राजनीति करना और शासन कला में माहिर होना दो अलग-अलग चीजें हैं. राजनीति जहां जन-समर्थन हासिल करने का कौशल है, वहीं शासन कला देश को सुरक्षित रखने का. जो राजनेता इस अंतर को समझते हैं, वे नादानी नहीं करते, उनसे ग़लतियां नहीं होतीं. हालांकि, अनुभवहीनता की वजह से बड़े-बड़े राजनेता कभी-कभी अति उत्साह वश कुछ ऐसा कर जाते हैं, जिसके भविष्य में विपरीत नतीजे देखने को मिलते हैं. ऐसी ही एक ग़लती भारत सरकार ने म्यांमार में किए गए जवाबी हमले में की. रक्षा मंत्रालय और भारतीय सेना से एक बड़ी चूक हुई है, जिसके बारे में देश की जनता को जानना ज़रूरी है. हैरानी की बात यह है कि मीडिया, राजनयिकों और अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों ने भी इस पूरी घटना की सही ढंग से विवेचना नहीं की. मणिपुर में हुए आतंकी हमले और म्यांमार में हुई सैन्य कार्रवाई पर पेश है, चौथी दुनिया की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट…
बीते चार जून को मणिपुर में भारतीय सेना की एक टुकड़ी पर हमला हुआ, जिससे पूरा देश दहल गया. इस हमले में भारतीय सेना के 18 बहादुर जवान शहीद हुए और 11 घायल हो गए. इस हमले की ज़िम्मेदारी नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड ने ली. हमला करने के बाद आतंकवादी भारत की सीमा पार कर म्यांमार के जंगलों में मौजूद अपने शिविरों में छिप गए. उन्हें लगा कि सीमा पार करने के बाद खतरा टल गया. लेकिन भारत सरकार ने एक ऐतिहासिक फैसला लिया. इस घटना के चार दिनों बाद भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई की, म्यांमार में घुसकर आतंकियों के शिविर पर हमला किया. सुबह चार बजे के वक्त हुआ यह जवाबी हमला इतना फुर्तीला था कि जब तक आतंकवादी कुछ समझ पाते, वे मौत के घाट उतारे जा चुके थे. इस घटना के तुरंत बाद सेना ने प्रेस कांफ्रेंस की और इस ऑपरेशन के बारे में बताया. इस ऑपरेशन में क़रीब 150 आतंकवादी मार गिराए गए. इसके बाद केंद्र सरकार के मंत्रियों के बयानों की झड़ी लग गई. जिसके मन में जो आया, वह उसे मीडिया में बोलता गया.
सरकार ने काफी वाहवाही लूटी, खुद अपनी पीठ भी थपथपाई. म्यांमार ऑपरेशन की आग ठंडी पड़ चुकी है, इसलिए अब शांत चित्त होकर इसे समझने की ज़रूरत है. भारत ने पहली बार सीमा पार जाकर जवाबी कार्रवाई की है, इसलिए यह पूछना ज़रूरी है कि इस तरह के ऑपरेशन की आ़िखर ज़रूरत क्यों पड़ी? इस सवाल का साधारण-सा जवाब है कि आतंकवादियों ने भारतीय सेना के 18 जवानों की हत्या कर दी थी. यह इस सवाल का पर्याप्त जवाब हो सकता है, लेकिन यह सही जवाब नहीं है. सच बात तो यह है कि यह हमारे खुफिया तंत्र, खासकर मिलिट्री इंटेलिजेंस की घोर निष्क्रियता है, जिसकी वजह से हमारे 18 जवानों को शहीद होना पड़ा. यह कोई पहला हमला नहीं था, बल्कि यह तीसरा हमला था. अगर पहला हमला होता, तो यह माना भी जा सकता था कि कहीं कुछ चूक हो गई होगी. पहला हमला दो अप्रैल, 2015 को अरुणाचल प्रदेश के तिरप ज़िले में हुआ, जिसमें 4-राजपूत रेजिमेंट के तीन जवान शहीद हुए और चार घायल हुए थे. लेकिन, सरकार तब नहीं चौंकी. यह भी नहीं पता चल पाया कि हमला किसने किया. दूसरा हमला नगालैंड में तीन मई, 2015 को हुआ.
