जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी गठबंधन जीत की स्थिति में इसलिए है, क्योंकि बिहार की जनता यह मानती है कि नीतीश कुमार की सरकार लालू यादव की सरकार से का़फी बेहतर है. उसे लगता है कि पिछले पांच सालों में संतोषजनक विकास हुआ है.
बिहार का चुनाव हमेशा से जटिल रहा है. विजेता कौन होगा, यह रिजल्ट आने के बाद ही पता चल पाता है. चौथी दुनिया के सर्वे के मुताबिक़, जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन की सीटें घटेंगी, लेकिन वह बहुमत साबित करने में कामयाब हो जाएगा. राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी के गठबंधन की सीटें पिछले चुनाव से ज़्यादा होंगी, लेकिन सबसे बड़ा फायदा कांग्रेस को होने वाला है. पिछले चुनाव की तुलना में इस बार उसके द्वारा दो गुना सीटें जीतने की उम्मीद है. वहीं अन्य दलों और स्वतंत्र उम्मीदवारों को लोगों ने नकार दिया है, उनकी हालत पहले जैसी ही रहेगी. बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में राज्य की जनता किसे देखना चाहती है. इस दौड़ में नीतीश कुमार सबसे आगे हैं. लालू यादव इस दौड़ में का़फी पीछे चल रहे हैं.
जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी गठबंधन जीत की स्थिति में इसलिए है, क्योंकि बिहार की जनता यह मानती है कि नीतीश कुमार की सरकार लालू यादव की सरकार से का़फी बेहतर है. उसे लगता है कि पिछले पांच सालों में संतोषजनक विकास हुआ है. उर्दू टीचरों की बहाली की वजह से मुसलमानों में नीतीश सरकार की लोकप्रियता बढ़ी है. भारतीय जनता पार्टी की वजह से मुसलमान जनता दल यूनाइटेड को वोट नहीं देते हैं, लेकिन चौथी दुनिया के सर्वे के मुताबिक़, मुसलमानों का भी वोट जदयू-भाजपा गठबंधन को मिलेगा. इसके अलावा लोगों की राय यह है कि पिछले पांच सालों में अपराध कम हुआ है. यही वजह है कि नीतीश सरकार को लोगों का ज़्यादा समर्थन है. लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे भी हैं, जिन्हें लेकर बिहार की जनता सरकार से नाराज़ है. जैसे बिजली की समस्या. ज़्यादातर लोगों का मानना है कि पिछले पांच सालों में बिजली की समस्या बद से बदतर हो गई है. साथ ही भ्रष्टाचार को लेकर भी लोग निराश हैं. उन्हें लगता है कि नीतीश सरकार के दौरान अधिकारी पहले से ज़्यादा भ्रष्ट हो गए हैं. कुछ लोगों ने यह भी बताया कि सरकारी योजनाओं में अब गांव के लोग भी भ्रष्टाचार के मायाजाल के हिस्सेदार हो गए हैं. लोगों का मानना है कि राज्य में सड़कें तो बनी हैं, लेकिन उद्योग-धंधों की दिशा में कोई सुधार नहीं हुआ है, जिसकी वजह से रोज़गार के लिए बिहार से ग़रीबों का पलायन जारी है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि नीतीश सरकार के प्रदर्शन पर लोगों की प्रतिक्रिया मिली-जुली है. जदयू-भाजपा सरकार ने अच्छे काम तो किए हैं, लेकिन कई क्षेत्रों में वह पिछड़ गई है, जिसका खामियाज़ा नीतीश कुमार को भुगतना पड़ सकता है. यही वजह है कि इस सर्वे में जदयू-भाजपा गठबंधन की सीटें कम हुई हैं.
इसके अलावा बिहार में जाति की भूमिका मुख्य हो जाती है. सारे दल अपने हर चुनाव क्षेत्र के समीकरण को ध्यान में रखकर उम्मीदवारों का चयन करते हैं. पिछली बार जदयू-भाजपा गठबंधन को सवर्णों का भरपूर समर्थन मिला था. चौथी दुनिया के सर्वे के मुताबिक़, इस बार सवर्णों का एक बड़ा हिस्सा इस गठबंधन से नाराज़ है. अगर यह नाराज़गी मतदान तक बरकरार रहती है तो यह नीतीश सरकार के लिए एक बड़ा झटका होगा. इसके अलावा अन्य पिछड़े वर्ग में भी जदयू-भाजपा गठबंधन के खिला़फ नाराज़गी है. सर्वे के दौरान लोगों ने बताया कि नीतीश सरकार ने जो कुछ किया, महादलितों के लिए किया है, वह पिछड़े वर्ग को भूल गई. सर्वे के दौरान यह बात भी सामने आई कि जदयू-भाजपा गठबंधन से लोगों की नाराज़गी तो है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता है कि नाराज़ लोग राजद-लोजपा का समर्थन करेंगे. इसकी वजह यह है कि लोग अब भी 15 साल के राजद शासन को भूल नहीं पाए हैं.
