भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हर मायने में विफल रही. इस बैठक के बाद भाजपा पहले से कहीं ज़्यादा भ्रमित नज़र आ रही है. नेतृत्व और विचारधारा को लेकर, संगठन को मज़बूत करने की बात पर, युवाओं को पार्टी में जगह देने के मसले पर, संघ के साथ संबंध के मुद्दे पर और हिंदुत्व के रूप और मायने पर भाजपा में दिशाहीनता की स्थिति है. हार की वजहों को ढूंढने निकली भाजपा का हाल यह रहा कि इस बैठक के ज़रिए पार्टी की अंदरूनी कलह सबके सामने आ गई. राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नेता एक-दूसरे पर निशाना साधते नज़र आए. पार्टी के अंदर मौजूद सारे गुट सबके सामने आ गए. पार्टी के शीर्ष नेताओं ने अपने बयानों से कार्यकर्ताओं को निराश किया और बची-खुची कसर दूसरी पंक्ति के नेताओं ने आपस में लड़कर पूरी कर दी. भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का हाल किसी पिटे हुए बॉलीवुड फिल्म की तरह रहा. इसकी पृष्ठभूमि शानदार थी, ट्रेलर बनाने में भी ख़ासी मेहनत की गई, ज़ोरदार प्रचार भी किया गया, लेकिन भाजपा की इस फिल्म में कोई क्लाइमेक्स ही नहीं था-बहुत शोर सुनते थे, पहलू में दिल का, जो चीरा तो क़तरा-ए-ख़ूं भी न निकला.
दो दिनों की सिरफुटव्वल का कोई नतीजा कुछ भी नहीं निकला. लालकृष्ण आडवाणी ने इस राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पार्टी को फिर से उसी दलदल में धकेल दिया जिसकी वजह से पार्टी गर्त में गई है. आडवाणी ने हार के लिए ज़िम्मेदार लोगों का बचाव किया. प्रेस में पार्टी के अनधिकृत रूप से रणनीतिकार बनकर पार्टी के ही ख़िला़फ लिखने वाले अपने चहेते सलाहकारों को बचाया. सबसे हैरान करने वाली बात यह रही कि आडवाणी संगठन को बचाने के लिए देश भर की यात्रा पर निकलेंगे, लेकिन उन्हें कौन बताए कि जब कार्यकर्ता ही पार्टी से रूठ जाएंगे तो आडवाणी की यात्रा भी पिछली यात्रा की तरह बेमानी ही हो जाएगी.
आडवाणी का हठ-
लालकृष्ण आडवाणी के हठ का भी जबाव नहीं. हार के बाद उन्होंने स्वेच्छा से संन्यास की घोषणा कर दी थी. बाद में अपने सलाहकारों और उनके नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं के कहने पर वह लोकसभा में न स़िर्फ नेता प्रतिपक्ष बने, बल्कि अब पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए देश भर की यात्रा का ऐलान भी कर दिया. आडवाणी ने अपने गुट के नेताओं का पुरज़ोर बचाव किया. भाजपा के चुनाव मैनेजरों के बचाव में उन्होंने एक से एक दलीलें दीं. कुछ सच कुछ झूठ. आडवाणी ने भाजपा की सचिन तेंदुलकर से तुलना की. यह अजीबोगरीब है. उन्होंने कहा कि सचिन भी तो 99 पर आउट हो जाते हैं. यह तुलना ग़लत है, क्योंकि सचिन क्रिकेट के सबसे महान बल्लेबाज हैं. क्या आडवाणी खुद को या भाजपा को राजनीति का सचिन मानते हैं. अगर भाजपा की तुलना किसी क्रिकेटर से की जाए तो वह विश्वकप जीतने के बाद वेस्टइंडीज सीरीज में मोहिंदर अमरनाथ से की जानी चाहिए, जिन्होंने इस सीरीज में शून्य पर आउट होने का विश्व रिकार्ड बनाया था. आडवाणी जी को समझना चाहिए कि भाजपा यह चुनाव एक रन से नहीं हारी है, वह दूसरी बार जनता द्वारा नकार दी गई पार्टी बन चुकी है. आडवाणी का पूरा भाषण पार्टी के रणनीतिकारों को बचाने की कवायद रही. उन्होंने कुछ नेताओं की आपसी छींटाकशी पर भी कड़ी आपत्ति जताई. लेकिन चुनाव के दौरान जब जेटली ने राजनाथ सिंह के ख़िला़फ मोर्चा खोला था, तब इन्हीं आडवाणी जी ने चुप्पी साध ली थी. आडवाणी इस राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पार्टी को एकजुट रखने में न केवलअसफल रहे, बल्कि ख़ुद गुटबाज़ी का हिस्सा बन गए.
