कनिष्क सिंह जैसे आदमी को जिस आदमी के पास राजनीति का कोई अनुभव नहीं था, उसे सारी व्यवस्था सौंपकर कांग्रेस ने अपने लिए आत्महत्या का सामान ख़ुद इकट्ठा कर लिया. सवाल यह है कि क्या कनिष्क सिंह ये सारे फैसले ख़ुद कर रहे थे या सारे फैसले राहुल गांधी की इच्छा अनुसार ही कर रहे थे. राहुल गांधी को शायद लगता था कि उत्तर प्रदेश में जनता उनका चेहरा देखकर उनके साथ खड़ी हो जाएगी.
राहुल गांधी का प्रोग्राम किस तरह बनेगा, उनकी सभा कहां होगी, इसका फैसला कनिष्क सिंह करते थे. किसको कितना पैसा जाना है, इसका फैसला कनिष्क सिंह करते थे. मीडिया में किसको कितना दिया पैसा जाना है और किस मीडिया से क्या कहलवाना है, राज बब्बर तय करते थे. कैंपेन का मैनेजमेंट श्रीप्रकाश जायसवाल के हाथ में था. इस टीम को यह पता भी नहीं चला कि मीडिया के जिन लोगों को उन्होंने पैसा दिया, वे उनकी मीटिंग तो दिखा रहे हैं. ये टेलीविजन पर राहुल गांधी का चेहरा देखकर खुश होते थे. ये मीडिया से स़िर्फ यह अनुरोध करते थे कि सभा की भी़ड न दिखाई जाए, क्योंकि भी़ड नहीं होती थी. मीडिया वालों ने जमकर पैसा लिया, ऑफिशियली पैसा लिया. पैसा इस शर्त पर लिया कि ठीक है हम स़िर्फ चेहरा दिखांएगे, भी़ड नहीं. कनिष्क सिंह ने जो राहुल गांधी के आंख, कान और नाक हैं. उन्होंने ये सोचा कि भी़ड नहीं दिखाएंगे, राहुल गांधी के तेवर दिखाएंगे तो लोग राहुल गांधी को वोट दे देंगे. शायद ये ग़ैर राजनीतिक सोच की पराकाष्ठा थी और इस पराकाष्ठा ने कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में उस जगह पहुंचा दिया, जहां से अगले साल होने वाले या इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव को कांग्रेस जीत सकेगी, लगता नहीं है. उन राज्यों के कार्यकर्ताओं की हिम्मत उत्तर प्रदेश कांगे्रस के नतीजों ने तो़ड दी. हद तो तब हो गई, जब राज बब्बर ने फिरोजाबाद में ज़िला कांगे्रस कमेटी पर अपने आदमी को नोमिनेट करवाया, ल़डकर करवाया और वह चुनाव सेपहले ही समाजवादी पार्टी में चला गया.
लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में सांसदों और विधायकों ने कहा कि प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन होना चाहिए. रीता बहुगुणा की जगह किसी और को अध्यक्ष बनाया जाए, लेकिन कांग्रेस हाईकमान नहीं मानीं. दरअसल, रीता बहुगुणा का किसी पर कोई असर नहीं पड़ रहा था, न ही वह संगठन को मज़बूत कर पा रही थीं. कांग्रेस ने स्थानीय नेताओं का इस्तेमाल नहीं किया, चाहे वह संजय सिंह रहे हों या प्रमोद तिवारी. सलमान ख़ुर्शीद और बेनी प्रसाद के बयानों ने लोगों को कांग्रेस से दिमाग़ी तौर पर दूर कर दिया उनको लगा कि केंद्र के ज़िम्मेदार मंत्री जिस तरह से बयानबाज़ी कर रहे हैं, उसे इस प्रदेश में ग़ैर ज़िम्मेदारी का बयान माना गया. मुसलमानों को लगा कि उन्हें लॉलीपॉप दिया जा रहा है. जो उन्हें 27 प्रतिशत में मिल रहा था, अब उससे भी कम मिलेगा. दूसरे वर्गों को लगा कि यह तो स़िर्फ मुस्लिम आरक्षण की बात कर रहे हैं. समाज में बाक़ी लोगों की बात नहीं कर रहे हैं. जो पिछ़डे नहीं हैं, मुसलमान नहीं हैं, लेकिन इसी प्रदेश में रहते हैं और वोटर हैं, उनकी बात नहीं कर रहे हैं. इसलिए वे उनसे दूर चले गए. कांग्रेस ने बैकवर्ड कार्ड खेला और कांग्रेस ने यह नहीं समझा कि बैकवर्ड का अकेला सिंबल मुलायम सिंह हैं. बेनी प्रसाद वर्मा को उन्होंने सिंबल बनाने की कोशिश की, लेकिन बेनी प्रसाद वर्मा सिंबल नहीं बन सकते थे, क्योंकि बैकवर्ड के बारे में समझ कांग्रेस में नहीं थी. बेनी प्रसाद वर्मा बैकवर्ड की तमाम जातियों के बीच में एक जाति के हैं. वह भी अपनी जाति के अकेले नेता नहीं हैं. अपना दल, जिसके नेता सोने लाल पटेल थे, जिनका निधन हो गया है. अब उनकी बेटी और उनकी पत्नी उस समाज में घूमती हैं, जिस समाज से बेनी प्रसाद वर्मा आते हैं. नतीजा दिखाई पड़ा कि पिछ़डों को टिकट देना कांग्रेस के लिए महंगा पड़ गया. पिछले चुनाव में बैकवर्ड कांग्रेस की नाक के नीचे से भाजपा से निकलकर बसपा में चला गया. मज़े की बात यह है किइस बार बसपा से निकलकर भाजपा में चला गया. कांग्रेस को इसका कोई फायदा नहीं हुआ. कांग्रेस वहीं की वहीं खड़ी रही और अपने पुराने वोट बैंक को अपने पास लाने के लिए कुछ नहीं कर पाई. दरअसल, कांग्रेस के पास कोई सोच ही नहीं है.
