बिहार में नीतीश कुमार की सरकार और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड में उदासीनता छाई है. मुख्यमंत्री के सामने न कोई मंत्री मुंह खोलने की हिम्मत करता है और न ही विधायक को बेधड़क मिलने की आज़ादी है. वहीं ज़्यादातर कार्यकर्ता तो मुख्यमंत्री की झलक तक नहीं ले पाते हैं. जेडीयू के लोग नीतीश कुमार को अब राजा कहकर संबोधित करने लगे हैं.
बिहार में अधिकारियों की तानाशाही है और वहां के अधिकारी निरंकुश हो गए हैं.राज्य में भ्रष्टाचार चरम पर है. भ्रष्टाचार ख़त्म करने की स़िर्फ बातें होती हैं,लेकिन कोई कार्रवाई अंततः नहीं होती. दरअसल, पिछले कार्यकाल की जो भी उपलब्धि थी, उसका असर धीरे-धीरे ख़त्म हो रहा है. बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा की हालत ख़राब है और सरकार की साख संकट में है. लोग कहते हैं कि नीतीश कुमार की आंखों पर अधिकारियों ने पट्टी बांध दी है या फिर वह सब कुछ जानते हुए भी इसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं. वह जनप्रतिनिधियों से ज़्यादा अधिकारियों की सुनते हैं. नीतीश कुमार जननेता हैं और कुछ लोग उन्हें एक भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं. इसलिए ऐसी ग़लती की उम्मीद उनसे नहीं की जा सकती. पटना के चाणक्य होटल के नज़दीक आर ब्लाक का गेट है. यहां सप्ताह में तीन चार विरोध प्रदर्शन होते हैं. बिहार सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वालों के लिए यह आखिरी पड़ाव है. वे इससे आगे नहीं जा सकते.गेट को बंद कर दिया जाता है. भारी संख्या में पुलिस होती है. वाटर कैनन होता है. प्रदर्शनकारी अगर उग्र होने की ज़रा-सी भी कोशिश करते हैं, तो यह इलाक़ा तुरंत कुरुक्षेत्र में बदल जाता है. फिर क्या, प्रदर्शनकारियों का शरीर होता है और पुलिस का डंडा. पटना में विरोध प्रदर्शन और उन पर लाठी चार्ज की घटना आम है. पटना के लोग कहते हैं कि प्रदर्शनकारियों को मुख्यमंत्री कार्यालय और निवास से इतनी दूर इसलिए रोक दिया जाता है, ताकि लोगों की आवाज़ नीतीश कुमार के कानों तक न पहुंच सके और ऐसी स्थिति में नीतीश कुमार यह समझते रहें कि बिहार में सब कुछ ठीक चल रहा है.
बिहार का राजनीतिक माहौल बदल रहा है. लोगों की परेशानियां कम नहीं हो रही हैं. नीतीश सरकार से लोग निराश होने लगे हैं. निराशा की कई वजहें हैं. एक,सरकारी भ्रष्टाचार से लोग परेशान हैं. भ्रष्टाचार से ज़्यादा सरकारी दफ्तरों के रवैये से लोगों में गुस्सा है. नीतीश सरकार ने सड़कें बनाकर लोगों का दिल ज़रूर जीता था, लेकिन अब वे सड़कें भी जर्जर होने लगी हैं, जो सड़क नहीं बन सके, वे अब तक नहीं बने.पानी की समस्या है. बिजली की समस्या का अब तक कोई निदान नहीं हुआ.लोगों को नीतीश कुमार से बहुत आशाएं थीं, जो अब निराशा में तब्दील होने लगी हैं और इसलिए वे अब सरकार के ख़िलाफ़ संगठित होने लगे हैं.शायद, नीतीश कुमार को भी लोगों के मूड का आभास है, इसलिए उन्होंने कहा कि वह बिहार में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हैं और उनकी नीति जीरो टॉलरेंस की है, लेकिन सिर्फ बयान देने से बात नहीं बनती.बिहार के लोग, ग़रीब ज़रूर हैं, लेकिन राजनीतिक तौर पर परिपक्व हैं, इसलिए बयानों के महत्व को वे भली-भांति समझते हैं.
