राजनीतिक दलों का वर्चस्व इतना मज़बूत है कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह से पार्टी तंत्र में तब्दील हो चुकी है. हालत यह है कि चुनाव अब महज़ खानापूर्ति बनकर रह गए हैं. हर राजनीतिक दल अपनी मूल विचारधारा को त्याग कर येन केन प्रकारेण सत्ता पर क़ाबिज़ होना चाहता है. दरअसल, भारत का प्रजातंत्र दूषित हो चुका है और यही प्रजातंत्र के लिए ख़तरे की घंटी है. क्या है सच्चाई, पेश है विश्लेषण पर आधारित एक रिपोर्ट?
अन्ना हजारे आजकल जनतंत्र यात्रा पर पूरे देश का भ्रमण कर रहे हैं. वह देश में घूम-घूमकर राजनीतिक दलों को भ्रष्ट, धूर्त और धोखेबाज़ बता रहे हैं. हैरानी इस बात की है कि किसी भी राजनीतिक दल की अन्ना का सामना करने की हिम्मत नहीं हो रही है. दरअसल, भारत का प्रजातंत्र दूषित हो चुका है और चूंकि प्रजातंत्र को ज़िंदा रखने की ज़िम्मेदारी राजनीतिक दलों की होती है, ऐसे में अगर राजनीतिक दल जनता से विमुख हो जाए, कार्यकर्ताओं और समर्थकों की उपेक्षा हो, भ्रष्ट, बेईमान व गुंडे-बाहुबलियों का सम्मान होने लगे, राजनीतिक दल व नेता विचारधाराविहीन हो जाए और पार्टी किसी विचारधारा और लोगों के समूह की न रहकर किसी परिवार की संपत्ति बन जाए, तो ऐसे दलों के हाथ में प्रजातंत्र की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सौंपना, प्रजातंत्र को ख़त्म करने के बराबर है.
सच तो यह है कि भारत की राजनीतिक पार्टियों को उन सारी वीभत्स बीमारियों ने ग्रसित कर रखा है, जो प्रजातंत्र को नष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं. यही भारत के प्रजातंत्र के लिए ख़तरे की घंटी है.
प्रजातंत्र कहां है?
ऐसी व्यवस्था, जिसमें सरकार जनता की हो, जनता द्वारा चलाई जाती हो और जनता के लिए चलाई जाती हो, उसे प्रजातंत्र कहते हैं. वैसे तो प्रजातंत्र के और भी कई मापदंड हैं, लेकिन जब देश का संविधान बन रहा था, तब हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रजातंत्र की उस व्याख्या को माना था. सरकार के इसी स्वरूप को असली आज़ादी माना गया था. प्रजातंत्र के इस स्वरूप के साथ कोई भी समझौता, देश की आज़ादी के साथ समझौता करने के समान है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान में देश का प्रजातंत्र इस मापदंड पर खरा उतरता है या क्या प्रजातंत्र के इस स्वरूप के साथ समझौता हुआ है?
पिछले ६७ सालों में भारत के प्रजातंत्र का न केवल पतन हुआ है, बल्कि इस पर ग्रहण भी लग गया है. दरअसल, सरकार के एजेंडे से अब प्रजा ही ग़ायब हो गई है. भारत का प्रजातंत्र अब पार्टीतंत्र में बदल चुका है. देश की सरकारें पार्टी की हैं, पार्टी के द्वारा हैं और पार्टी के लिए हैं. संसद में अब जनमत को तरजीह नहीं दी जाती है. दरअसल, लोगों से जुड़ी समस्याओं पर जब संसद में बातचीत होती है, तब सीटें ख़ाली होती हैं. संसद में कौन-कौन से मुद्दे उठाए जाएंगे, किस मुद्दे पर बातचीत नहीं होनी है, कौन सांसद क्या बोलेगा और किस मुद्दे को कौन उठाएगा, यह पार्टी तय करती है. और जब कभी वोटिंग होती है, तो सांसदों को अपने मन से वोटिंग करने की भी आज़ादी नहीं है. पार्टी के मुताबिक़, अगर वे वोट न करें, तो सांसद की सदस्यता चली जाती है. कहने का मतलब यह है कि चुने जाने के बाद सांसद और विधायक लोगों के प्रतिनिधि होने की बजाय पार्टी के बंधुआ मज़दूर बन जाते हैं. वे संसद और विधानसभाओं में पार्टी के प्रतिनिधि बन जाते हैं. क्या यही लोकतंत्र का स्वरूप है? क्या लोग अपने प्रतिनिधि को केवल इसलिए चुनते हैं कि वह संसद और विधानसभाओं में उनकी बात न रखकर पार्टी के एजेंट बन जाए?