इस हमले में आसाम राइफल्स के आठ जवान शहीद हुए, छह घायल हुए और चार लापता बताए गए. इसके बाद चार जून को मणिपुर में हमला हुआ. लगातार हो रहे ये हमले एक पैटर्न को बताते हैं. नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड के खापलांग ग्रुप ने इसकी ज़िम्मेदारी ली. ग़ौर करने वाली बात यह है कि इसके साथ पिछले 15 सालों से सीज फायर का समझौता था. फिर इसने हमले क्यों किए, सीज फायर का उल्लंघन क्यों किया? यह आतंकी संगठन 1980 में बना. यह संगठन ईसाई धर्म के आधार पर नगालैंड को भारत और बर्मा से अलग एक देश बनाना चाहता है. लेकिन, 1988 में इस संगठन में मतभेद उभरे और इसके दो हिस्से हो गए. एक हिस्सा नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड-आईएम (इसाक-मुइबा) है. इस ग्रुप के बारे में माना जाता है कि इसे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई एवं चीन से पैसे और हथियार मिलते हैं. भारतीय खुफिया एजेंसियों के मुताबिक, पाकिस्तान के आतंकी शिविरों में इस ग्रुप के आतंकियों को ट्रेनिंग दी जाती है. इस ग्रुप की आमदनी का एक बड़ा स्रोत नॉर्थ ईस्ट में फैला ड्रग्स का कारोबार है. इस ग्रुप से भारत सरकार की बातचीत नहीं होती, यह हमेशा से भारतीय सेना पर हमले करता रहा है. नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड का दूसरा हिस्सा खापलांग ग्रुप है. यह भी म्यांमार से संचालित होता है. दोनों ही ग्रुपों में आपसी फूट है, दोनों ही एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं. इसाक-मुइबा ग्रुप का आरोप यह है कि खापलांग ग्रुप भारत सरकार का एजेंट है. यह आरोप इसलिए लगता है, क्योंकि खापलांग ग्रुप भारत सरकार के साथ भारतीय संविधान के आधार पर बातचीत करने में विश्वास रखता है.
भारत सरकार और खापलांग ग्रुप के बीच बातचीत का नतीजा यह था कि 2001 से दोनों तऱफ से सीज फायर कायम रहा. 14 सालों तक इस ग्रुप ने कोई हमला नहीं किया. यह भी आश्चर्य वाली बात है कि भारतीय सेना पर तीन बार हमला होता है, लेकिन भारतीय खुफिया एजेंसियों को उसकी भनक भी नहीं लगती. क्या भारत की खुफिया एजेंसियां सो रही थीं या फिर हमारी नीतियों में कुछ कमियां रह गईं? हमले के बारे में जानकारी क्यों नहीं थी, जबकि यह तीसरा हमला था. इससे पहले जो दो हमले हुए, क्या उनकी खुफिया विवेचना हुई? अगर नहीं हुई, तो इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? और, अगर उक्त हमलों की विवेचना हुई, तो क्या कार्रवाई हुई? अगर कार्रवाई नहीं हुई, तो आ़िखर क्यों? अगर हुई, तो फिर तीसरा हमला कैसे हो गया? इन सवालों का जवाब रक्षा मंत्रालय के पास होना चाहिए. हमारी जानकारी यह है कि इनमें से कुछ भी नहीं हुआ. और, जब तीसरा हमला हुआ और सरकार की छवि दांव पर लग गई, तब म्यांमार ऑपरेशन को अंजाम दिया गया. सरकार ने ऑपरेशन करके अपनी छवि तो बचा ली, लेकिन क्या उसने यह पता करने की कोशिश की कि चूक कहां हुई? क्या ज़िम्मेदार लोगों पर कार्रवाई हुई? क्या अपनी ग़लतियों से सरकार ने कोई सीख ली? दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि पाकिस्तान और नॉर्थ ईस्ट के इलाके में मिलिट्री इंटेलिजेंस का नेटवर्क चौपट हो चुका है. कुछ साल पहले तक मिलिट्री इंटेलिजेंस काफी सक्रिय हुआ करती थी, लेकिन सरकार के फैसलों की वजह से उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया गया है. मिलिट्री इंटेलिजेंस के जो लोग अच्छा काम कर रहे थे, जो काबिल लोग थे और जिन्होंने अच्छे रिजल्ट दिए, उन्हें दीगर कामों पर लगा दिया गया. किसी को आर्मी में स्टोर कीपिंग का काम दे दिया गया, किसी को पानी सप्लाई के काम में लगा दिया गया, किसी को मेस के काम में लगा दिया गया, तो किसी को कुछ और कामों पर लगा दिया गया.