नीतीश कुमार की सरकार से सबसे ज़्यादा परेशान जनता दल यूनाइटेड के विधायक हैं. वे मुख्यमंत्री से सीधे नहीं मिल सकते. मुख्यमंत्री जी को भी यह पता है, लेकिन अगर उनसे इस मसले पर कोई सवाल पूछता है, तो वह तुरंत नाराज हो जाते हैं. हक़ीक़त यही है कि 52 विधायक अब तक मुख्यमंत्री से मुलाक़ात भी नहीं कर पाए हैं. कई लोगों का अभी तक उनसे आमना-सामना भी नहीं हुआ. यह भी एक अविश्वसनीय सच्चाई है कि मुख्यमंत्री अपने सभी विधायकों को नहीं पहचानते. वैसे भी जिन विधायकों की मुलाक़ात उनसे होती है, वे भी उनसे मिलने के बाद निराश ही लौटते हैं. पार्टी अनुशासन और राजनीतिक विवशता की वजह से कोई मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं करता है, लेकिन सच्चाई यही है कि बिहार के विधायक ख़ुद को कमज़ोर महसूस इसलिए करते हैं, क्योंकि
पुलिस और प्रशासन ने भी विधायकों की बातों को सुनना बंद कर दिया है. ऐसी स्थिति में विधायकों को अपने वोटरों के सामने लज्जित होना पड़ता है. यही वजह है कि वे किसी अधिकारी को फोन करने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाते. नीतीश कुमार ने न सिर्फ कार्यकर्ताओं और पार्टी नेताओं से दूरी बना ली है, बल्कि जनता से भी दिन-ब-दिन दूर होते चले जा रहे हैं. उनको जनता ने जिस तरह समर्थन दिया, उन्हें जितनी सीटें दिलाईं, वह ऐतिहासिक है, लेकिन पिछले दिनों संपन्न अधिकार रैली की भीड़ देखकर नीतीश कुमार की लोकप्रियता पर सवाल उठता ही है. जेडीयू के विधायक बताते हैं कि रैली पर बहुत पैसा ख़र्च हुआ, लेकिन सिर्फ 1.5 लाख लोग गांधी मैदान पहुंचे. बताया यह भी गया कि इसमें सिर्फ एक विधायक ने क़रीब एक लाख लोगों को गांधी मैदान पहुंचाने का इंतज़ाम किया था. अधिकार रैली में जो भी लोग आए, उसकी व्यवस्था मुन्ना शुक्ला, अनंत सिंह, कौशल यादव, सुनील पांडे और धूमल सिंह ने की थी. कहने का मतलब यह है कि यह रैली आम जनता की नहीं थी. ख़ैर, पर्दे के पीछे का सच जो भी हो, लोगों की संख्या के हिसाब से इस रैली को सफल कहा जा सकता है. हालांकि इस रैली से अगर नीतीश कुमार की लोकप्रियता का अनुमान लगाया जाए, तो यह रैली कई सवालों को जन्म देता है. इस रैली की तैयारी में स्वयं नीतीश कुमार को कई जगहों पर विरोध का सामना करना पड़ा. कई जगहों पर उन्हें कार्यक्रमों को भी रद्द करना पड़ा था. नीतीश कुमार की पार्टी में संजय झा के दख़ल से बड़ा रोष है. लोग सवाल पूछते हैं, लेकिन नीतीश कुमार के सामने इस बात को उठाने की हिम्मत किसी की भी नहीं होती. संजय झा के बारे में बताया जाता है कि वह पार्टी के सभी नेताओं पर भारी पड़ते हैं. उनकी हैसियत इन दिनों वैसी हो गई है, जैसी कभी ललन सिंह की होती थी. यह सबको पता है कि संजय झा पहले अरुण जेटली के दफ्तर में काम करते थे, इसलिए उन्हें भाजपा के कामकाज को देखने के लिए बिहार भेजा गया. वह नीतीश कुमार को इतना भाए कि वह बीजेपी छोड़ जेडीयू में आ गए और सर्वेसर्वा बन गए. जेडीयू के नेता इस बात से परेशान हैं कि आखिर संजय झा की ख़ासियत क्या है. उनका क्या जनाधार है. नेताओं, विधायकों और सांसदों की यह नाराजगी फ़िलहाल सार्वजनिक ज़रूर नहीं हुई है, लेकिन ऐसा कब तक चलेगा, यह भी एक सवाल है. क्योंकि राजनीति में कब क्या हो जाए, यह किसी को पता नहीं होता.
