भारत की राजनीति एक नाजुक मोड़ पर है. देश के प्रजातांत्रिक विकास और देश में प्रजातंत्र के भविष्य की दिशा-दशा तय होने का वक्त है. यह मोड़ नाजुक इसलिए है, क्योंकि यह तय होना है कि भविष्य में सत्ता के लिए कौन-कौन सी शक्तियां आपस में मुकाबला करेंगी, इन शक्तियों का प्रारूप क्या होगा? वे कौन लोग होंगे, जो देश को नेतृत्व देंगे? यह तय होना है कि क्या भारत की राजनीति में विचारधारा का महत्व रहेगा या नहीं? इन सवालों का समीक्षात्मक विश्लेषण करना इसलिए ज़रूरी हो गया है, क्योंकि तूफानी बदलाव के इस दौर में पहली बार देश की प्रमुख समाजवादी पार्टियों का राष्ट्रीय स्तर पर विलय हुआ है.
आज़ादी से पहले और आज़ादी के 45 वर्षों बाद तक देश में एक पार्टी का वर्चस्व रहा. कांग्रेस अकेली पार्टी थी, जिसका दबदबा राज्यों और केंद्र में रहा. अपवाद के तौर पर बीच में एक बार 70 के दशक में जनता पार्टी और 80 के दशक में वीपी सिंह के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार आई, लेकिन वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी. सामाजिक विकास और सशक्तिकरण के संघर्ष के बाद, भारत की राजनीति बड़ी कठिनाई से एक पार्टी के वर्चस्व से बाहर निकली. किसी एक पार्टी का वर्चस्व किसी भी प्रजातंत्र के लिए खतरनाक होता है. स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए यह ज़रूरी है कि स्थिर सरकार के साथ-साथ एक मजबूत विपक्ष भी हो, जो सत्तारूढ़ दल को चुनाव में पटखनी देने का सामर्थ्य रखता हो. प्रजातंत्र में सत्तारूढ़ पार्टी का विकल्प जनता के पास हमेशा मौजूद रहना चाहिए. जनता को विपक्ष पर अनिवार्य रूप से यह भरोसा होना चाहिए कि यदि सत्तारूढ़ पार्टी सरकार चलाने में विफल हो जाए, तो दूसरी पार्टी और नेता उस ज़िम्मेदारी को उठा सकते हैं. अगर सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्ष में वैचारिक मतभेद हो तथा नीतियों को लेकर सैद्धांतिक विरोध हो, तो प्रजातंत्र न स़िर्फ मजबूत होता है, बल्कि सामाजिक एवं राजनीतिक विकास के लिए अमृत बन जाता है. राजनीतिक-सामाजिक विकास का रास्ता विचार और सिद्धांत से तय होता है, जिस पर भौतिकवाद चहलक़दमी करता है. कहने का मतलब यह कि स्थिर सरकार व मजबूत नेतृत्व के साथ-साथ सामर्थ्यवान विपक्ष, मुख्य पार्टियों में वैचारिक मतभेद, नीतियों पर सैद्धांतिक विरोध, सत्ता परिवर्तन का अवसर, चौकस मीडिया, सक्रिय सिविल सोसाइटी और सत्ता के बाहर विश्वसनीय नेताओं की मौजूदगी स्वस्थ प्रजातंत्र की निशानी है. भारत में प्रजातंत्र के इन मूल तत्वों में से कुछ मौजूद हैं और कुछ नदारद. देश में प्रजातंत्र को जीवंत बनाने का दायित्व राजनीतिक दलों का है, इसलिए जो मूल तत्व मौजूद नहीं हैं, उनकी ज़िम्मेदारी भी राजनीतिक दलों की ही है.
2014 में नरेंद्र मोदी को बहुमत देकर देश की जनता ने केंद्र में एक सशक्त और स्थिर सरकार स्थापित की. जनादेश ऐसा था कि किसी भी पार्टी को इतनी सीटें नहीं मिलीं, जिससे उसे विपक्षी पार्टी घोषित किया जा सके. इसके बाद कुछ राज्यों में चुनाव हुए. इन राज्यों में जो नतीजे आए, वे भी लोकसभा की तरह भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में चले गए. इससे एक ़खतरे की आशंका पैदा हो गई है. भारत की राजनीति फिर से उसी एक पार्टी वर्चस्व की राह की ओर मुड़ गई है, जिससे काफी मशक्कत के बाद पीछा छूटा था. भारतीय जनता पार्टी जिस तरह से हर राज्य में फैल रही है, उससे एक पार्टी वर्चस्व का खतरा पैदा हो गया है. यह ़खतरा इसलिए भी पैदा हो गया, क्योंकि दस वर्षों के यूपीए शासनकाल के दौरान जिस तरह से भ्रष्टाचार और घोटाले हुए. संस्थानों की साख खत्म की गई, उससे कांग्रेस पार्टी जनता की नज़रों में गिर गई. लोगों में इस कदर नाराज़गी है कि न स़िर्फ लोकसभा में, बल्कि हर राज्य में वे कांग्रेस पार्टी को सजा देने लग गए. आज कांग्रेस की हालत यह है कि कर्नाटक को छोड़कर वह हर बड़े राज्य में सत्ता से बाहर हो गई है. हिंदी हार्टलैंड में कांग्रेस लगभग समाप्त हो गई.
