देश के मुख्य विपक्षी दल यानी भारतीय जनता पार्टी के अंदरखाने के हालात चिंताजनक हैं. वरिष्ठ नेताओं के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने पार्टी की प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी है. नतीजतन, पार्टी आम आदमी और उसकी समस्याओं से लगातार दूर होती जा रही है. अगर यह स्थिति बरक़रार रही तो वह दिन दूर नहीं, जबकि सरकार के साथ-साथ उसे भी जनता की नाराज़गी का सामना करना पड़ सकता है.
महाभारत की लड़ाई में कौरवों के साथ ज़्यादा बड़े-बड़े योद्धा थे, फिर भी वे युद्ध हार गए. वजह यह थी कि कौरवों की सेना में सेनापति से लेकर कई बड़े-बड़े महारथी तो थे, लेकिन उनमें एकता नहीं थी. युद्ध के दौरान बड़े-बड़े योद्धा एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे थे. भीष्म, कर्ण एवं द्रोणाचार्य जैसे महारथी युद्ध नहीं जीतना चाहते थे. वे तो स़िर्फ राजधर्म का पालन कर रहे थे. दूसरी ओर पांडवों की सेना थी. उनके पास योद्धाओं और सैनिकों की संख्या कम थी, लेकिन वे जीतना चाहते थे. इसलिए पांडव युद्ध जीत गए. भारतीय जनता पार्टी की हालत कौरवों जैसी हो गई है.
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की फौज में अघोषित गृहयुद्ध चल रहा है. हर नेता दूसरे नेता को पीछे छोड़कर अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनना चाहता है. दिल्ली में रहकर मीडिया में बयान देने वाले नेताओं के बीच शीतयुद्ध चल रहा है. पार्टी में हाशिए पर गए जनाधार वाले नेता लड़ रहे हैं. जो लोग पार्टी से बाहर गए हैं, वे गुटबंदी में शामिल हो रहे हैं. कुछ नेता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ मिलकर अपने हिसाब से इस दौड़ में शामिल होना चाहते हैं. भारतीय जनता पार्टी में चल रहे गृहयुद्ध का सबसे बड़ा नुक़सान देश की जनता का हो रहा है. देश में महंगाई है, भ्रष्टाचार है, बेरोज़गारी है, घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं और भारतीय जनता पार्टी खानापूर्ति के लिए संसद में हंगामा कर रही है. जनता की परेशानी के लिए सरकार के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी भी ज़िम्मेदार है. जनता परेशान और नाराज़ है, लेकिन विपक्ष कोई असरदार आंदोलन करने में असफल रहा है. देश की मुख्य विपक्षी पार्टी अपनी ही उलझन में उलझ गई है. अफसोस की बात यह है कि सब कुछ आडवाणी जी के रहते हो रहा है.
संसद में एक अजीबोग़रीब घटना घटी. बात मानसून सत्र की है. एजूकेशनल ट्रिब्यूनल बिल को कपिल सिब्बल ने पेश किया. यह बिल लोकसभा में पास कर दिया गया. लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी ने इस बिल का समर्थन किया. लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज हैं. भारतीय जनता पार्टी का किसी भी मुद्दे पर क्या रुख़ होगा, इस बारे में फैसला वही करती हैं. लेकिन जब यही बिल राज्यसभा में आया तो भारतीय जनता पार्टी ने उसका विरोध कर दिया. राज्यसभा में अरुण जेटली विपक्ष के नेता हैं. एक बिल, एक पार्टी और दो अलग-अलग सदनों में अलग-अलग रुख़. इसका मतलब यह है कि भारतीय जनता पार्टी में इस बिल के ऊपर कोई बहस नहीं हुई. पार्टी का इस बिल पर क्या रुख़ हो, इस पर कोई एकमत नहीं हुआ. इसके अलावा इस घटना से एक बात जगज़ाहिर होती है कि पार्टी के नेताओं में एकमत नहीं है. इस घटना से अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के बीच चल रहा शीत युद्ध सार्वजनिक हो गया. अब सवाल यह है कि अरुण जेटली और सुषमा स्वराज क्यों लड़ रहे हैं.