इंडियन आर्मी के पास एक टेक्निकल सपोर्ट डिवीजन यानी टीएसडी नामक एक खुफिया यूनिट थी, जो बेहतरीन काम कर रही थी, लेकिन इसे कांग्रेस सरकार ने बंद कर दिया गया. इस यूनिट को मुंबई हमले के बाद बनाया गया था. जब मुंबई हमला हुआ, तब सरकार ने रॉ, आईबी और मिलिट्री इंटेलिजेंस से पूछा कि क्या हमारे पास इस तरह के हमले रोकने और जवाबी हमला करने की काबिलियत है, तो रॉ और आईबी ने मना कर दिया था. उस वक्त जनरल दीपक कपूर सेनाध्यक्ष थे. उन्होंने कहा कि मिलिट्री इंटेलिजेंस यह काम कर सकती है. जब देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और रक्षा मंत्री ने इसकी ज़रूरत समझी, तो सरकार की सहमति से टीएसडी यूनिट बनाई गई. जनरल दीपक कपूर ने इसकी पहल की थी, लेकिन फिर वह रिटायर हो गए. उनके बाद जनरल वीके सिंह आए और उन्होंने इसे बनाया. जब तक यह यूनिट मौजूद थी, तब तक कश्मीर में एक भी आतंकी वारदात नहीं हुई. आतंकवादियों का भारत में घुसना बंद हो गया. नॉर्थ ईस्ट में इस यूनिट ने बड़ा अच्छा काम किया. जब तक यह काम कर रही थी, तब तक नॉर्थ ईस्ट में एक भी घटना नहीं हुई. टीएसडी ने पाकिस्तान और नॉर्थ ईस्ट के सभी संगठनों के अंदर अपने सूत्र बना लिए थे. इस यूनिट के पास आतंकी संगठनों की सारी जानकारियां पहले से होती थीं.
टीएसडी ने कोई भी हथियार भारत के अंदर आने नहीं दिया. टीएसडी ने जो खुफिया जानकारी दी, उसकी वजह से एंथनी सिमरे जेल पहुंच गया. एंथनी सिमरे नॉर्थ ईस्ट में सक्रिय सबसे बड़ा हथियार माफिया था. वही भारत के अंदर हमले को अंजाम देने के लिए हथियार मुहैया कराता था, लेकिन टीएसडी ने उसे पकड़वा दिया. आज वह तिहाड़ जेल में बंद है. इतना ही नहीं, भारत में जितना भी ड्रग्स आता है, उसका सबसे बड़ा हिस्सा म्यांमार के रास्ते नॉर्थ ईस्ट पहुंचता है. टीएसडी ने भारत में न स़िर्फ हथियारों को आने से रोका, बल्कि साथ ही ड्रग्स का पूरा धंधा नष्ट कर दिया. इससे दो बातें हुईं. एक तो हथियारों का आना बंद हो गया और दूसरे यह कि आतंकी संगठनों की आमदनी बंद हो गई. इस यूनिट की वजह से नॉर्थ ईस्ट में आईएसआई का हस्तक्षेप और क्रियाकलाप लगभग बंद हो गए. ड्रग्स का धंधा बंद होने से आतंकी संगठनों को काफी परेशानी हो रही थी. आईएसआई और दूसरी विदेशी खुफिया एजेंसियों को परेशानी हो रही थी. ये सभी चाह रहे थे कि टीएसडी को बंद कर दिया जाए. हैरानी की बात यह है कि भारत सरकार ने देश की सुरक्षा को नज़रअंदाज़ करते हुए आईएसआई और दूसरी विदेशी खुफिया एजेंसियों की मुराद पूरी कर दी. हथियार के दलालों और आईएसआई के एजेंटों के ज़रिये ग़लत खबरें और अफवाहें फैलाकर इस यूनिट को बैन कर दिया गया. नतीजा यह हुआ कि नॉर्थ ईस्ट में हमले शुरू हो गए और कश्मीर में फिर से आतंकी गतिविधियां. नॉर्थ ईस्ट में जो तीनों हमले हुए, उनकी ज़िम्मेदारी एनएससीएन-खापलांग गु्रप ने ली है. भारत सरकार इस ग्रुप के साथ बातचीत करती रही है. इसकी वजह यह है कि नॉर्थ ईस्ट में जितने भी आतंकी संगठन हैं, उनमें स़िर्फ यही एक ऐसा ग्रुप है, जो भारतीय संविधान के तहत बातचीत करने और समस्याओं का हल निकालने के पक्ष में है. पिछले कुछ सालों से भारत सरकार ने इस ग्रुप को शांति वार्ता में नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया था.
