कांग्रेस पार्टी सांपनाथ है, कांग्रेस मीठा ज़हर है, कांग्रेस ब्राह्मणवाद से ग्रसित पार्टी है, सांप्रदायिकता के मामले में कांग्रेस पार्टी भारतीय जनता पार्टी से कम नहीं है, अल्पसंख्यकों को सबसे बड़ा धोखा कांग्रेस पार्टी ने दिया है, कांग्रेस पार्टी दलितों और अल्पसंख्यकों की विरोधी है, बाबरी मस्जिद के विध्वंस में कांग्रेस पार्टी की भागीदारी है, गुजरात में कांग्रेस पार्टी सॉफ्ट हिंदूवादी पार्टी बन गई है, कांग्रेस पार्टी ने बड़े-बड़े नारे देकर देश की जनता को गुमराह करने में महारथ हासिल कर ली है. ये विचार रामविलास पासवान के हैं. लगता है, बिहार चुनाव के नतीजों के बाद रामविलास पासवान ने कांग्रेस पार्टी के खिला़फ मोर्चा खोल दिया है. रामविलास पासवान के इस कांग्रेस विरोध का मतलब क्या है.
किताब लिखना बड़े-बड़े राजनेताओं और नौकरशाहों का नया शौक बन गया है. जब इन दोनों में से कोई किताब लिखता है तो बड़ा विवाद खड़ा हो जाता है. नौकरशाह कई राज़ खोलते हैं. सेवा में रहते हुए जिन बातों को वे नहीं बोल पाते, रिटायर होने के बाद किताबों में लिखते हैं. जब राजनेता किताब लिखते हैं तो इसका मतलब राजनीति की नई पारी का ऐलान होता है. कलम उठाते ही राजनेता वैचारिक स्तर पर तू़फान खड़ा करता है. जब कोई बड़ा नेता किताब लिखता है तो उससे राजनीति के नए इशारे मिलते हैं. नई दिशा का संकेत मिलता है. ज़्यादातर मौक़ों पर लिखने वाले राजनेता की पार्टी के अंदर ही बवाल मच जाता है. जसवंत सिंह ने जब किताब लिखी तो पार्टी से निकाल दिए गए. पार्टी की नाराज़गी दूर हुई तो वापस भी आ गए. आडवाणी जी ने भी अपनी जीवनी लिख डाली. भव्य समारोह में किताब का लोकार्पण हुआ. इस किताब ने मीडिया में बहुत सुर्खियां बटोरीं. ऐसे मौक़े बहुत ही कम आते हैं, जब कोई बड़ा नेता किताब लिखे और लोगों को पता तक न चले
रामविलास पासवान की लिखी दो किताबें आजकल बाज़ार में चोरी-छुपे बिक रही हैं. चोरी-छुपे इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि इन दोनों किताबों का न तो विधिवत कोई लांच हुआ और न ही बाज़ार में इनके लिए कोई शोरशराबा. मीडिया से भी यह बात छुपाई गई. किताब स्टॉल पर है. कीमत 600 और 500 रुपये है. इन्हें देश के सबसे बड़े प्रकाशक राजकमल प्रकाशन ने छापा है. दोनों किताबें रामविलास पासवान द्वारा लिखे लेखों का संकलन हैं, जिनमें राजनीति के हर मुद्दे पर पासवान के विचार मौजूद हैं. पहली किताब का नाम है, मेरी विचार यात्रा, सामाजिक न्याय:अंतहीन परीक्षा और दूसरी किताब का नाम है, मेरी विचार यात्रा-दलित मुस्लिम: समान समस्याएं समान धरातल. इन किताबों में भारतीय राजनीति से जुड़े हर मुद्दे पर रामविलास पासवान ने अपने विचारों को सा़फ-सा़फ रखा है. इनमें 80 के दशक से लेकर 2003-2004 में घटी राजनीतिक घटनाओं पर उनके विचार हैं. बाबा भीमराव अंबेडकर, सामाजिक न्याय, सांप्रदायिकता, संसदीय राजनीति, परमाणु नीति, विदेश नीति, क्षेत्रीय दल, आतंकवाद, चुनाव और मीडिया जैसे विषयों पर अलग-अलग अध्याय हैं. रामविलास पासवान का भारतीय जनता पार्टी से वैचारिक विरोध जगज़ाहिर है. भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार की राजनीति की आलोचना करने से रामविलास पासवान नहीं हिचकते हैं. यह इन दोनों किताबों में हर जगह मौजूद है. लेकिन हैरानी की बात यह है कि रामविलास पासवान ने जिस तरह से कांग्रेस पार्टी और उसकी राजनीति पर प्रहार किया है, वह किसी भी पाठक को हैरान कर देगा. यह किताब दलितों और अल्पसंख्यकों के बीच काफी पॉपुलर हो रही है.