किसी भी राजनीतिक दल में नेताओं के बीच प्रतियोगिता होना अच्छी बात होती है. यह प्रतियोगिता सकारात्मक हो तो पार्टी के लिए बेहतर है. इससे दल मज़बूत होता है. लेकिन अगर यह प्रतियोगिता नकारात्मक हो जाए, आगे बढ़ने के बजाय एक नेता दूसरे नेता की टांग खींचने लगे, एक-दूसरे के ख़िला़फ साजिश करने लगे तो पार्टी के लिए सबसे ख़तरनाक स्थिति पैदा हो जाती है. चुनाव जीतना तो दूर, पार्टी के अस्तित्व पर ख़तरा मंडराने लगता है. अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए भारतीय जनता पार्टी का उम्मीदवार कौन होगा, इसके लिए पार्टी में अभी से युद्ध शुरू हो गया है. इस पार्टी में कई ऐसे नेता हैं, जो आडवाणी की जगह लेना चाहते हैं. वे अगले चुनाव में प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनना चाहते हैं. इन नेताओं में अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह, मुरली मनोहर जोशी और नितिन गडकरी हैं. आडवाणी के उत्तराधिकारी के लिए भारतीय जनता पार्टी के इन नेताओं में घमासान हो रहा है. ऐसा मालूम पड़ता है कि इन नेताओं के बीच जो शीत युद्ध चल रहा है, उसके सूत्रधार ख़ुद लालकृष्ण आडवाणी हैं.
अटल जी स्वास्थ्य की वजह से राजनीति में सक्रिय नहीं हैं. आडवाणी जी भारतीय जनता पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं. आडवाणी जी देश के सबसे अनुभवी नेता हैं. राजनीति में ख़ुद को कैसे प्रासंगिक बनाए रखना है, यह उनसे बेहतर कोई नहीं जानता है. ऐसा लगता है कि कोई उनकी लीडरशिप को चैलेंज न कर सके, इसलिए उन्होंने पार्टी में शेफ्टी वॉल्व तैयार कर रखा है. इस शेफ्टी वॉल्व में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अनंत कुमार एवं रविशंकर प्रसाद जैसे कई नेता हैं. आडवाणी जी ने पार्टी में इन नेताओं की साख बढ़ाई, लेकिन ये आपस में लड़ रहे हैं, इसलिए इनके बीच का कोई नेता आगे नहीं बढ़ सका. इनके लड़ने से लालकृष्ण आडवाणी का प्रभुत्व बरक़रार रहा. उन्होंने ही सुषमा स्वराज को लोकसभा और अरुण जेटली को राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया. बाक़ी लोगों को पार्टी में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां दीं. आडवाणी के नज़दीक जितने नेता हैं, उनकी ख़ासियत है कि वे मीडिया के ज़रिए राजनीति करने में माहिर हैं. यह सबको मालूम है कि जिन लोगों के कंधों पर आडवाणी जी ने पार्टी की ज़िम्मेदारियां दी हैं, उन्हें अगर अकेले चुनाव लड़ने के लिए छोड़ दिया जाए तो वे एक भी चुनाव नहीं जीत सकते. ये नेता पार्टी के कर्ताधर्ता तो बन गए, लेकिन इनके पास जनाधार नहीं है. भारतीय जनता पार्टी की दिशाहीनता की वजह यही है कि पार्टी में जो डिसिज़न मेकर हैं, उनकी साख जनता में नहीं है. उन नेताओं ने सबसे पहले ग्रासरूट लेवल और जनाधार वाले नेताओं को दरकिनार किया. इसमें वे सफल भी हो गए.
सोचने वाली बात यह है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया. ऐसा लगता है कि आडवाणी जी की यह रणनीति है कि जो भी जनाधार वाले नेता हैं, उन्हें राज्यों में भेज दिया जाए, उन्हें पार्टी में कोई भी निर्णायक भूमिका न दी जाए. राज्य स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के पास मज़बूत नेता हैं. नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, सुशील मोदी, येदुरप्पा और वसुंधरा राजे सिंधिया का अपने-अपने राज्यों में जनाधार है. वे काफी लोकप्रिय हैं, लेकिन पार्टी में उनकी हैसियत नहीं है. आडवाणी जी के आशीर्वाद से दिल्ली मुख्यालय में उन नेताओं का क़ब्ज़ा है, जिनके पास जनाधार नहीं है. ऐसे में जनाधार वाले नेता पार्टी से विमुख होते जा रहे हैं. इस तरह पार्टी में गृहयुद्ध की शुरुआत हो गई. एक तऱफ बिना जनाधार वाले नेता आपस में लड़ रहे हैं और दूसरी तऱफजनाधार वाले नेता दिल्ली के मुख्यालय में बैठे नेताओं से नाराज़ हैं. इस वजह से भारतीय जनता पार्टी का काफी नुक़सान हो रहा है, लेकिन आडवाणी जी को यह लगता है कि अगर मध्यावधि चुनाव हो जाएं तो वह फिर से प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदार बन सकते हैं.
