीदवार बन बैठे हैं. बिहार में राजनीति के अपराधीकरण के लिए राजनीतिक दल ज़िम्मेदार हैं.
राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि राजनीति और चुनावों के अपराधीकरण को रोकने का पहला दायित्व उनका ही है. सबसे पहले उन्हें अपराधियों और आपराधिक छवि वाले लोगों को टिकट न देने का संकल्प लेना होगा. अगर राजनीतिक दल ऐसा नहीं करते हैं तो यह मान लेना चाहिए कि वे अपने कर्तव्यों, जनता और देश के साथ धोखा कर रहे हैं. हालांकि यह मुद्दा ऐसा है कि विभिन्न राजनीतिक दल एक-दूसरे पर अपराधियों को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं, जबकि सच्चाई तो यह है कि बिहार में कोई भी राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं है, सबके दामन में दाग़ है. जो लोग राज्य में क़ानून व्यवस्था की बात करते हैं, उनसे यह सवाल करना ज़रूरी है कि उनकी पार्टी ने अपराधियों को क्यों टिकट दिया? क्या उन्हें लगता है कि जिन अपरधियों की जगह जेल में है, उन्हें विधानसभा में बैठा देने से बिहार में क़ानून व्यवस्था की हालत ठीक हो जाएगी? राजनीतिक दलों को यह भी समझना चाहिए कि ज़माना बदल रहा है. युवा वर्ग राजनीति में ईमानदार, सा़फ-सुथरी छवि वाले और पढ़े-लिखे लोगों को देखना चाहता है, लेकिन राजनीतिक दल ठीक इसका उल्टा कर रहे हैं. राजनीतिक दलों से ज़्यादा उम्मीद करना भी बेकार है, क्योंकि उनके लिए चुनाव जीतना ही एकमात्र मक़सद है. भले ही इसके लिए पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं को नाराज़ क्यों न करना पड़े, लोगों की आकांक्षाओं-आशाओं की बलि क्यों न चढ़ानी पड़े. यानी राजनीतिक दल किसी भी क़ीमत पर चुनाव जीतना चाहते हैं.
ऐसे माहौल में जब लोगों को खराब-अयोग्य उम्मीदवारों के बीच चुनाव करना पड़ता है तो वे वोट देने में रुचि नहीं लेते. उन्हें लगता है कि उनके वोट का हक़दार कोई भी उम्मीदवार नहीं है. ऐसा सोचना ग़लत है, क्योंकि इससे आपराधिक छवि वाले नेताओं को फायदा होता है. वे जीत जाते हैं. अगर राजनीतिक दल अपराधियों को विधायक बनाने पर आमादा हैं तो जनता को भी फैसला करना चाहिए कि चाहे जो भी हो, वह अपना वोट उसी उम्मीदवार को देगी, जो अपराधी या आपराधिक छवि वाला न हो.
सिर्फ वोट नहीं, मुस्लिमों की समस्याओं पर भी ध्यान दीजिए
हेरॉल्ड लॉसवेल ने राजनीति की सटीक परिभाषा दी. उन्होंने कहा कि किसने क्या, कब और कैसे पाया ही राजनीति का सही अर्थ है. इसका मतलब यह है कि राजनीति असल में सरकारी संसाधनों के बंटवारे की लड़ाई है. संसाधनों की हिस्सेदारी में किसे कब और कितना हिस्सा मिलता है, उसी से यह पता चलता है कि कौन सत्ता के नज़दीक है और कौन सबसे दूर. जिन वर्गों को सरकार से फायदा होता है, जिन्हें ध्यान में रखकर सरकार योजनाएं बनाती है, वही राजनीति की मुख्यधारा में होते हैं, वही सत्ता के क़रीब होते हैं. जिन लोगों को सरकारी नीतियों एवं योजनाओं का फायदा नहीं होता है, वे राजनीति के हाशिए पर होते हैं. वे स़िर्फ चुनाव में वोट डालने वाले एक मतदाता हैं, जिनका सरकार पर न तो कोई ज़ोर होता है और न ही सरकार उनके बारे में सोचने के लिए बाध्य होती है. बिहार के मुसलमान राजनीति के हाशिए पर हैं. ऐसा महसूस कराया जाता है कि मुसलमान इन राजनीतिक दलों के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं, वे वादा भी करते हैं कि सरकार बनते ही सबसे पहला काम मुसलमानों की समस्याओं को निपटाने का होगा. कोई मुसलमान मुख्यमंत्री बनाने का भरोसा देता है तो कोई नाइंसा़फी के खिला़फ आवाज़ बुलंद करता है. आज़ादी हासिल हुए 63 साल हो गए. हर रंग की सरकारें आईं और चली गईं. मुसलमानों की हालत साल दर साल खराब होती गई. पहले सत्ता में हिस्सेदारी से गए, फिर विकास की धारा से अलग हुए और अब ज़मीन से बेदखल हो रहे हैं. बिहार में चुनाव है. हर दल खुद को मसीहा साबित करने में लगा है. उसे मुसलमानों का वोट चाहिए, लेकिन मुसलमानों की समस्याओं को खत्म करने की बात करने वाला कोई नहीं है.