आडवाणी ने युवाओं के मसले पर कहा कि पार्टी को तुरंत एक ऐसी व्यवस्था विकसित करनी पड़ेगी, जिससे हर स्तर पर पर युवाओं को तरजीह मिले. ज़िम्मेदार पदों पर बैठे नेता प्रतिभाशाली और कर्मठ युवा कार्यकर्ताओं को नज़रअंदाज़ करते हैं. यह सच है कि भाजपा में युवाओं के लिए सारे दरवाजे बंद हैं. लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी में इसका पता लगाना चाहिए था कि वे कौन नेता हैं, जो युवाओं को पार्टी के अंदर नहीं आने दे रहे हैं. अगर आडवाणी जानबूझ कर अनजान बन रहे हैं तो कोई बात ही नहीं. लेकिन सच्चाई यह है कि पार्टी में युवाओं का रास्ता रोकने वाले वही नेता हैं जो आडवाणी जी के क़रीब माने जाते हैं. अगर आडवाणी जी ने यही सवाल चुनाव से पहले उठाया होता, तो वेबसाइट बनाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. युवाओं के लिए पार्टी के दरवाज़े खुल जाते. हैरानी की बात यह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष को जब आडवाणी जी के सलाहकारों ने टिकट के क़ाबिल नहीं समझा तो दूसरे छोटे युवा नेताओं की क्या बिसात.
भाजपा के लोग मानें या मानें, लेकिन आडवाणी जी के बयानों से यही लगता है कि हार के बाद वह राहुल गांधी की रणनीति को समझने की कोशिश कर रहे हैं और उनका अनुसरण करना चाह रहे हैं. दो मुख्य बातें ग़ौर करने लायक हैं. पहला तो यह कि उन्होंने राहुल गांधी की तरह देश भर का दौरा कर पार्टी संगठन को मज़बूत करने का ऐलान किया है. दूसरा यह कि वह राहुल गांधी की तरह भाजपा में भी युवाओं की एक फौज तैयार करना चाहते हैं. लेकिन समस्या यह है कि उन्हें इसके लिए उन्हें अपने ही सलाहकारों और नज़दीकी नेताओं को पहले किनारे करना होगा.