रामविलास पासवान का पहला आरोप यह है कि कांग्रेस पर ब्राह्मणवाद पूरी तरह हावी है और उत्तर भारत में ब्राह्मणवादी चरित्र के कारण कांग्रेस का स़फाया हो गया. वर्ष 1980 से 1989 तक कांग्रेस (आई) सरकार ने राष्ट्रीय आम सहमति के नाम पर मंडल आयोग की स़िफारिशों को किस तरह रद्दी की टोकरी में फेंक रखा था, उसे दोहराने की ज़रूरत नहीं है. जब नरसिम्हाराव सरकार ने राष्ट्रीय मोर्चा सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में दायर शपथपत्र को वापस लेकर नई अधिसूचना जारी की और इसमें आर्थिक मापदंड का प्रस्ताव रखा तो तमाम मंडल विरोधियों ने राहत की सांस ली. आरक्षण में आर्थिक मापदंड उसकी बुनियादी नीति पर कुठाराघात है. रामविलास पासवान ने अपनी किताब में ऐसे कई नामों और नेताओं का जिक्र किया है, जिनकी वजह से कांग्रेस पार्टी अगड़ी जाति की मानसिकता से बाहर नहीं आ सकी. अपनी दलील को साबित करने के लिए रामविलास पासवान ने यहां तक लिख डाला कि स्वतंत्रता आंदोलन के अगुवा अधिकांश सवर्ण ही थे. सवर्णों में कुछ तो कट्टरपंथी हिंदू थे. कांग्रेस की कार्यसमिति ब्राह्मणों से भरी हुई थी. दक्षिण में रामास्वामी नायकर, जिन्हें लोग आदर से पेरियार के नाम से पुकारते हैं, ने कांग्रेस से त्यागपत्र देते हुए कहा कि कांग्रेस ब्राह्मणों की पार्टी है. उस समय मद्रास से कार्यसमिति के 18 सदस्यों में से 17 स़िर्फ ब्राह्मण थे. बाबा साहेब अंबेडकर के अनुसार, कांग्रेस एक जलती हुई भट्टी है, उसमें जो जाएगा, जलकर राख हो जाएगा.
रामविलास पासवान बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए कांग्रेस पार्टी को बराबर का ज़िम्मेदार मानते हैं. वह लिखते हैं कि कांग्रेस पार्टी की केंद्र सरकार ने बड़ी चालाकी से राम मंदिर के निर्माण के लिए भाजपा को समर्थन दिया और अयोध्या के मामले में उसने चुप्पी साध ली. बाबरी मस्जिद गिराए जाने से पहले की घटना के बारे में वह लिखते हैं कि राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक जनता दल एवं वाम मोर्चा द्वारा लगातार चलाए जा रहे अभियान के फलस्वरूप बुलाई गई. महत्वपूर्ण बात यह है कि केंद्र ने अपना दृष्टिकोण एकता परिषद की बैठक के दौरान भी स्पष्ट करना आवश्यक नहीं समझा. प्रधानमंत्री ने कहा कि विवाद के संबंध में केंद्र अपनी संवैधानिक भूमिका का निर्वाह करेगा. वह भूमिका क्या होगी, यह स्पष्ट नहीं किया. केंद्र सरकार इस तरह मुंह छुपाकर ज़्यादा समय तक इस विवाद को नहीं टाल सकी. रामविलास पासवान आगे लिखते हैं कि अयोध्या में क़ानून की धज्जियां उड़ाकर निर्माण कार्य चल रहा था. देश ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की नज़र इस पर लगी हुई थी और भारत सरकार मूकदर्शक बनी रही. वह सरकार किस मुंह से अपने को धर्मनिरपेक्ष सरकार कह सकती है? असल में कांग्रेस की नीति हमेशा से दोमुंही नीति रही है. यह वह दल है, जिसने 1984 के नवंबर में पूरे देश में सिखों का नरसंहार कराया और जब बाबरी मस्जिद को नष्ट करने की पूरी तैयारी हो चुकी थी तो उसने सांप्रदायिक ताक़तों के आगे घुटने टेक दिए. जिस ढंग से अयोध्या विवाद को कांग्रेस सरकार ने लिया, उससे उसका हिंदू सांप्रदायिक चेहरा उजागर हो गया है.