भारत में उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज़्यादा मुसलमान बिहार में रहते हैं. अगर सरकारी और ग़ैर सरकारी आंकड़ों को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि बिहारी मुसलमानों की हालत समाज के सबसे निचले वर्ग से भी बदतर है. वह इसलिए भी, क्योंकि दलित, महादलित और पिछड़ी जातियों को सरकारी मदद मिलती है, आरक्षण मिलता है, लाल कार्ड बांटे जाते हैं, लेकिन मुसलमानों को उनकी समस्याओं से निपटने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है. ग़ौर करने वाली बात यह है कि आज़ादी के व़क्त मुसलमानों की हालत का़फी बेहतर थी, लेकिन सरकारी रवैये की वजह से दूसरे समुदायों के मुक़ाबले मुसलमान हर क्षेत्र में पिछड़ते चले गए. बिहार में 16.5 फीसदी आबादी मुसलमानों की है. बिहार के 87 फीसदी मुसलमान गांवों में रहते हैं, स़िर्फ 13 फीसदी शहर में. बिहार में मुसलमान सबसे पिछड़ा समुदाय है. गांवों की हालत खराब है. यहां ग़रीबी है, अशिक्षा है, बेरोज़गारी है. खराब हालत के बावजूद गांवों में रहने वालों में जो सबसे पिछड़ा तबका है, वे भी मुसलमान ही हैं. इनमें ज़्यादातर मुसलमान भूमिहीन या छोटे किसान हैं. बिहार में 28.4 फीसदी मुसलमान भूमिहीन किसान हैं. स़िर्फ 35 फीसदी लोगों के पास ज़मीन है, जो आम आबादी के अनुपात में का़फी कम है. बिहार में क़रीब 58 फीसदी ग्रामीणों के पास ज़मीन है. खेती करने वाले मुसलमानों संख्या और भी कम है. जिनके पास ज़मीन है, वह भी इतनी कम है कि उनका गुज़र-बसर नहीं हो पाता. हैरानी की बात यह है कि स़िर्फ तीन फीसदी मुस्लिम किसानों के पास ट्रैक्टर है और स़िर्फ दस फीसदी के पास पंपिंग सेट. हिंदुओं के मुक़ाबले मुस्लिम किसान ग़रीब हैं. यही वजह है कि 75 फीसदी ग्रामीण मुसलमान खेतों में मज़दूरी करके अपना परिवार चलाते हैं. पिछले पांच सालों में स़िर्फ .32 एकड़ प्रति परिवार की दर से 2.4 फीसदी मुसलमानों ने ज़मीन खरीदी, लेकिन .49 एकड़ प्रति परिवार की दर से 2.5 फीसदी मुसलमानों ने अपनी ज़मीन बेची है. इसका मतलब यह है कि ज़मीन के मालिकाना हक़ से मुसलमान धीरे-धीरे बाहर होते जा रहे हैं. बिहार के गांवों में रहने वाले मुसलमानों में 2.1 फीसदी कारीगर हैं, जिनकी वार्षिक आय महज सोलह हज़ार रुपये है. मतलब यह कि मुसलमान कारीगरों के परिवार ग़रीबी रेखा से नीचे रहते हैं.
बिहार में शिक्षा की स्थिति भी ठीक नहीं है. साक्षरता दर 47 फीसदी है. पटना, रोहतास और मुंगेर इसमें सबसे आगे हैं. इन तीनों ज़िलों में साठ फीसदी से ज़्यादा साक्षरता दर है. जबकि किशनगंज, अररिया और कटिहार सबसे नीचे हैं. यहां पर स़िर्फ तीस से पैंतीस फीसदी के आसपास ही लोग शिक्षित हैं. किशनगंज और कटिहार में मुसलमानों की संख्या ज़्यादा है. इन्हें साल भर में स़िर्फ 230 दिन ही काम मिल पाता है, बाकी के दिनों में ये बेरोज़गार रहते हैं. एक दिन की कमाई 28-32 रुपये है. मतलब यह कि इनकी मासिक आय महज़ 600 रुपये है. इस कमाई से न तो घर चलाया जा सकता है और न ही इज़्ज़त बचाई जा सकती है. इसका मतलब यह है कि बिहार के मुसलमान ग़रीबी और अभावों का दंश झेल रहे हैं. एक अनुमान के मुताबिक़, उनकी सालाना आय 4640 रुपये है और शहर में रहने वालों की सालाना आय 6320 रुपये है. गांव में रहने वाले मुसलमानों में से 49.5 फीसदी और शहर में रहने वाले मुसलमानों में से 44.5 फीसदी लोग ग़रीबी रेखा के नीचे रहते हैं. यानी बिहार में मुसलमानों की क़रीब आधी आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है. इनमें से ज़्यादातर लोग क़र्ज़ में डूबे हुए हैं. घर-मकान के मामले में बिहारी मुसलमानों में शहर के लोग गांवों से बेहतर हैं. बिहार के गांवों में सभी धर्म के लोगों को मिलाकर 10.1 फीसदी लोगों के पास पक्का मकान है, लेकिन शहरी मुसलमानों में से 25 फीसदी के पास पक्का मकान है. इसका मतलब यह है कि गांव के मुसलमान धीरे-धीरे ग़रीब होते चले गए. उनके पास पूर्वजों के बनाए पक्के मकान तो हैं, लेकिन कमाने का ज़रिया नहीं है.