नाख़ून काट कर शहीद बनने की कोशिश
भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अच्छी चाल चली. लोकसभा चुनाव में हार की जवाबदेही से उन्होंने स्वयं को बचाने की कोशिश की. विजय का श्रेय और पराजय का उत्तरदायित्व दोनों सामूहिक होता है, इसका वास्ता देकर राजनाथ सिंह ने उन सारे लोगों को क्लीन चिट दे दी, जो हार के लिए ज़िम्मेदार थे, जो कार्यकर्ताओं की नाराज़गी की वजह थे. जो लोग पार्टी को एयरकंडीशन कमरे से चलाना चाहते हैं, उन्हें खुली छूट दे दी. पार्टी कार्यकर्ताओं को यह साफ-साफ संदेश चला गया कि चाहे कुछ भी हो जाए, पार्टी अपना तरीक़ा बदलने वाली नहीं है. राजनाथ सिंह ने यह भी कहा कि अगर कोई किसी व्यक्ति को ही इसका ज़िम्मेदार ठहराना चाहता है, तो अध्यक्ष होने के नाते वह इसकी ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हैं. राजनीति में ऐसा बहुत बार देखा गया है कि लोग नाख़ून कटा कर शहीद बनना चाहते हैं. असलियत यह है कि इस ऱाष्ट्रीय कार्यकारिणी के बहाने राजनाथ सिंह ख़ुद को पार्टी में स्थापित करना चाहते हैं, पार्टी की इस नाजुक घड़ी में ख़ुद को भी एक मोहरा बनाना चाहते हैं. वह इस बार लोकसभा में चुन कर आए हैं. पार्टी के अध्यक्ष भी हैं. उनके बयान से तो यही लगा कि आने वाले दिनों में उन्हें दो में से एक कुर्सी चाहिए. वह पार्टी का अध्यक्ष बने रहना चाहते हैं या फिर आडवाणी के बाद वह लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनना चाहते हैं. राजनाथ सिंह की समस्या यह है कि कोई उनका नाम ही नहीं ले रहा है. यह बात जगज़ाहिर है कि जब चुनाव की तैयारी हो रही थी, चुनाव प्रचार की रणनीति बन रही थी तब आडवाणी और जेटली की टीम ने उनको कोरग्रुप से बाहर ही रखा था. सुधांशु मित्तल के मामले में तो राजनाथ सिंह से अरुण जेटली भिड़ ही गए. अरुण जेटली ने यह सबित कर दिया था कि चुनाव अभियान में उनकी हैसियत पार्टी के अध्यक्ष से कहीं ज़्यादा है. इसके बावजूद, जब राजनाथ सिंह हार की जवाबदेही ले ही रहे हैं तो उन्हें जवाब भी देना होगा. उन्हें यह भी बताना चाहिए कि क्यों पूरे चुनाव प्रचार के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी को दरकिनार किया गया? भाजपा के पोस्टरों से अटल जी की तस्वीर हटाने का ़फैसला क्या राजनाथ सिंह का था? क्या चुनाव प्रचार के दौरान हुई ग़लतियों की वजह से नाराज़ हुए कार्यकर्ताओं की ज़िम्मेदारी भी उनकी है? भाजपा के लोगों को पता है कि इन ़फैसलों के व़क्त राजनाथ सिंह चुनाव के मुख्य रणनीतिकारों में से नहीं थे, बल्कि इसके उलट पार्टी के मुख्य ऱणनीतिकार के निशाने पर थे. उनकी अगर कोई ग़लती है तो वह यह है कि पार्टी के कुछ नेता मनमानी करते रहे और बाहरी लोगों के हाथ पार्टी की कमान चली गई. वह अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान होते हुए भी इसकी अनदेखी करते रहे. अगर राजनाथ सिंह ने उस व़क्त कार्रवाई की होती तो शायद इन सलाहकारों की वजह से पार्टी को हार का मुंह देखना नहीं पड़ता.