इस ग्रुप को सीधे तौर टीएसडी डील करती थी. टीएसडी एनएससीएन के संगठन के अंदर तक घुसी हुई थी. खापलांग ग्रुप के सदस्य टीएसडी के सेफ हाउस में रह रहे थे. टीएसडी की तऱफ से उसे मदद भी मिल रही थी, इसलिए सीज फायर बरकरार था. लेकिन, जनरल वीके सिंह के रिटायर होते ही इस यूनिट को बंद कर दिया गया और खापलांग ग्रुप के अंदर जितने भी ऐसे लोग थे, जिन्हें टीएसडी ने कल्टिवेट किया था, उन्हें एक-एक करके ़खत्म कराया गया. मतलब यह कि टीएसडी ने खापलांग ग्रुप के अंदर जितने भी खबरी बनाए, उन्हें मरवा दिया गया. इससे सरकार और एनएससीएन-खापलांग गु्रप के बीच दूरियां बढ़ गईं, दोनों के बीच विश्वास खत्म हो गया. न तो अब टीएसडी के वे अधिकारी बचे थे, जिनसे खापलांग ग्रुप बातचीत कर सकता था. यही वजह है कि खापलांग ग्रुप ने सीज फायर खत्म कर दिया और हमले शुरू कर दिए. यह सब उस वक्त हुआ, जब सेनाध्यक्ष विक्रम सिंह थे. वह ईस्टर्न कमांड का नेतृत्व कर चुके हैं और नॉर्थ ईस्ट का भी दायित्व उनके पास था. क्या भारत सरकार यह तहकीकात करेगी कि इतनी बड़ी चूक कैसे हुई? क्या गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों की चूक की ज़िम्मेदारी तय होगी या फिर सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा? यह जानकर और हैरानी होती है कि वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्वयं एक खुफिया एजेंसी के माहिर रहे हैं, फिर भी सरकार का ध्यान नष्ट हुए खुफिया ढांचे पर नहीं गया. अजित डोभाल साहब को इन बातों की गहराई से छानबीन करनी चाहिए. किससे और कहां चूक हुई, उसके ़िखला़फ कार्रवाई होनी चाहिए. इसके अलावा भी सेना और रक्षा मंत्रालय से भयानक चूक हुई है. म्यांमार के अंदर जवाबी कार्रवाई के बाद जिस तरह से सेना, अधिकारियों और नेताओं ने बयानबाजी शुरू की, वह हर लिहाज से अनावश्यक थी.