नीतीश कुमार जनता से भी दूर हो रहे हैं. उनका जनता दरबार सिर्फ दिखावा भर रह गया है. आश्चर्य की बात तो यह है कि लोगों की शिकायत पर कोई कार्रवाई तो होती ही नहीं, उल्टा शिकायत करने वाले ही परेशान हो जाते हैं. दरअसल, होता यह है कि अगर कोई व्यक्ति किसी अधिकारी की शिकायत लेकर जाता है और अपनी दास्तां सुनाता है, तो मुख्यमंत्री जी उनकी शिकायत को अधिकारियों को सौंप देते हैं. और वह अधिकारी वापस उसे अपने जूनियर अधिकारी को दे देता है. इस तरह वह शिकायत वहीं पहुंच जाता है, जिसके ख़िलाफ़ शिकायत होती है. अब जब उस अधिकारी को पता चलता है कि उसके ख़िलाफ़ फलां व्यक्ति ने मुख्यमंत्री से शिकायत की है, तो उसे सबक सिखाने के लिए वह अधिकारी उसे जलील करना शुरू कर देता है. ऐसे कई उदाहरण हैं. एक कटु सत्य यह भी है कि जिन लोगों को नीतीश कुमार से उम्मीद थी, वे अब निराश हो रहे हैं, इसलिए उनके जनता दरबार में लोगों की भीड़ धीरे-धीरे कम होती जा रही है. जब कार्यकर्ता ही अपनी पार्टी को कोसने लगे, उस पार्टी का तो अल्लाह ही मालिक है. दरअसल, जिस पार्टी में सांसदों को अपनी राय रखने की अनुमति न हो या उनकी रायों को सुनने वाला कोई न हो, ऐसी पार्टियों को आप क्या कहेंगे. जिस पार्टी के विधायक को अपने ही मुख्यमंत्री से मिलने के लिए महीनों इंतज़ार करना पड़े, उस पार्टी के कार्यकर्ता कभी भी खुश नहीं रह सकते. जब विधायक अपनी ही पार्टी की सरकार से निराश हो जाए, तो यह मान लेना चाहिए कि नीतीश कुमार का नियंत्रण पार्टी के कार्यकर्ताओं पर अब नहीं रह गया है. जब कोई मुख्यमंत्री, अपने कार्यकर्ता, विधायक, सांसद यहां तक कि मंत्रियों से दूरी बना ले, तो यह मान लेना चाहिए कि उस पार्टी का भविष्य सुनहरा नहीं है. बिहार में नीतीश कुमार की सरकार और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड में उदासीनता छाई है.
मुख्यमंत्री के सामने न कोई मंत्री मुंह खोलने की हिम्मत करता है और न ही विधायक को बेधड़क मिलने की आज़ादी है. वहीं ज़्यादातर कार्यकर्ता तो मुख्यमंत्री की झलक तक नहीं ले पाते हैं. जेडीयू के लोग नीतीश कुमार को अब राजा कहकर संबोधित करने लगे हैं. उनकी मीठी-मीठी बातें और विकास के दावे को लोग अब खोखला समझने लगे हैं. एक टीवी चैनल ने पिछले दिनों बिहार में एक सर्वे किया. सवाल था कि वे किसे प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. इस सर्वे के मुताबिक़, 55 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि सिर्फ 35 फ़ीसदी लोगों ने नीतीश कुमार के नाम पर मुहर लगाई. नीतीश कुमार एक परिपक्व नेता हैं और उन्हें ज़मीनी हक़ीक़त का अंदाज़ा है. नीतीश कुमार पहले बीजेपी पर हावी रहते थे, लेकिन अब बीजेपी एग्रेसिव है. इस बात का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि जब भी कोई जेडीयू का नेता बीजेपी या नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ बयान देता है, तो उसे फटकार ज़रूर लगती है. पार्टी की तरफ से यह पाबंदी लगा दी गई है कि बिना मुख्यमंत्री या पार्टी अध्यक्ष की अनुमति के कोई भी नेता या कार्यकर्ता बयान नहीं देगा. यहां तक कि प्रवक्ताओं पर भी बैन लगा दिया गया है. इसका उदाहरण बिहार के ग्रामीण कार्य मंत्री भीम सिंह हैं. उन्होंने यह बयान दिया कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री बनेंगे.