मेरी विचार यात्रा, सामाजिक न्याय:अंतहीन प्रतीक्षा के पेज नंबर 219 पर मुंबई में हुए दंगों का उल्लेख करते हुए रामविलास पासवान लिखते हैं कि एक तऱफ बंबई जलता रहा और दूसरी ओर कांग्रेसी एक-दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति में मशगूल रहे. मुख्यमंत्री सुधाकर राव नाइक की रुचि बंबई में क़ानून का राज स्थापित करने के बजाय अपनी कुर्सी शरद पवार गुट से बचाए रखने में रही. केंद्र में भी प्रधानमंत्री की दिलचस्पी शरद पवार गुट को हावी न होने देने में रही. यहां तक कि देर-सवेर जब वह बंबई पहुंचे, तब भी उन्होंने न तो खुलकर शिवसेना का विरोध किया और न ही ऐसे ठोस प्रबंध करने के आदेश दिए, जिससे भविष्य में इन घटनाओं को दोहराने से रोका जा सके. रामविलास पासवान आरोप लगाते हैं कि कांग्रेस की सरकार ने दंगा फैलाने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं की. वह लिखते हैं कि वर्तमान परिस्थिति में ऐसे संगठनों के प्रति नम्र रुख़ अपनाना भारत में गृहयुद्ध पैदा करने के लिए दावत देने के समान है. शिव सैनिकों की जगह सड़क पर नहीं, बल्कि सींखचों के भीतर है. मुसलमानों के हत्यारों को ऐसी ही छूट दी जाती है, जैसे सिखों के हत्यारों को सन् 84 के बाद दी गई, तो देश में क़ानून व्यवस्था का राज क़ायम रखना संभव नहीं होगा.
रामविलास पासवान लिखते हैं कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 6 दिसंबर, 1992 की घटना के बाद प्रशासन की साठगांठ से मुसलमानों पर जो ज़ुल्म ढाया गया, उसकी प्रतिक्रिया में बंबई और कलकत्ता के शेयर बाज़ार में बम फटे. हिंदू कार्ड 1984 में खेला गया सिखों के ख़िला़फ, जिसका नतीजा यह हुआ कि पंजाब जलने लगा, इंदिरा गांधी भी नहीं बचीं और न कोई हिंदू राष्ट्र का नारा लगाने वाला पंजाब में घुस सका, ठीक उसी तरह दोबारा मुसलमानों के ख़िला़फ हिंदू कार्ड का इस्तेमाल किया जा रहा है. रामविलास पासवान गुजरात के बारे में लिखते हैं कि अगर गुजरात में कांग्रेस ने अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों को साथ लिया होता तो नज़ारा कुछ और होता. कांग्रेस के अहम के कारण यह संभव नहीं हो सका. गुजरात दंगों में अल्पसंख्यकों और दलितों को आमने-सामने कर दिया गया था. लेकिन कांग्रेस को समझ लेना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता की खातिर त्याग की तत्परता एकतरफा नहीं चल सकती है. उत्तर प्रदेश विधान परिषद चुनाव में कांग्रेस के रवैए से जिस तरह भाजपा प्रत्याशी जीता था, उससे धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखने वालों को बहुत अटपटा लगा था. कांग्रेस को अपना यह रवैया बदलना होगा. कांग्रेस ने जिस तरह से गुजरात में सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड खेला, उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी. कीचड़ से कीचड़ साफ नहीं होता. धर्मनिरपेक्षता का अर्थ हिंदू विरोध नहीं होता. कांग्रेस को धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ अपनी छवि दलितों एवं ग़रीबोन्मुख बनानी होगी. गुजरात में दलित आदिवासी क्यों भाजपा के मोहरे बने? कांग्रेस अभी तक दलितों, पिछड़ों एवं समाज के कमज़ोर वर्गों के दिलों को जीतने में क्यों असफल रही है? इन बातों पर उसे गंभीरता से चिंतन करना चाहिए.