ऑपरेशन के बाद सेना की तऱफ से हुई प्रेस कांफ्रेंस में स़िर्फ इतना बता देना काफी था कि भारत-म्यांमार सीमा पर भारतीय सेना ने जवाबी कार्रवाई की, जिसमें आतंकी संगठनों को भारी ऩुकसान हुआ है. बात यहीं खत्म हो जानी थी. लेकिन, अति उत्साह में हमने सारी बातें बता दीं कि कैसे फैसला हुआ. कब, कहां और कैसे गृह मंत्री, रक्षा मंत्री, सुरक्षा सलाहकार, आर्मी चीफ और खुफिया एजेंसी के मुखिया की मीटिंग हुई. मीटिंग में क्या-क्या हुआ, यह भी बाहर आ गया. यह तो हद हो गई. उस मीटिंग में क्या-क्या फैसले हुए और ऑपरेशन का प्रारूप क्या था, यह भी बता दिया गया. इतना ही नहीं, सेना की किस रेजिमेंट की कौन-सी यूनिट ने ऑपरेशन को अंजाम दिया, यह भी हमने पूरी दुनिया को बता दिया. एक मंत्री ने तो इस घटना के हवाले से पाकिस्तान को धमकी देना शुरू कर दिया. मीडिया ने उसे और भी बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना शुरू कर दिया. हेडिंग दी गई.. घुस के मारा.. अब पाकिस्तान की बारी. अति उत्साह में ग़लतियां पर ग़लतियां होती रहीं. सेना और सरकार की तऱफ से जो तस्वीरें दी गईं, अखबारों और टीवी पर ऑपरेशन की जो तस्वीरें दिखाई गईं, वे पुरानी थीं, जिनका इस ऑपरेशन से कोई लेना-देना नहीं था. इन सबका असर न स़िर्फ देश की सुरक्षा पर होता है, बल्कि दूसरे देशों के साथ रिश्ते खराब होते हैं. इन बयानों पर पाकिस्तान में बेवजह बहस छिड़ गई.
वहां की सरकार को बयान देना पड़ा कि भारत पाकिस्तान को म्यांमार न समझे. इस ऑपरेशन का इतना शोर हुआ कि म्यांमार की सरकार को मजबूरन यह बयान जारी करना पड़ा कि भारतीय सेना का ऑपरेशन उसकी धरती पर नहीं हुआ. कोवर्ट या खुफिया ऑपरेशन करने का यह कौन-सा तरीका है? और, ऐसा करके सरकार क्या हासिल करना चाह रही थी? देश के बयान बहादुरों की इस ग़लती को अनुभवहीनता के नाम पर भुलाया जा सकता है, लेकिन जो ग़लती रक्षा मंत्रालय और भारतीय सेना से मिलिट्री इंटेलिजेंस की दुर्दशा करने की हुई है, वह माफी के योग्य नहीं है. पिछले कुछ सालों में गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और भारतीय सेना के अधिकारियों से कई ऐसी ग़लतियां हुई हैं, जिनकी ज़िम्मेदारी तय करने की ज़रूरत है. मणिपुर की घटना से कई सवाल उठ रहे हैं, जिनका जवाब सरकार को पता होना चाहिए. अगर पता नहीं है, तो पता करना चाहिए. ऐसी क्या बात है कि यूपीए सरकार के दौरान सेना और अधिकारियों ने इसाक-मुइबा ग्रुप से रिश्ते बनाए, जो आईएसआई और चीन के इशारे पर काम करता है. क्या भारतीय सेना और मंत्रालयों में आईएसआई के हमदर्द बैठे हैं? खापलांग ग्रुप को नाराज़ करने की वजह क्या थी? क्या अधिकारियों पर किसी का दबाव है? क्या ड्रग्स माफिया के इशारे पर यह ़फैसला लिया जा रहा है? क्या हथियार माफिया के दबाव में टीएसडी को बंद कराया गया? सरकार ने किन परिस्थितियों और किस दबाव में मिलिट्री इंटेलिजेंस को तहस-नहस कर दिया?
सवाल यह भी है कि नॉर्थ ईस्ट में खुफिया कार्रवाई के नाम पर जो पैसा जाता है, वह किसकी जेब में जा रहा है? जब वहां कोई काम नहीं हो रहा है, तो करोड़ों रुपये कहां जा रहे हैं? क्या मोदी सरकार और सेनाध्यक्ष ने टीएसडी जैसी यूनिट के विकल्प स्वरूप कोई और यूनिट बनाई? मोदी सरकार को यह भी बताना चाहिए कि खुफिया एजेंसियों की इस विफलता के लिए ज़िम्मेदार कौन है? मोदी सरकार को इन तमाम सवालों पर ध्यान देना चाहिए और फौरन कार्रवाई करनी चाहिए, अन्यथा भारतीय सेना के जवान आतंकवादियों के हाथों इसी तरह शहीद होते रहेंगे. इस बार तो हम म्यांमार में घुसकर आतंकियों को मारकर बदला लेने में कामयाब रहे, शायद अगली बार हमारे पास सिर पर हाथ रखकर पछताने के अलावा कोई दूसरा चारा न बचे.