अगर हम शहरों की बात करें तो दूसरे समुदाय से मुसलमानों की आर्थिक स्थिति गांव के मुक़ाबले और भी ज़्यादा खराब है. गांवों में मुसलमानों के पास ज़्यादा पक्के मकान हैं, लेकिन शहरों में दूसरे लोगों के मुक़ाबले मुसलमानों के पास पक्के मकान नहीं हैं. शहर में कुल मिलाकर 57.3 फीसदी आबादी पक्के मकानों में रहती है, लेकिन 51.2 फीसदी मुसलमानों के पास पक्के मकान हैं. बिहार के शहरों में 75 फीसदी घरों में बिजली है, लेकिन मुसलमानों में 47.2 फीसदी लोगों के घरों में बिजली है. राजनीति में भी मुसलमान हाशिए पर चले गए हैं. बिहार विधानसभा में कुल 243 विधायकों में से 16 मुसलमान हैं. पिछले चुनाव में कुल 2135 उम्मीदवार थे, जिनमें 235 मुसलमान थे. बड़ी पार्टियों में स़िर्फ कांग्रेस और लोक जनशक्ति पार्टी ने अनुपात से ज़्यादा मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया. कांग्रेस ने 23.5 फीसदी और लोक जनशक्ति पार्टी ने 20.8 फीसदी मुसलमान उम्मीदवार खड़े किए. लालू यादव के राष्ट्रीय जनतादल ने 14.9 फीसदी और समाजवादी पार्टी ने 14.3 फीसदी मुसलमान उम्मीदवार उतारे थे. जहां तक वामदलों की बात है तो उन्होंने मुसलमानों को टिकट देने में कंजूसी की. भारतीय जनता पार्टी को पूरे बिहार में एक ही मुस्लिम उम्मीदवार मिल सका. पिछली बार चुनाव में तीन बड़ी पार्टियों के पास चार-चार मुस्लिम विधायक थे. कांग्रेस स़िर्फ 9 सीटें जीत पाई थी, उनमें से 4 उम्मीदवार मुसलमान थे. राष्ट्रीय जनतादल और जनतादल यूनाइटेड के पास भी चार मुस्लिम विधायक थे. नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी और सीपीआई एमएल के पास एक-एक विधायक था और एक मुस्लिम विधायक निर्दलीय था.
ये आंकड़े सरकार के भी पास हैं. सरकार के पास यह जानकारी है कि मुसलमानों की हालत दूसरे समुदाय से कहीं ज़्यादा खराब है. मुसलमानों की हालत आज ऐसी नहीं हुई है, आज़ादी के बाद से ही उनकी हालत में लगातार गिरावट आ रही है. उनकी स्थिति सुधारने के लिए सरकार को नीतिगत तरीक़े से आगे आना था, लेकिन किसी भी सरकार ने इसकी ज़रूरत नहीं समझी. बिहार में जिस तरह नीतीश कुमार ने महादलितों के लिए योजना बनाई, वैसी ही योजना मुसलमानों के लिए भी ज़रूरी थी. बिहारी मुसलमानों की सुकून भरी ज़िंदगी पर ही सवालिया निशान लग गया है. ऐसे में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, मुसलमानों की संख्या ऐसी है कि वे पचास सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं. समस्या यह है कि मुसलमानों की माली हालत पर आवाज़ उठाना तो दूर, राजनीतिक दल उस पर बात करने से भी बचते हैं. अक़लियत का वोट बाज़ार में नीलाम कर दिया जाता है. ग़रीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के भंवर में फंसे बिहारी मुसलमानों को राजनीति के उस सटीक परिभाषा को याद रखने की ज़रूरत है. उन्हें राजनीतिक दलों से यह ज़रूर पूछना चाहिए कि पिछले पचास सालों में मुसलमानों को सरकारी संसाधनों में कब, किसे और कितना हिस्सा मिला है?