भारतीय जनता पार्टी के कई नेता आडवाणी जी के इस खेल को भलीभांति समझते हैं. अब तो जनाधार वाले नेताओं ने आडवाणी जी की बातों को टालना भी शुरू कर दिया है. चंदन मित्रा एक पत्रकार हैं और राज्यसभा सांसद हैं. आडवाणी जी के बेहद क़रीबी हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में वह आडवाणी जी के निकटतम रणनीतिकारों में से थे. अब उनका टर्म पूरा होने वाला है. ऐसी ख़बर आई कि आडवाणी जी ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को यह संदेश दिया कि चंदन मित्रा को राज्यसभा में आने में मदद कर दीजिए, लेकिन शिवराज सिंह चौहान ने मना कर दिया. उन्होंने यह कहा कि पार्टी के पुराने कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने बीस से चालीस साल तक पार्टी में काम किया है, उन्हें राज्यसभा में जगह देना ज़रूरी है. इससे यह समझा जा सकता है कि पार्टी के अंदर तनाव का माहौल है और वह इस कगार पर आ गया है कि आडवाणी जी की बात को भी राज्यस्तरीय नेताओं ने मना करना शुरू कर दिया है.
उत्तराधिकार की इस लड़ाई में एक अहम किरदार हैं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, जो दिल्ली मुख्यालय में बैठे भारतीय जनता पार्टी के सभी नेताओं की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं. गुजरात में अपनी लोकप्रियता और चुनाव जीतने की क्षमता की वजह से नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सबसे बड़े नेता बनकर उभरे हैं. अरुण जेटली मोदी के दोस्त हैं, उनके केस लड़ते हैं और जब भी गुजरात दंगों के बारे में बात उठती है तो जेटली साहब ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, मीडिया में उनका बचाव करते हैं. लेकिन जेटली के अलावा उनकी भारतीय जनता पार्टी के नेता उन्हें पसंद नहीं करते हैं. एनडीए में शामिल दूसरी पार्टियों के बीच भी मोदी को लेकर विवाद है. गृहयुद्ध का ही नतीजा है कि बिहार चुनाव के दौरान एक बार सुषमा स्वराज ने कह दिया था कि नरेंद्र मोदी का जादू गुजरात में ही चलता है. इस बात को लेकर मोदी ने पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी से भी शिक़ायत की थी. सुषमा स्वराज के इस बयान का जवाब मोदी ने अख़बार में छपे एक विज्ञापन से दिया.
कर्नाटक के एक समर्थक ने अख़बार में एक बड़ा सा विज्ञापन छापा. उसमें लिखा था, मोदी भाजपा के सबसे ज़्यादा भीड़ जमा करने वाले नेता हैं. मतलब यह कि वह सबसे ज़्यादा जनाधार वाले नेता हैं. विज्ञापन में कहा गया कि गुजरात के यशस्वी मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को राज्य में लगातार विजय पताका फहराने पर कर्नाटक की जनता की ओर से कोटि-कोटि बधाई, लगातार विपरीत परिस्थितियों में भी गुजरात पर राष्ट्रवाद की विजय पताका फहराने और राज्य को विकास के नए सोपान पर ले जाने वाले मोदी का हार्दिक अभिनंदन… आइए, भयंकर झंझावातों से जूझ रहे देश को निर्णायक दिशा दीजिए. दरअसल, सुषमा के बयान पर मोदी नाराज़ थे. इस विवाद पर न तो आडवाणी कुछ बोले और न ही नितिन गडकरी. अख़बार में छपे विज्ञापन से मोदी ने दिल्ली में बैठे बड़े नेताओं को यह संदेश दे दिया कि वह स़िर्फ गुजरात के नहीं, राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं और वह भी अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री और आडवाणी जी के उत्तराधिकारी बनने के इच्छुक हैं. पार्टी में सुषमा स्वराज के बयान को लेकर काफी बवाल मचा और बाद में सुषमा ने अपना बयान वापस ले लिया.