कहां हैं जेटली
जो सही मायनों में हार के लिए दोषी थे, वही इस राष्ट्रीय कार्यकारिणी से ग़ायब रहे. जिन पर इल्ज़ाम था, वह यूरोप की सैर कर रहे थे. जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे पार्टी के कई वरिष्ठ नेता यह मांग करते रहे हैं कि चुनावी हार के लिए ज़िम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय हो. इन नेताओं का यह आरोप भी है कि पराजय के लिए ज़िम्मेदार लोगों को जवाबदेह बनाने के बजाय उन्हें पुरस्कृत किया जा रहा है. ये लोग चुनाव के मुख्य रणनीतिकार रहे अरुण जेटली को राज्यसभा में विपक्ष का नेता बनाए जाने से बेहद नाराज़ हैं. चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन की समीक्षा के लिए हो रही इस महत्वपूर्ण बैठक के समय चुनाव प्रचार के मुख्य रणनीतिकार रहे अरुण जेटली यूरोप में छुट्टियां बिता रहे हैं. अरुण जेटली की नज़र में राष्ट्रीय कार्यकारिणी का महत्व क्या है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है. हैरानी की बात यह है कि जेटली तो कार्यकारिणी से नदारद रहे, लेकिन उनके पैरोकार कई नेताओं ने उनकी कमी पूरी कर दी. कार्यकारिणी के दूसरे दिन जेटली के नज़दीकी समझे जाने वाले नेताओं ने पार्टी के अंदर चिट्ठी लिखने और उसे लीक करने वालों पर जमकर प्रहार किया. ये नेता जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी का नाम लिए बिना उनका विरोध कर रहे थे. हालांकि जब अरुण शौरी ने इसके जवाब में तर्क दिया कि भाजपा की ख़बरें लीक करने वाले पत्रकारों की टोली की छानबीन होनी चाहिए तो यह भी पता चल जाएगा कि पार्टी की अंदर की बातें प्रेस में लीक करने वाला मास्टरमाइंड कौन है. शौरी अपनी बातें पूरी कर पाते कि राजनाथ सिंह ने उन्हें आगे बोलने से रोक दिया. इसका मतलब साफ है कि भाजपा के वरिष्ठ पदाधिकारी नहीं चाहते थे कि कार्यकारिणी में हार पर बहस हो. इनकी योजना अब साफ-साफ नज़र आ रही है कि संगठन के तौर तरीक़े को बदलने को तैयार नहीं हैं.
हिंदुत्व पर कशमकश…
भाजपा अध्यक्ष कहते हैं कि पार्टी हिंदुत्व की राह पर चलेगी. उधर, पार्टी के कुछ नेता कहते हैं कि हिंदुत्व की वजह से हार हुई. अध्यक्ष हार का दोष हिंदुत्व के मुद्दे को दिए जाने को ख़ारिज़ करते हैं और कहते हैं कि पार्टी अपनी विचारधारा नहीं छोड़ेगी. पार्टी के दूसरे नेता कहते हैं, कट्टर विचारधारा की वजह से मुस्लिम वोट नहीं देते. राजनाथ चाहते हैं कि हिंदुत्व का झंडा बुलंद करके आरएसएस की ताक़त का इस्तेमाल किया जाए. पार्टी के कई नेता कहते हैं कि मुसलमानों को भी ख़ुश करने की तरकीब निकालनी चाहिए. हिंदुत्व को लेकर जितना भ्रम इस कार्यकारिणी में दिखा, उतना पहले कभी नहीं देखा गया. विचारधारा पर असमंजस होने से ही भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जमकर नाटक हुआ. मेनका गांधी की मुस्लिम नेताओं शाहनवाज़ हुसैन तथा मुख्तार अब्बास नकवी से बहस हो गई. मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि सब बोलने लगे. अपनी भड़ास निकालने लगे.
मामला कुछ ऐसा था. शाहनवाज़ हुसैन पार्टी के आंतरिक मसलों को मीडिया को लीक किए जाने पर अपनी नाराज़गी जता रहे थे. उसी समय मेनका ने आरोप लगाया कि हुसैन ही अ़क्सर पार्टी के अंदरूनी मसलों को मीडिया के आगे बोलते आए हैं. नकवी अचानक हुसैन के बचाव में खड़े हो गए. बहस इतनी तेज़ हो गई कि राजनाथ सिंह को बीच-बचाव करना पड़ा. भाजपा के दोनों मुस्लिम चेहरे मेनका से तभी से नाराज़ चल रहे थे, जब से उन्होंने यह बयान दे दिया कि मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देते. मेनका अपने बेटे वरुण को बचाने की कोशिश में लगी हैं. जब से दोनों मुस्लिम नेताओं ने उनके बेटे वरुण गांधी पर भड़काऊ भाषण देने के लिए मोर्चा खोला, तब से ये दोनों