कांग्रेस की समस्या स़िर्फ यह नहीं है कि जनभावना उसके ़िखला़फ हो गई है. इससे भी बड़ी समस्या यह है कि राहुल गांधी कुछ ही दिनों में कांग्रेस के अध्यक्ष बनने वाले हैं और उनकी छवि एक विमुख और अनिच्छुक नेता की हो गई है. वैसे भी जो शख्स बजट सत्र जैसे महत्वपूर्ण समय में देश से नदारद हो जाए, उस पर लोग कैसे विश्वास करेंगे. जब देश में भूमि अधिग्रहण बिल के ़िखला़फ किसान आंदोलन कर रहे हों, बेमौसम बारिश की वजह से किसान आत्महत्या कर रहे हों और तब एक नेता छुट्टियां मना रहा हो, तो फिर लोगों का भरोसा उठना लाजिमी है. कांग्रेस का जितना ऩुकसान चुनाव हारने से नहीं हुआ, उससे ज़्यादा बड़ा झटका राहुल गांधी के अज्ञातवास से लगा है. इसी तरह के बर्ताव की वजह से लोगों का भरोसा कांग्रेस और राहुल गांधी से उठ चुका है. हाल तो यह है कि कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को ही वह एक बोझ लगने लगे हैं. कांग्रेस के अंदर अब प्रियंका वाड्रा को मैदान में उतारने की मांग उठने लगी है. इन्हीं वजहों से लोगों को लगने लगा है कि राहुल गांधी किसी भी हालत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला नहीं कर सकते. लोगों ने अब यह मान लिया है कि राहुल गांधी में नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की क्षमता नहीं है. इसलिए विपक्ष के नाम पर देश में शून्य और खालीपन प्रतीत होने लगा है.
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत के बाद कई लोगों को यह लगा कि अरविंद केजरीवाल 2019 में एक विकल्प के रूप में खड़े हो सकते हैं. लेकिन, पिछले एक महीने से जिस तरह से ़खबरें आ रही हैं और आम आदमी पार्टी के अंदर जो गृहयुद्ध चल रहा है, उससे यह आशा भी धराशायी हो गई. केजरीवाल न ढंग से पार्टी चला पा रहे हैं और न सरकार चला पा रहे हैं. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और लोकपाल के मुद्दे पर अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी एक विचारधाराविहीन और सिद्धांतविहीन पार्टी बनकर राजनीति करना चाहती है. यही वजह है कि केजरीवाल दिल्ली जैसे छोटे और कम ज़िम्मेदारी वाले राज्य को एक अच्छी सरकार देने में उलझ गए हैं. पूरी पार्टी का दिल, दिमाग और ताकत दिल्ली पर केंद्रित है, फिर भी कोई नतीजा दिख नहीं रहा है. अरविंद केजरीवाल की कार्यशैली एक क्षेत्रीय-पारिवारिक पार्टी के नेता जैसी है, इसलिए दो वर्षों के अंदर ही पार्टी के अंदर टूट-फूट शुरू हो गई है. ज़्यादातर संस्थापक सदस्य पार्टी से बाहर जा चुके हैं. आम आदमी पार्टी के उमेश सिंह के स्टिंग ऑपरेशन से केजरीवाल की छवि को काफी ऩुकसान हुआ है. हर राज्य में पार्टी दो हिस्सों में बंट गई है. इसलिए आम आदमी पार्टी के पूरे देश में भाजपा से मुकाबला करने की स्थिति में आने की संभावना न के बराबर है. केजरीवाल ज़्यादा से ज़्यादा दिल्ली को अच्छी सरकार दे सकें, यही उनकी सफलता मानी जाएगी.
कुछ लोग इस विलय की तुलना तीसरे मोर्चे से करते हैं, लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि देश में तीसरा मोर्चा केंद्र की सत्ता के लिए बनाया गया, जबकि यह विलय देश के कई राज्यों में एक विकल्प के रूप में उभर रहा है. लोकसभा चुनाव 2019 में होंगे. इसलिए यह सा़फ है कि समाजवादियों की यह नई पार्टी देश में एक वैकल्पिक राजनीति की ज़मीन तैयार करने मैदान में उतरी है.