रामविलास पासवान की छवि एक दलित और सेकुलर नेता की है. उनके समर्थकों में दलितों के अलावा सबसे ज्यादा अल्पसंख्यक हैं. उन्होंने अपनी किताबों में कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल ही नहीं उठाया, बल्कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता को तार-तार कर दिया. उनके हमले तीखे हैं. उन्होंने अपने लेखों में यही साबित करने की कोशिश की है कि जब मामला सांप्रदायिकता से जुड़ा होता है तो कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में कोई फर्क़ नहीं है. दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. बाबरी मस्जिद पर दिए गए तर्क मुसलमानों को ज़्यादा समझ में आएंगे, जो कांग्रेस के लिए घातक हो सकता है. रामविलास पासवान कांग्रेस पर यह आरोप लगाते हैं कि मीडिया में साठगांठ करके और धन देकर कांग्रेस पार्टी अपनी इमेज बनाती है. वह लिखते हैं कि मीडिया को कांग्रेस पसंद है, क्योंकि मीडिया जानता है कि कांग्रेस की नीति दोगली है. बातें की जाती हैं सामाजिक न्याय एवं धर्मनिरपेक्षता की, लेकिन ज़ेहन में भरा है सांप्रदायिकता और जाति विष. अख़बार के मालिक कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं, बड़े-बड़े व्यापारी हैं, उनको भी व्यापार करना है तो थोड़ा-बहुत सरकार को तो ख़ुश करना ही पड़ता है. मीडिया की वजह से ही कांग्रेस लोगों में भ्रम फैलाने में कामयाब रहती है. रामविलास पासवान लिखते हैं, कांग्रेस नारे बराबर देती रही है. उसे जनता को नारों के भ्रम में फंसाने में कई बार कामयाबी भी हासिल हुई है. लेकिन धीरे-धीरे लोग अब समझने लगे हैं कि कांग्रेस जब परेशानी में होती है, तब ग़रीबों, वंचित वर्गों एवं अल्पसंख्यक वर्गों की बात करती है और जब सत्ता में होती है, तब पूंजीपतियों तथा समाज में प्रभुत्व रखने वाले वर्गों से गठजोड़ कर ग़रीबों, दलितों, पीड़ितों को सताती है.
रामविलास पासवान बिहार के बारे में लिखते हैं कि बिहार में जो कुछ हो रहा है, उसकी ज़िम्मेदारी जितनी लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल पर है, उतनी ही कांग्रेस पर भी है. लालू के शासन के दौरान कांग्रेस ने बिहार की स्थिति पर अपनी आंख-कान बंद कर लिए थे. राजनीति की एक दिशा होती है. यह लाइन मुद्दों पर हो या सिद्धांतों पर, परस्पर हर जगह, हर परिस्थितियों में एक होनी चाहिए. किसी भी राजनीतिक दल की जनता के बीच इसी आधार पर विश्वसनीयता क़ायम होती है. मौक़े और निजी हितों को सर्वोपरि बनाकर कहीं कुछ और कहीं कुछ का नज़रिया अपनाने से क्षणिक लाभ ज़रूर मिल जाए, पर दूरगामी नतीजे घातक होते हैं. कांग्रेस की आज जो गति है, वह इसी का नतीजा है. रामविलास पासवान लिखते हैं कि कांग्रेस कुछ प्रदेशों में ही सिमट कर रह गई. उन प्रदेशों में, जहां जनता के समक्ष विकल्प नहीं है. मतलब यह कि कांग्रेस पार्टी विचारधारा की दृष्टि से बिल्कुल खत्म हो गई. कांग्रेस इसलिए कुछ राज्यों में चुनाव जीतती है, क्योंकि उन राज्यों में विकल्प नहीं है.
यह दोनों किताबें बहुत पहले लिखी गई हैं, लेकिन बाज़ार में नहीं थीं. तब रामविलास पासवान कांग्रेस के साथ थे. यूपीए की पहली सरकार में मंत्री थे. आज परिस्थिति बदली हुई है. भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड गठबंधन के हाथों बिहार में रामविलास पासवान की पार्टी बुरी तरह पराजित हुई. रामविलास पासवान की हार के लिए कांग्रेस भी ज़िम्मेदार है. महंगाई और घोटालों के बीच फंसी कांग्रेस पार्टी अकेली नज़र आ रही है. यूपीए में शामिल दल भी अब घबरा गए हैं. सरकार की नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं. ऐसे में रामविलास पासवान की किताबों का चोरी-छुपे बाज़ार में आना कोई संयोग नहीं हो सकता. कहीं कोई राजनीतिक खिचड़ी पक रही है. कहीं ये किताब ग़ैर कांग्रेस और ग़ैर भाजपा गठबंधन की नई धुरी बनने का ऐलान तो नहीं हैं. रामविलास पासवान की दोनों किताबों का मतलब तो यही निकलता है कि उन्होंने कांग्रेस से हमेशा के लिए रिश्ते खत्म कर लिए हैं. देखना यह है कि रामविलास पासवान की दलीलों का कौन समर्थन करता है और कौन कांग्रेस के साथ खड़ा होता है. वैसे राजनीति का खेल बड़ा निराला होता है. इस खेल में अच्छी चाल उसे कहा जाता है, जिसमें चित भी मेरी और पट भी मेरी होती है. रामविलास पासवान ने किताब को बाज़ार में लाकर एक चाल चली है. राजनीति अगर कोई करवट लेती है तो इसका श्रेय इन किताबों को जाएगा और अगर कुछ नहीं हो सका तो रामविलास पासवान यह कह सकते हैं कि मैंने तो स़िर्फ एक किताब लिखी थी.