नेता मेनका के निशाने पर हैं. शाहनवाज़ हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी का मानना है कि वरुण के भड़काऊ भाषण की पार्टी को भारी क़ीमत चुकानी पड़ी है. वरुण के भड़काऊ भाषण से मतों का ध्रुवीकरण हो गया, जिससे उत्तर प्रदेश में भाजपा को अधिकतर सीटों पर नुकसान हुआ. वहीं, मेनका मानती हैं कि मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देते. इसलिए उनके वोटों के नुकसान को ज़्यादा तरजीह देने की ज़रूरत नहीं है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, बिहार के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और महाराष्ट्र भाजपा के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे ने मेनका गांधी के इस तर्क को ख़ारिज़ कर दिया. बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने अल्पसंख्यक समुदाय को लुभाने के बारे में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का उदाहरण दिया. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी इस बात को ग़लत बताया कि किसी ऐसे समुदाय को नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए, जिसमें मतदाताओं की अच्छी ख़ासी संख्या हो. शिवराज ने कहा, हिंदुत्व का असली अर्थ विकास है. महाराष्ट्र के पूर्व उप-मुख्यमंत्री गोपीनाथ मुंडे ने भी कट्टरवादी विचारधारा की मुख़ालफत की. उन्होंने कहा कि अगर कोई ख़ास समुदाय भाजपा को वोट नहीं देता इसलिए पार्टी उस समुदाय को नज़रअंदाज़ कर दे, ऐसा रवैया अपनाना पार्टी के लिए घातक होगा. भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में इन नेताओं की सलाह तो सही है, लेकिन भाजपा की ऐसी क्या मजबूरी है कि पार्टी को ज़ोर-शोर से यह ऐलान करना पड़ा कि भाजपा हिंदुत्व के मुद्दे पर क़ायम रहेगी. विचारधारा को लेकर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अजीबोगरीब भ्रम देखने को मिला. राजनाथ सिंह तो एक तऱफ यह कह रहे थे कि राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और कॉमन सिविल कोड जैसे मुद्दे भाजपा के मुख्य मुद्दे हैं. इन मुद्दों पर पार्टी पीछे नहीं हटेगी. ये मुद्दे ही पार्टी को कांग्रेस से अलग करते हैं. यही भारतीय जनता पार्टी की पहचान है. दूसरी तऱफ शिवराज सिंह चौहान, सुशील मोदी और गोपीनाथ मुंडे ने भाजपा को अल्पसंख्यकों के प्रति नरम रवैया अपनाने का समर्थन किया. पुरानी कहावत है, मुंह में राम बगल में छुरी. अगर नरेंद्र मोदी को पार्टी का चेहरा बनाया जाएगा और आडवाणी को पोस्टर ब्वॉय, तो पार्टी कितनी भी कोशिश कर ले मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देने वाले हैं. चाहे भाजपा के नेता चिल्ला- चिल्ला कर कहते रहें कि हिंदुत्व का मतलब सब धर्म और जाति के लोगों को एक साथ लेकर चलना है, कोई भी अल्पसंख्यक समुदाय उनके झांसे में नहीं आने वाला है. मुसलमान भाजपा को इसलिए वोट नहीं देते क्योंकि पार्टी जिसे मुख्य मसला कहती है मुसलमान उसका विरोध करते हैं. पार्टी जिन मुद्दों को अपनी पहचान बताती है, उससे मुसलमानों को ख़तरा लगता है. एक बात तो तय है कि जिन लोगों ने बाबरी मस्ज़िद गिराने का काम किया उसे मुसलमान वोट नहीं देंगे. जो जवाबदेह नेता गुजरात के दंगे के दौरान धृतराष्ट्र बने बैठे रहे, मुसलमानों को दंगे में मरने के लिए छोड़ दिया उन्हें मुसलमानों के वोट नहीं मिल सकते. अगर आडवाणी और उनके सलाहकारों को लगता है कि वरुण की वजह से चुनाव हार गए तो चुनाव आयोग के मना करने के बावजूद वरुण को टिकट ही क्यों दिया गया? मुसलमानों का वोट चाहिए था तो 370, समान नागरिक संहिता, गो-हत्या, बाबरी मस्ज़िद जैसे मुद्दों को घोषणापत्र में क्यों शामिल किया गया? इससे यही सबित होता है कि पार्टी विचारधारा को लेकर दिशाहीन हो चुकी है.