यह सुनते ही नीतीश कुमार ने उन्हें बुलाकर फटकार लगाई. उन्होंने भीम सिंह को साफ कहा कि आप इस्तीफ़ा दीजिए या फिर माफ़ी मांगिए. भीम सिंह ने प्रेस कांफ्रेस की और अपना बयान वापस लिया. कहा, मेरे बयान से मुख्यमंत्री आहत और दुखी हैं. इसलिए मेरे बयान की ऐसी की तैसी. नीतीश कुमार से लोगों की आशाएं बंधी हैं. जब वह मुख्यमंत्री बनें, तो लोगों को लगा कि बिहार में बदलाव होगा. पहले कार्यकाल में बदलाव दिखा भी, इसलिए धीरे-धीरे लोगों की अपेक्षाएं और बढ़ीं. नीतीश को दिल खोल कर लोगों ने वोट दिया. अब बिहार में निराशा का दौर है. नीतीश कुमार के सामने किसी विपक्ष की चुनौती नहीं है. उन्हें तो लालू यादव को धन्यवाद देना चाहिए कि आज भी लोग लालू यादव के शासनकाल के बारे में सोच कर ही थर्रा उठते हैं. राज्य में लॉ एंड आर्डर पहले से बेहतर है, दिनदहाड़े लूट नहीं होती और गुंडाराज भी नहीं है. लेकिन सब कुछ ठीक हो गया, यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि लोग अब त्रस्त हैं. बिहार सरकार की योजनाओं का असर नहीं दिख रहा है. केंद्रीय योजनाओं में भी भ्रष्टाचार है. शिक्षा, स्वास्थ्य या फिर कोई और विभाग, हर विभाग में गड़बड़ियां चल रही हैं. बिहार में निवेश नहीं हो रहा है. उद्योग नहीं लग रहे. पावर सेक्टर की स्थिति दयनीय है. नीतीश कुमार के सात साल के शासनकाल में नक्सलियों का प्रभाव 10 ज़िलों से बढ़कर 23 ज़िलों तक पहुंच चुका है. बिहार सरकार के पास इस विपदा से निपटने की कोई योजना ही नहीं है. शहरों की हालत दिन प्रतिदिन ख़राब होती जा रही है. युवाओं के लिए न तो रोज़गार है और न ही भविष्य में कोई अवसर नज़र आ रहा है. लोगों के पास अब कोई विकल्प नहीं है, इसलिए बदहाली को ही बिहार के लोगों ने अपनी नियति मान ली है. इसके बावजूद बिहार के लोग आज भी नीतीश कुमार के शासनकाल को लालू यादव के शासनकाल से बेहतर मानते हैं. बिहार की जनता की उम्मीदों पर ख़रा उतरना नीतीश कुमार का दायित्व है, लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि वह इस दायित्व को निभा नहीं पा रहे हैं. सच तो यह है कि जिस ऐतिहासिक जीत के बाद नीतीश कुमार दोबारा मुख्यमंत्री बने, उससे यह उम्मीद ज़रूर जगी थी कि वह एक कामयाब और असाधारण मुख्यमंत्री साबित होंगे और आगे चलकर देश का नेतृत्व भी करेंगे. ऐसा बिहार ही नहीं, पूरे देश में लोग चाहते हैं, लेकिन बिहार में इन दिनों जो हालात हैं, उससे तो यही लगता है कि नीतीश कुमार ने ख़ुद को एक साधारण मुख्यमंत्री के दायरे में सीमित कर लिया है. ऐसा लगता है कि उन्होंने पटना से दिल्ली का सफ़र मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन बना लिया है.