बिना जनाधार वाले नेता अगर किसी पार्टी के कर्ताधर्ता बन जाते हैं तो उस पार्टी में किसी भी नए नेता को उभरने का मौक़ा नहीं मिलता. उभरता हुआ नेता साजिश का शिकार हो जाता है. हाल में ही भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर ने श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने के लिए एक आंदोलन छेड़ा. इसके लिए वह लालकृष्ण आडवाणी से मिले और उनकी अनुमति से कोलकाता से श्रीनगर तक की यात्रा शुरू की. शुरू में लोगों को लगा कि इस यात्रा को ज़्यादा सफलता नहीं मिलने वाली है, लेकिन जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बयान के बाद यह यात्रा विवादों में आ गई और पूरे देश का ध्यान इस पर चला गया. मौक़ा देखते ही भारतीय जनता पार्टी के बड़े-बड़े नेता इसमें कूद पड़े. अब भारतीय जनता युवा मोर्चा के नेताओं और कार्यकर्ताओं को लगता है कि अरुण जेटली और सुषमा स्वराज ने यात्रा को हाईजैक कर लिया और अनुराग ठाकुर की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया. जब यात्रा की शुरुआत हुई थी तो सुषमा स्वराज और अरुण जेटली की किसी भी भूमिका की योजना नहीं थी. जब दिल्ली में आडवाणी जी ने इस यात्रा को झंडी दिखाई थी, तब उस कार्यक्रम में न तो जेटली थे और न ही सुषमा स्वराज. एकता यात्रा कोलकाता से शुरू हुई और इसे काफी जनसमर्थन मिलने लगा था. मीडिया में भी इस पर जमकर बहस शुरू हो गई.
उधर कर्नाटक में गवर्नर और मुख्यमंत्री येदुरप्पा के बीच लड़ाई शुरू हो गई. गवर्नर की भूमिका पर सवाल उठाते हुए आडवाणी जी अपने चहेते नेताओं के साथ राष्ट्रपति से मिले. जनता का ध्यान कर्नाटक से हटाने के लिए सुषमा स्वराज और अरुण जेटली एक विशेष हवाई जहाज से जम्मू पहुंच गए. उनके पहुंचते ही इस यात्रा के हीरो अनुराग ठाकुर की भूमिका एक साइड हीरो की हो गई. इसके बाद से यात्रा के बारे में मीडिया में अरुण जेटली और सुषमा स्वराज नज़र आने लगे. यात्रा के बाद हुई प्रेस कांफ्रेंस में अनुराग ठाकुर उपस्थित तो रहे, लेकिन वह एक शब्द भी नहीं बोले. असलियत यही है कि इस यात्रा से उठे विवाद से बिना जनाधार वाले नेताओं ने फायदा उठाने की कोशिश की. अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के जम्मू पहुंचने से दूसरे नेताओं का रास्ता बंद हो गया तो पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह दिल्ली के राजघाट में भूख हड़ताल पर बैठ गए.
भारतीय जनता पार्टी के सामने सुनहरा मौक़ा है. देश की जनता सरकार की नीतियों से त्रस्त है. महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और घोटालों के पर्दाफाश से सरकार बैकफुट पर आ गई है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी इस मौक़े का फायदा नहीं उठा पा रही है. समस्या यह है कि पार्टी देशव्यापी आंदोलन चलाने के पक्ष में नहीं है. इसकी वजह यह है कि दिल्ली के मुख्यालय में जिन्हें यह फैसला लेना है, वे इसे सफल नहीं बना सकते हैं. और, जो लोग इसे सफल बना सकते हैं, उन्हें लगता है कि उनकी मेहनत का फायदा दूसरे लोग उठा ले जाएंगे. इसी असमंजस में भारतीय जनता पार्टी फंसी हुई है कि अगर आंदोलन होगा तो उसका नेतृत्व कौन करेगा. पार्टी का अध्यक्ष ऐसा बना है, जो संघ के इशारे पर काम करता है. एक साल बीत जाने के बाद भी गडकरी के कामकाज करने का तरीक़ा ऐसा है, जिससे लगता है कि उन्हें राष्ट्रीय स्तर की राजनीति का अनुभव नहीं है. वह भाजपा के ऐसे अध्यक्ष हैं, जो कार्यक्रम वग़ैरह में हिस्सा तो ले सकते हैं, लेकिन एक नेता की भांति देश की जनता का नेतृत्व नहीं कर सकते. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ देश की जनता का भी भारी नुक़सान हो रहा है. जिस विश्वास से जनता ने उसे विपक्ष की भूमिका दी, उसे वह सही ढंग से नहीं निभा पा रही है. ऐसे हालात में सरकार के साथ भारतीय जनता पार्टी भी देश की जनता के गुस्से का शिकार हो सकती है.