चौथी दुनिया के सर्वे के मुताबिक़, राष्ट्रीय जनता दल-लोक जनशक्ति पार्टी गठबंधन दूसरे नंबर पर रहेगा. यह गठबंधन लोगों में विश्वास पैदा नहीं कर सका है. लोग राजद के 15 साल के शासन से त्रस्त हैं. यही एक ऐसा फैक्टर है, जो लालू यादव और रामविलास पासवान के सारे दांव निरस्त कर सकता है. वैसे इस गठबंधन को यादवों, मुसलमानों, पासवानों और दलितों का भरपूर समर्थन मिलेगा, लेकिन यह समर्थन सरकार बनाने के लिए पर्याप्त नहीं होगा. कांग्रेस इस गठबंधन के परंपरागत वोट बैंक में सेंध मार सकती है. कांग्रेस को युवाओं और मुसलमानों का समर्थन मिलेगा. वहीं कांग्रेस पिछले चुनाव के मुक़ाबले इस बार जदयू-भाजपा के भूमिहार एवं ब्राह्मण वोटों में भी सेंध मार सकती है. राहुल गांधी का बिहार चुनाव पर क्या असर होगा, इस सवाल पर 44 फीसदी लोगों की प्रतिक्रिया यह थी कि उनका कोई असर बिहार में नहीं होने वाला है, लेकिन 36 फीसदी लोगों ने कहा कि राहुल का असर होगा. अब देखना दिलचस्प होगा कि राहुल गांधी चुनाव के दौरान बिहार के कितने दौरे करते हैं और उनका क्या असर होगा. सर्वे के मुताबिक़, कांग्रेस के लिए यह चुनाव राहत का संदेश लेकर आएगा. पिछले 20 सालों से कांग्रेस इस राज्य में कमज़ोर हुई है. इस बार राहुल गांधी के प्रयासों की वजह से सीटों में इज़ा़फा होने की उम्मीद है.
बिहार का चुनाव छह चरणों में होने वाला है. चौथी दुनिया का सर्वे जिस समय किया गया, उस व़क्त मुख्य उम्मीदवारों की घोषणा नहीं हुई थी. चुनाव में लोग अपने क्षेत्र के उम्मीदवार को वोट देते हैं, जिसमें स्थानीय मुद्दे, उम्मीदवार का व्यक्तित्व और व्यवहार आदि बिंदु बहुत मायने रखते हैं. इसके अलावा बिहार के चुनावों को पढ़ पाना इसलिए भी जटिल हो जाता है, क्योंकि यहां मुद्दे से ज़्यादा जातिगत स्तर पर वोटिंग होती है. बिहार की राजनीति का मिजाज़ ही कुछ ऐसा है कि यहां रातोरात हवा बदल जाती है. इसलिए चौथी दुनिया के शुरुआती सर्वे में नीतीश सरकार वापसी की दिशा में है, लेकिन हार और जीत का अंतर इतना कम है कि थोड़ी सी चूक या फिर चुनाव के दौरान हुई छोटी सी ग़लती नीतीश सरकार को विपक्ष में भी बैठा सकती है. जहां तक बात लालू यादव और रामविलास पासवान की है तो इनका प्रदर्शन पिछले चुनाव से बेहतर रहने की आशा है. चौथी दुनिया के शुरुआती सर्वे का नतीजा आपके सामने है. कुछ दिनों के बाद इन नतीजों में क्या बदलाव होता है, उसके बारे में भी हम आपको अपडेट करते रहेंगे.
सर्वे का मकसद
चौथी दुनिया के इस सर्वे का मक़सद राजनीतिक रूप से देश के सबसे संवेदनशील राज्यों में से एक बिहार में विधानसभा चुनावों के महत्व को समझना है. इसके साथ-साथ हमने यह भी जानने की कोशिश की है कि आने वाले चुनावों में कौन से मुद्दे ज़्यादा अहम हो सकते हैं? सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक महत्व के मुद्दों पर मतदाताओं का क्या रुख़ है और उनके इस मिजाज़ का ऩफा-नुक़सान किन राजनीतिक दलों को हो सकता है?
हमारा यह सर्वे 20 से 29 सितंबर, 2010 के बीच किया गया. जिस दौरान हमारी टीम राज्य के अलग-अलग ज़िलों के हज़ारों मतदाताओं से मिली और उनसे विभिन्न मुद्दों से जुड़े सवाल-जवाब किए. मतदाताओं के जवाबों को ही हमने अपने सर्वे के आधारभूत आंकड़ों के रूप में इस्तेमाल किया. इसके अलावा पिछले चुनावों में मतदाताओं के वोटिंग पैटर्न और चुनाव आयोग के आंकड़ों की भी मदद ली गई. सर्वे में सैंपल के लिए हमने मल्टीस्टेज स्ट्रेटीफाइड रैंडम सैंपलिंग तकनीक की मदद ली.