विचारधाराहीन पार्टी की पहचान यही होती है कि किसी भी विषय पर उसकी कोई तय नीति नहीं होती. हर नेता अपने हिसाब से बोलता है. जिसे जो मन आता है, पार्टी की विचारधारा बताने लगता है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बाद भाजपा के कुछ नेता तो यह भी कह रहे हैं कि वरुण को बेवजह बलि का बकरा बनाया जा रहा है. संघ के नज़दीकी नेता कहते हैं कि बाबरी मस्ज़िद को ध्वस्त करने के बाद से ही मुस्लिम भाजपा से नफरत करते हैं. जो लोग वरुण गांधी के मुस्लिम विरोधी भाषणों को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं, वे ग़लत हैं. उत्तर प्रदेश के कई नेता भी यही मानते हैं कि प्रदेश में पार्टी के ख़राब प्रदर्शन का कारण वरुण नहीं हैं. उनके कारण तो कुछ सीटें आ भी गईं वर्ना वे भी नहीं आतीं. हार की असल वजह टिकटों का ग़लत बंटवारा, कार्यकार्तओं की नाराज़गी और प्रदेश के चुनाव प्रभारी का ठीक से काम नहीं करना है. चुनाव के नतीजे भी इसी बात की ओर संकेत करते हैं कि भाजपा के मतदाता ही वोट देने नहीं निकले. वरुण गांधी को इसलिए कठघरे में खड़ा किया जा रहा है ताकि हार के ज़िम्मेदार लोगों की गर्दन बचाई जा सके. इन बातों से तो यही लगता है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी के ख़त्म हो जाने के बावजूद पार्टी को यह पता नहीं चल पाया है कि हार की वजह क्या है. आडवाणी, जेटली, वरुण गांधी, मोदी, पार्टी के सलाहकार, भितरघात, हिंदुत्व, आरएसएस, ग़लत रणनीति, आक्रामक प्रचार या नाराज़ कार्यकर्ता दो दिनों तक सिरफुटव्वल करने के बाद भी पार्टी के नेता एकमत पर नहीं पहुंच सके कि हार के लिए इनमें से कौन कितना ज़िम्मेदार है? भाजपा की विचारधारा में मौजूद आंतरिक विरोधाभास अब सबके सामने है. यही वजह है कि नेताओं के अलग-अलग विचार और बयान सामने आ रहे हैं. भाजपा में विचारधारा को लेकर अजीब सी भ्रामकता है. पार्टी यही तय नहीं कर पाई है कि हिंदुत्व क्या है. कौन से डिज़ाइनर हिंदुत्व को अपनाना है और कौन से आउटडेटेड हिंदुत्व को त्याग देना है. पार्टी में जवाबदेही के मुद्दे पर उठे बवाल को शांत करने के लिए पूरे विषय को ही टाल दिया गया. पार्टी ने इन मामलों पर चिंतन बैठक में बहस करने का फैसला किया है. चिंतन बैठक कब होगी, इसकी तारीख़ अभी तय नहीं हुई है. कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी में असल मुद्दों को दबाने में आडवाणी और राजनाथ सिंह कामयाब रहे. विरोध के स्वर उठाने वाले नेताओं को अनुशासन का डंडा दिखा कर शांत कर दिया गया. हालांकि यह शांति ज़्यादा दिनों तक टिकने वाली नहीं है. भाजपा ऐसे रोग से ग्रस्त हो चुकी है जिसका इलाज स़िर्फ कठोर फैसले से ही किया जा सकता है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी के बाद की शांति किसी भयंकर तूफान के आने से पहले की ख़ामोशी है. आप बस थोड़ा इंतज़ार कीजिए, क्योंकि असली खेल अभी बाक़ी है.