अन्ना के आंदोलन ने कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी को प्रभावित किया. अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जिसका मज़ाक़ सारे राजनीतिक दलों ने उड़ाया. एक तऱफ उसने कांग्रेस का वोट कम किया और दूसरी तऱफ बहुजन समाज पार्टी का वोट कम किया. ये वोट विकल्प की तलाश में चूंकि तीसरा विकल्प स़िर्फ और स़िर्फ समाजवादी पार्टी थी, उसके पास चला गया. कांग्रेस ने अपने भीतर कोई दलित या पिछ़डा नेता पैदा नहीं किया. बाहर से आए बेनी प्रसाद वर्मा को उसने बैकवर्ड चेहरा बना लिया. बाटला हाउस गोली कांड का जिस तरह फायदा दिग्विजय सिंह उठाना चाहते थे, बाक़ी बयानबाज़ियों के बीच में वह तरीक़ा दिग्विजय सिंह के लिए भारी पड़ गया. दिग्विजय सिंह को जहां मुसलमानों की रोज़ी-रोटी के सवाल को उठाना चाहिए था, वहां उन्होंने मुसलमानों के भावनात्मक सवाल को उठाने की कोशिश की. मुसलमानों के मन में यह सवाल उठा कि अगर सोनियां गांधी रोईं, जैसा सलमान ख़ुर्शीद ने सबको बताया. क़ानून मंत्री और दिग्विजय सिंह बाटला हाउस कांड की निंदा करते हैं, तो जो लड़के बंद हैं, उन्हें क्यों नहीं छुड़वाते हैं. आपकी सरकार है, आपकी पुलिस ने केस किया है. ये सारे बयान कांग्रेस के लिए जानलेवा साबित हुए हैं.
ऐसे क़िस्से भी सामने आए, जिनकी टिकट बदली, उन्होंने आकर कहा कि हमने पैसे दिए और हम टिकट लेकर चले आए. सबसे ज़्यादा आरोप रीता बहुगुणा पर लगे और उसके बाद कई नेताओं पर ऐसे आरोप लगे. इन आरोपों के बारे में किसी के पास सबूत नहीं हैं, स़िर्फ कांग्रेस कार्यकर्ताओं की बातें हैं, जो यह कह रहे हैं कि पैसे लेकर टिकट दिए गए. कुछ कांग्रेस नेताओं का तो यह भी कहना है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने 30 प्रतिशत टिकटें पैसे लेकर दी हैं. ये वे लोग हैं, जिन्हें चुनाव में कम वोट मिलें हैं, जिनकी ज़मानत ज़ब्त हुई है. कुछ लोग यह भी दावा कर रहे हैं कि जिस पर मुझे कोई विश्वास नहीं है कि कनिष्क सिंह ने 50-50 लाख रुपये लेकर आ़खिरी समय में कुछ टिकटें बदली हैं. इस चुनाव में कांग्रेस की तऱफ से जो सबसे महत्वपूर्ण आदमी नज़र आया, वह न तो सोनिया गांधी थीं और न राहुल गांधी थे, वह कनिष्क सिंह थे. यहीं पर कनिष्क सिंह, अहमद पटेल और जनार्दन द्विवेदी जैसे लोगों के व्यक्तित्व को समझना चाहिए. जनार्दन द्विवेदी या अहमद पटेल राजनीति की नब्ज़ जानते हैं. ये लोगों की ताक़त जानते हैं, लोगों की कमज़ोरी जानते हैं. कौन कहां पर कांग्रेस नेता है, उसे जानते हैं. स़िर्फ ये दोनों लोग कांग्रेस को ही नहीं जानते, बल्कि विपक्ष को भी जानते हैं. सालों साल उन्होंने विपक्षी नेताओं को हैंडल किया है. दूसरे शब्दों में कहें तो डील किया है. चुनाव का इतना महत्वपूर्ण मौक़ा और इन दोनों नेताओं को मोतीलाल वोहरा सहित किनारे बैठा देना सबसे बड़ी ग़लती थी और कनिष्क सिंह जैसे आदमी को जिस आदमी के पास राजनीति का कोई अनुभव नहीं था, उसे सारी व्यवस्था सौंपकर कांग्रेस ने अपने लिए आत्महत्या का सामान ख़ुद इकट्ठा कर लिया.