क्या बिहार में अघोषित सेंसरशिप है
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन जस्टिस काटजू ने एक कमेटी बनाकर नया विवाद शुरू किया है. उनका मानना है कि बिहार में अघोषित सेंसरशिप लागू है. मीडिया पर कई प्रकार के प्रतिबंध हैं और इसलिए वह स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पा रही है. दरअसल, जो बात जस्टिस काटजू आज कह रहे हैं, उसे चौथी दुनिया ने सबसे पहले 2009 में हूबहू छापी थी. उन दिनों चौथी दुनिया ने लिखा था- मेरे ख़िलाफ़ लिखना मना है. लेख छपने के बाद बिहार में बड़ा हंगामा हुआ था. विपक्ष ने विधानसभा के अंदर चौथी दुनिया अख़बार को लेकर हंगामा किया. लालू यादव और रामविलास पासवान ने अख़बार की प्रति लेकर प्रेस कांफ्रेंस भी की. जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल के चेयरमैन हैं, इसलिए प्रेस के अधिकारों के लिए लड़ना उनका कर्तव्य है, लेकिन उन्हें यह भी समझना चाहिए कि इसमें नीतीश कुमार की सरकार का दोष कम है. मीडिया अगर ख़ुद ही पत्रकारिता छोड़ चाटुकारिता करने लग जाए, तो इसमें किसी सरकार को कैसे दोष दे सकते हैं. चौथी दुनिया अब तक सच्चाई को छापती आई है. बिहार की हर गड़बड़ियों को बेधड़क छापा है. इमरजेंसी होती, तो हम पर भी प्रतिबंध लगता. सरकार तंग करती, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ. न ही हमारे ख़िलाफ़ नीतीश सरकार ने कुछ किया और न ही कोई प्रलोभन दी. हम आज भी नीतीश कुमार की सरकार की कमियों को बेधड़क लिख रहे हैं और लिखते रहेंगे.
पिछले चुनाव के दौरान चौथी दुनिया ने यहां तक छापा कि नीतीश अहंकारी हो गए हैं. यह लेख नीतीश कुमार के काम करने के तरी़के पर लिखी गई थी. नीतीश नाराज़ हुए और उन्होंने अपने पर्सनल सेक्रेटरी को ही बदल दिया. हां, चुनाव जीतने के बाद अपने पहले प्रेस कांफ्रेंस में चौथी दुनिया के संवाददाता को नीतीश कुमार ने यह ज़रूर कहा कि चौथी दुनिया को वह इसलिए पढ़ते हैं, क्योंकि यह अकेला अख़बार है, जिसे बिहार में सिर्फ बुराई नज़र आती है. नीतीश कुमार की सरकार में बहुत कमियां हैं, जिन्हें हर अख़बार को उजागर करना चाहिए. अगर अख़बार विज्ञापन के लालच में चारण बन जाए, तो दोष किसका है. प्रेस की आज़ादी की बात तो तब आती है, जब न्यूज चैनल और अख़बार स्वयं आज़ाद होना चाहें. इसलिए प्रेस काउंसिल को इस बात की जांच करनी चाहिए कि कौन अख़बार नीतीश कुमार या केंद्र की यूपीए सरकार की चाटुकारिता में लगी हुई है और उसके कारण क्या हैं. उन एडिटरों पर कार्रवाई होनी चाहिए, जो केंद्र और राज्य सरकारों से फ़ायदा उठाकर प्रेस की आज़ादी को बेचते हैं. जस्टिस काटजू के सामने बड़ी चुनौती है. देश में पत्रकारिता की साख दांव पर लगी है. सरकार के एजेंट की तरह काम करने वाले पत्रकारों और एडिटरों की लिस्ट काफी लंबी है. यही वजह है कि लोगों का विश्वास उठता जा रहा है. जस्टिस काटजू को ऐसे पत्रकारों के ख़िलाफ़ भी एक्शन लेना चाहिए, जो जन पत्रकारिता छोड़ सरकार के लिए पब्लिक रिलेशन का काम करते हैं.