सर्वे के दौरान हमने इस बात का खास ध्यान रखा कि राज्य के सभी हिस्सों के मतदाताओं के मिजाज़ को अहमियत मिले और इसके लिए हमारी रिपोर्टरों की टीम सभी ज़िलों में गई. मतदाताओं का चुनाव करते समय भी हमने ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के मतदाताओं को एक समान प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की. इन मतदाताओं का ताल्लुक समाज के विभिन्न तबकों से है. इनमें महिलाएं, युवा, दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग और सवर्ण आदि सभी शामिल थे. साथ ही यह प्रयास भी किया गया कि राजनीतिक महत्व वाले मुद्दों के साथ-साथ स्थानीय मुद्दों को भी तवज्जो मिले. चुनावी सर्वे की एक आम खामी यह होती है कि वोटों के लिए मची मारामारी के बीच बिजली, पानी एवं सड़क जैसे स्थानीय मुद्दों को किनारे कर दिया जाता है, लेकिन हमने मतदाताओं से इनसे संबंधित सवाल भी पूछे और एक खास बात जो उभर कर सामने आई, वह यह कि इन मुद्दों का भी वोटरों के मिजाज़ पर असर पड़ता है.
मतदाताओं से पूछे जाने वाले सवालों का चुनाव करते समय हमने अलग-अलग मुद्दे उठाए, ताकि उनका मिजाज़ भांपने में सहूलियत हो. मतदाताओं का जवाब जानने के लिए सवालों की संरचना में सभी तरह के विकल्प उपलब्ध कराने की कोशिश की गई. इन सवालों में राजनीतिक व्यवहार से संबंधित कुछ सामान्य प्रश्न शामिल थे, वहीं राष्ट्रीय और स्थानीय महत्व के विविध पक्षों को भी शामिल करने की कोशिश की गई. अपने सर्वे में हमने जातीय समीकरणों का भी ध्यान रखा. बिहार की राजनीति की एक खास बात यह है कि तक़रीबन हर राजनीतिक दल का अपना एक जातिगत प्रतिबद्ध वोट बैंक है, जो आम तौर पर उसी दल के पक्ष में मतदान करता है. इस प्रतिबद्ध वोट बैंक के वोटिंग पैटर्न में थोड़ा-बहुत बदलाव भी नतीजों पर बड़ा असर डालता है. चुनावी क्षेत्र में जाकर मतदाताओं से मिली सर्वे टीम को इसके लिए खास तौर से प्रशिक्षित किया गया, जिसमें उन्हें प्रश्न पूछने के तरीक़ों के बारे में बताया गया. साथ ही यह भी बताया गया कि मतदाताओं से सही जवाब कैसे हासिल किया जा सकता है.
अक्टूबर और नवंबर महीने में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं. न केवल राज्य, बल्कि पूरे देश की राजनीति पर इसका असर पड़ सकता है. इसमें कोई शक़ नहीं कि 1990 से 2005 तक राष्ट्रीय जनता दल के शासनकाल में बिहार विकास के रास्ते से पूरी तरह भटक गया था, क़ानून-व्यवस्था नामक कोई चीज नहीं रह गई थी. 2005 के अक्टूबर में जब छह महीने के अंदर राज्य विधानसभा के लिए दूसरी बार चुनाव हुए तो मतदाताओं ने जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन को पूर्ण बहुमत देकर सत्ता तक पहुंचा दिया. इसके बाद लोकसभा के चुनावों में एक बार फिर राजग गठबंधन को बेहतरीन कामयाबी मिली, लेकिन विधानसभा की 18 सीटों के लिए हुए उपचुनाव में मतदाताओं के बदले रुख़ का पहला संकेत मिला. आज हालत यह है कि नीतीश कुमार विकास पुरुष की अपनी छवि के साथ मतदाताओं से वोट मांग रहे हैं तो राजद-लोजपा गठबंधन सोशल इंजीनियरिंग के अपने पुराने हथियार के साथ मैदान में मज़बूती से खड़ा है. इन दोनों गठबंधनों के बीच कांग्रेस भी अपनी दावेदारी पेश कर रही है. इस चुनावी महासमर में कांग्रेस की भूमिका का़फी अहम हो सकती है, क्योंकि अरसे बाद पार्टी अपने पुराने वोट बैंक को दोबारा हासिल करने के लिए ज़ोरदार मशक्कत कर रही है और उसकी कोशिशें यदि थोड़ी-बहुत भी सफल रहती हैं तो दोनों गठबंधनों के लिए रास्ते मुश्किल हो सकते हैं.