सवाल यह है कि क्या कनिष्क सिंह ये सारे फैसले ख़ुद कर रहे थे या सारे फैसले राहुल गांधी की इच्छा अनुसार ही कर रहे थे. राहुल गांधी को शायद लगता था कि उत्तर प्रदेश में जनता उनका चेहरा देखकर उनके साथ खड़ी हो जाएगी. फिर एक झटके में सालों साल राजनीति में अपनी ज़िंदगी बिता चुके, कांग्रेस के लिए अपना ख़ून-पसीना एक कर चुके लोगों को एक साथ किनारे कर देंगे. जवाब कांग्रेस के लोग दे सकते हैं. लेकिन इस चुनाव में जो सबसे दुखद बात हुई, वह यह कि प्रियंका गांधी का तिलिस्म टूट गया. मैं दुखद इसलिए कहूंगा, क्योंकि कांग्रेस के बीच में जो एक ध्रुव तारा था, लोगों को लगता था कि प्रियंका गांधी आएंगी और पार्टी को जादू की छड़ी से सत्ता में ले आएंगी. लेकिन प्रियंका गांधी इस चुनाव में जिस तरीक़े से विफल हुईं, उसकी मिसाल दूसरी नहीं मिलेगी. जब वह रायबरेली गईं तो महिलाओं ने पूछा कि अब तीन साल बाद आई हो, और तीन साल बाद ही आओगी. प्रियंका गांधी का चेहरा स़फेद हो गया. वह सभा पूरी नहीं कर पाईं. देश में प्रियंका गांधी नाम का जादू समाप्त हो गया. यहीं पर सोनिया गांधी के उस बयान की बात करेंगे, जिसमें बीते सात मार्च उन्होंने हार का कारण ग़लत टिकट वितरण बताया. यह ग़लत टिकट वितरण किसने किया. मुझे मेरा इंवेस्टिगेशन बताता है कि यह ग़लत टिकट वितरण राहुल गांधी ने किया. राहुल गांधी के हां करने के बाद कनिष्क सिंह अपने छह लोगों के साथ वह सूची स्क्रीनिंग कमेटी को भिजवाते थे, जो स़िर्फ वाह-वाह करती थी. इतना ही नहीं रायबरेली, अमेठी और सुलतानपुर में जहां कांग्रेस 100 प्रतिशत हार गई. उसका ज़िम्मा किसके सिर है. अगर ग़लत टिकट वितरण हुआ है, तो अमेठी और रायबरेली में किसने टिकट बांटे. वे टिकट अगर सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने नहीं बांटे, तो किसने बांटे. हां, एक व्यक्ति हैं, जिनका नाम किशोरी शर्मा है. वह सोनिया गांधी और राहुल गांधी के प्रतिनिधि है. यह वहां पर तभी जाते हैं, जब सोनिया गांधी या राहुल गांधी को अपने चुनाव क्षेत्र में जाना पड़ता है. इनके कहने का मतलब सोनिया गांधी और राहुल गांधी का कहा होता है. जब सोनिया गांधी और राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र में सीटें हारी जा सकती हैं, तो इस हार का ज़िम्मा कांग्रेस अध्यक्ष लेंगी या रायबरेली का सांसद लेगा या अमेठी का सांसद लेगा, जो देश का होने वाला प्रधानमंत्री है. सोनिया गांधी का यह कहना कि महंगाई एक कारण है, भी ग़रीबों की तकली़फ का मज़ाक़ बनाना है. सोनिया गांधी को कोई यह नहीं बता पाया कि महंगाई और भ्रष्टाचार देश में कितना बड़ा सवाल बन गया है. राहुल गांधी के व्यवहार से सारे कांग्रेसी नेता परिचित हैं. बड़े से बड़ा नेता राहुल गांधी के पास जाता था और राहुल गांधी एक ही बात कहते थे कि कनिष्क इनकी बात सुन लो, कनिष्क नोट इट. कनिष्क सुन लेते थे और नोट करते थे. वह नेता वहां से गदगद या पिटा हुआ लौट जाता था. राजनीतिक व्यवहार कुशलता और राजनीतिक शैली का अभाव राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में हार का कारण बन गया. यही राजनीतिक कुशलता का अभाव मायावती के लिए भी हार का कारण बन गया. मायावती ने अपराध नियंत्रण किया, लेकिन वह लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल नहीं हो पाईं कि वह सर्वजन की नेता हैं. वह सर्वजन को अपमानित करने वाली नेता के रूप में लोगों के सामने आ गईं. मायावती से मायावती का वर्कर्स इन पांच सालों में मिल ही नहीं पाया. उनसे कॉ-ओर्डिनेटर्स मिलते थे, जिन्होंने प्रदेश में भ्रष्टाचार को सांगठनिक रूप दिया. मायावती का व्यवहार उनकी गले की हड्डी बन गया. भारतीय जनता पार्टी के लिए स़िर्फ इतना कहना चाहेंगे कि उसके पास अगर संजय जोशी नहीं होते तो, वह तीन सीटों की जगह और तीस सीटें कम पाती. चूंकि भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में अपने सवालों को, अपने नेताओं को, अपनी विचारधारा को, सामने नहीं रख पाई. सांप्रदायिक है, सांप्रदायिक नहीं है, राम मंदिर है, राम मंदिर नहीं है. मुसलमान है, मुसलमान नहीं है, आरक्षण है, आरक्षण नहीं है, वह इसी द्वंद्व में उलझ गई. हर पार्टी के लिए सोचने का समय है, लेकिन सारी पार्टियों में मुझे लगता है कि अकेली भारतीय जनता पार्टी है, जो इस हार से सबक़ लेगी और इसे अपने संगठन को निखारने का शायद कारण बनाएगी. कांग्रेस कोई सीख लेती नज़र नहीं आती और बहुजन समाज पार्टी तो सीख लेगी ही क्या.
आख़िर में कांग्रेस का आ़खिरी कारनामा, बाटला हाउस कांड पर उर्दू सहारा के संपादक अजीज़ बर्नी द्वारा लिखी गई किताब चुनाव 2012 कांग्रेस उत्तर प्रदेश चुनाव में बांटती नज़र आई. कांग्रेस को लगा कि अगर वह अजीज़ बर्नी की किताब बांटेगी, तो उसे मुसलमानों का वोट मिल जाएगा. अकसर यह माना जाता है कि जो आपका विरोधी रहा है, अगर आप उसकी कोई चीज़ बांटते हैं तो लोग बिना पढ़े यह मान लेंगे कि वह आपके पक्ष में लिखा हुआ बयान है. अजीज़ बर्नी साहब ने भी इस किताब को बर्नी पब्लिकेशन हाउस के तहत हिंदी और उर्दू में छपवाया है. कांग्रेस ने इसकी लाखों प्रतियां ख़रीदी हैं. अजीज़ बर्नी साहब ने जो कांग्रेस के बाटला हाउस कांड में लगातार गालियां देने वालों में रहे हैं. उन्होंने क्यों इसकी इतनी प्रतियां छपवाईं और क्यों कांग्रेस को दीं. कांग्रेस खुलेआम कहती है कि इसकी लाखों प्रतियां ख़रीदी और लोगों में बांटीं. इसके पीछे क्या है, यह तो अजीज़ बर्नी साहब जानें और कांग्रेस जाने, पर इसका फायदा कांग्रेस को बिल्कुल नहीं हुआ, बल्कि इसका नुक़सान ही हुआ. यह भी शायद राहुल गांधी और कनिष्क ने किया, क्योंकि इस किताब के तीस लफ्ज़ नामक पहले लेख में जिसे अजीज़ बर्नी साहब ने लिखा है कि 11 नवंबर, 2011 को 11 बजे यानी ग्यारह, ग्यारह, ग्यारह को उनकी राहुल गांधी से बारह तुग़लक लेन पर मुलाक़ात एक ऐसे मौके पर हुई, जब वह अपने परिवार के साथ ख्वाजा की दरगाह पर अजमेर जा रहे थे. उन्होंने दूसरे पैराग्राफ में लिखा है कि यह एक यादगार मुलाक़ात थी और कई लिहाज़ से अहम थी. उन्होंने बिल्कुल सही लिखा, क्योंकि उसी मुलाक़ात में शायद इस किताब की लाखों प्रतियां खरीदने का फैसला हुआ होगा. कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए़ खुद को तैयार कर पाती या नहीं, यह लाख टके का सवाल है. इसका जवाब अब सोनिया गांधी और राहुल गांधी को कम, कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ज़्यादा देना है, क्योंकि कहीं कांग्रेस कार्यकर्ता पहली बार नेतृत्व के ख़िलाफ आवाज़ उठाना न शुरू कर दें.