वर्तमान स्थिति में यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी या आम आदमी पार्टी न तो भारतीय जनता पार्टी का विकल्प बन सकती है और न राहुल-अरविंद इस स्थिति में हैं कि वे मोदी को चुनौती दे सकें. इन दोनों ही पार्टियों की अपनी-अपनी समस्याएं हैं और सीमा है. लेकिन, सबसे बड़ी बात यह है कि इन पार्टियों में वैचारिक समानताएं हैं. ये सभी पार्टियां फ्री मार्केट इकोनॉमी की समर्थक हैं. ये निजीकरण और नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के ज़रिये ही विकास का मॉडल पेश करती हैं. जो फर्क़ है, वह स़िर्फ कुछ मुद्दों को लेकर अलग-अलग धारणाओं की वजह से है. इसलिए वैचारिक और सैद्धांतिक रूप से ये विकल्प पेश करने में विफल हैं. भारत जैसे विकासशील देश, जिसकी आबादी का बहुसंख्यक ग़रीब है, में आर्थिक नीतियों और विकास के मॉडल पर वैचारिक बहस अत्यंत आवश्यक है. बहस वहीं संभव है, जहां विचार और सिद्धांत में परस्पर प्रतिस्पर्धा हो. इस लिहाज से देश की समाजवादी पार्टियों का एक साथ आना ऐतिहासिक टर्निंग प्वाइंट है और यह देश के प्रजातंत्र को नई ऊर्जा देने वाली घटना है.
जनता परिवार के विलय को लेकर महीनों से बातचीत चल रही थी. इस विलय में मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, लालू यादव, शरद यादव, एचडी देवेगौड़ा और केसी त्यागी की भूमिका अहम है. कई विश्लेषकों और राजनीतिक समीक्षकों ने जनता परिवार के विलय को खारिज कर दिया. कई लोगों ने इसे तीसरे मोर्चे का एक नया प्रयोग बताया. हक़ीक़त यह है कि इस विलय को मोर्चा कहना ही ग़लत है. इन नेताओं ने एक मोर्चा नहीं बनाया है, बल्कि एक पार्टी बनाई है. यह पहले की तरह कोई चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं है, बल्कि इसका मकसद भारतीय राजनीति में एक विकल्प के रूप में उभरना है. इस विलय के साथ ही समाजवादी धारा को एक बल मिला है. दो बड़े राज्य यानी उत्तर प्रदेश और बिहार में इसकी सरकारें हैं. एचडी देवेगौड़ा के साथ आने की वजह से दक्षिण भारत में पार्टी की एक मजबूत मौजूदगी दिखेगी और इंडियन नेशनल लोकदल ने इस पार्टी को हरियाणा के साथ-साथ दिल्ली और राजस्थान के कई इलाकों में पहुंचा दिया. कहने का मतलब यह कि विलय के पहले दिन से ही यह एक राष्ट्रीय पार्टी है.
कुछ लोग इस विलय की तुलना तीसरे मोर्चे से करते हैं, लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि देश में तीसरा मोर्चा केंद्र की सत्ता के लिए बनाया गया, जबकि यह विलय देश के कई राज्यों में एक विकल्प के रूप में उभर रहा है. लोकसभा चुनाव 2019 में होंगे. इसलिए यह सा़फ है कि समाजवादियों की यह नई पार्टी देश में एक वैकल्पिक राजनीति की ज़मीन तैयार करने के लिए मैदान में उतरी है. यह स़िर्फ लोकसभा में चुनाव से पहले का ग़ैर-कांग्रेस और ग़ैर-भाजपा गठबंधन नहीं है, बल्कि कांग्रेस पार्टी के कमजोर होने की वजह से जो राजनीतिक खालीपन पैदा हुआ है, यह उस पर कब्जा करने की कवायद है. कांग्रेस एवं भाजपा की आर्थिक नीतियों और सामाजिक विकास के दृष्टिकोण में कोई फर्क़ नहीं है. नरेंद्र मोदी और मनमोहन सिंह के विकास मॉडल एक जैसे हैं. यही वजह है कि जबसे भाजपा सत्ता में आई है, वह कांग्रेस की नीतियों को ही आगे बढ़ा रही है. ़फर्क़ स़िर्फ इतना है कि भाजपा की कार्यशैली कांग्रेस से ज़्यादा पारदर्शी और तीव्र है. उदाहरण के तौर पर कोयला खदानों के आवंटन को देखिए. कांग्रेस और भाजपा में ़फर्क़ स़िर्फ आवंटन की विधि को लेकर है.
कांग्रेस पार्टी ने मंत्रालय में कोयला खदानें निजी कंपनियों को दे दीं, वहीं भाजपा ने नीलामी के ज़रिये कोयला खदानें निजी कंपनियों को दे दीं. किसी ने यह नहीं पूछा कि राष्ट्रीय संपदा को निजी हाथों में देकर हम निजी कंपनियों को फायदा क्यों पहुंचा रहे हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों से स़िर्फ अमीरों का ़फायदा होता है, बड़ी-बड़ी कंपनियों को ़फायदा होता है. दुनिया के किसी भी देश में नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों से ग़रीबों को फायदा नहीं पहुंचा है. देश में लड़ाई नव-उदारवादी व्यवस्था को लेकर होनी चाहिए. एक तऱफ वे पार्टियां हैं, जो नव-उदारवाद का समर्थन करती हैं और दूसरी तऱफ इसे ग़रीब विरोधी और जनविरोधी व्यवस्था मानने वाली पार्टियां हैं. दोनों के बीच प्रतिस्पर्धा की ज़रूरत है. जब तक इन मुद्दों पर परस्पर विरोधी विचारों के बीच बहस नहीं होगी, तब तक आम जनता और ग़रीबों का भला नहीं होगा.
जहां तक बात चुनावी राजनीति की है, तो भारतीय जनता पार्टी की नज़र बिहार और उत्तर प्रदेश पर लगी है. भाजपा इन दोनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव जीतकर अपराजेय बनने के लिए तत्पर है. इन दोनों राज्यों में जीत का मतलब है, भारतीय जनता पार्टी का पूरे हिंदी हार्टलैंड पर कब्जा. इससे एक बार फिर से देश की राजनीति के एक पार्टी वर्चस्व के दौर में फिसलने का ़खतरा पैदा हो जाएगा. जनता परिवार की पहली चुनौती यही होगी कि वह भारतीय जनता पार्टी का विजय रथ बिहार में रोके. बिहार में हाल में ही हुए उपचुनाव के नतीजों ने यह साबित किया है कि अगर जनता परिवार एकजुट होकर लड़े, तो बिहार में भारतीय जनता पार्टी के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी. बिहार में हुआ उपचुनाव लालू यादव और नीतीश कुमार ने एकजुट होकर भाजपा के ़िखला़फ लड़ा था और वे 10 में से छह सीटें जीतने में कामयाब हुए थे. मतलब यह कि जनता परिवार की पहली चुनौती बिहार चुनाव है. इसमें अगर नीतीश कुमार सफल हो जाते हैं, तो इससे न स़िर्फ भाजपा का विजय रथ रुकेगा, बल्कि जनता परिवार देश के सामने एक विकल्प के रूप में उभर जाएगा.
बिहार जीतने के लिए जनता परिवार के नेताओं को काफी मशक्कत करनी पड़ेगी. बिहार में जनता परिवार के सामने कई चुनौतियां हैं, जो विलय से पैदा हुए विरोधाभासों से पैदा हुई हैं. इन विरोधाभासों को ़खत्म करना पहली ज़िम्मेदारी होगी. इसके लिए जनता परिवार के नेताओं को अपने अहंकार पर काबू पाना होगा. वह इसलिए, क्योंकि जनता परिवार का भविष्य पूरी तरह से बिहार विधानसभा चुनाव पर टिका है. बिहार में अगर जनता परिवार हार जाता है, तो यह विलय अर्थहीन हो जाएगा. जनता परिवार के लिए अच्छी ़खबर यह है कि बिहार में नीतीश कुमार के फिर से मुख्यमंत्री बनने से सरकार की साख बढ़ी है. मांझी सरकार के दौरान हुई ग़लतियां सुधारना और क़ानून व्यवस्था दुरुस्त करना नीतीश कुमार की प्राथमिकता होनी चाहिए. विधानसभा चुनाव में अभी क़रीब छह महीने बाकी हैं. इस दौरान नीतीश कुमार को यह साबित करना होगा कि वह सुशासन के साथ-साथ बिहार का विकास करने में सक्षम हैं. याद रखने वाली बात यह है कि बिहार की जनता ने लोकसभा चुनाव में जाति-पांत से ऊपर उठकर वोट दिया था. बिहार में जीत की कुंजी इस बार भी यही है. बिहार में इस बार वही पार्टी चुनाव जीतेगी, जो युवाओं और ग़ैर-समर्पित मतदाताओं का समर्थन पाने में कामयाब रहेगी.