आंतरिक प्रजातंत्र
न तो यह सही मायने में प्रजातंत्र है और न ही देश के राजनीतिक दलों को प्रजातांत्रिक व्यवस्था पर विश्वास है. प्रजातंत्र स़िर्फ संस्थागत व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह तो एक मूल्य है, एक पद्धति है, एक जीवनशैली है. जो भी व्यक्ति या संगठन प्रजातांत्रिक मूल्यों से संचालित नहीं होता, तो इसका मतलब यह हुआ कि वह इन मूल्यों पर विश्वास नहीं करता. देश के राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. यह चुनाव आयोग के नियमों का उल्लंघन है, लेकिन असल में, चुनाव आयोग के पास इन पार्टियों को नियंत्रित करने का कोई अधिकार ही नहीं है. देश के राजनीतिक दल लोकतांत्रिक आधार पर न तो संगठित हैं और न ही किसी राजनीतिक दल में फ्री ऐंड फेयर सांगठनिक चुनाव होते हैं. पार्टी के अंदर ़फैसला बहुमत के आधार पर नहीं होता. और अगर इन पार्टियों के अंदर चुनाव होते भी हैं, तो वे दिखावे के होते हैं. हर पार्टी में ़फैसला लेने वाले वे लोग हैं, जिनका जनता से कोई सरोकार नहीं है. राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हैसियत बंधुआ मज़दूर की तरह हो गई है. वह पार्टी के लिए काम तो करता है, लेकिन पार्टी के ़फैसलों में उसकी कोई हिस्सेदारी ही नहीं होती है. आश्चर्य की बात तो यह है कि ज़मीन से जु़डे राजनीतिक कार्यकर्ताओं की उपेक्षा होती है और वैसे लोग, जिनके पास पैसा और बाहुबल होता है, उन्हें पार्टी में सम्मान दिया जाता है. आज राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वालों ने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार बना लिया है. और दरअसल, इसी वजह से वे लोगों की नज़रों से गिर चुके हैं.
हर राजनीतिक दल परिवारवाद की दलदल में फंसा नज़र आता है और इसीलिए देश की ज़्यादातर पार्टियों का संचालन व नियंत्रण किसी न किसी परिवार के क़ब्ज़े में है. अध्यक्ष का बेटा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री, मंत्री का बेटा मंत्री, यानी सारी मलाई चंद परिवारों और उनके रिश्तेदारों में ही बट कर रह जाती है. टिकट भी दरअसल, उन्हें ही मिलता है, जो किसी न किसी राजनेता के रिश्तेदार या परिवार से जुड़े होते हैं.
वैचारिक पतन
राजनीतिक पार्टियों का वैचारिक पतन भी अब चरम पर है. कांग्रेस पार्टी ने गांधी और नेहरू के विचारों और समाजवाद का परित्याग कर दिया, तो भारतीय जनता पार्टी अब स्वदेशी, ३७० का नाम तक नहीं लेती. वामपंथी पार्टियां अपनी विचारधारा के मूल तत्वों को अब सपना समझने लगी हैं. समाजवादी पार्टियों के एजेंडे से समाजवाद ग़ायब हो चुका है. जेपी आंदोलन से उपजेनेता भ्रष्टाचार से लड़ने की बजाय भ्रष्टाचार का नया इतिहास लिख रहे हैं. ब्राह्मणवाद का विरोध करने वाले कांशीराम के नाम पर राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी आज ब्राह्मणों की रैलियां कर रही है. दरअसल, आज भारत की सभी पार्टियां प्रैगमेटिक पार्टियां बन गई हैं. और इसीलिए इनकी अपनी कोई विचारधारा नहीं है. जो विचारधारा है, वह स़िर्फ जनता को धोखा देने के लिए है. जब इनकी सरकार बनती है, तो इनकी नीतियों और ़फैसलों में विचारधारा की छाया तक नज़र नहीं आती है. राजनीतिक विशेषज्ञ और राजनीति शास्त्र की किताबों में कांग्रेस पार्टी को सेंट्रिस्ट, बीजेपी को राइटिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टियों को लेफ्टिस्ट पार्टियां और कई राज्यों की पार्टियों को सोशलिस्ट लिखा जाता है. लेकिन हक़ीक़त यह है कि ये पार्टियां कई वर्षों से विचारधाराविहीन हो चुकी हैं. दरअसल, राजनीतिक दलों ने देश का राजनीतिक वातावरण ऐसा बना दिया है, जिसमें उन्हें लगता है कि विचारधारा के आधार पर चुनाव जीते ही नहीं जा सकते. चुनाव जीतने के लिए तिकड़म करना और जातियों का गठजोड़ करना ज़रूरी है. यही वजह है कि राजनीतिक दलों ने चुनाव में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने के लिए विचारधारा का परित्याग कर दिया है. विचारधाराविहीन राजनीति किसी भी प्रजातंत्र के लिए दीमक का काम करती है. इसमें कोई शक नहीं है कि देश की राजनीतिक पार्टियां दीमक बनकर देश के प्रजातंत्र को खोखला कर रही हैं.
परिवारवाद का ज़हर
दरअसल, राजनीतिक दल स्वयं खोखले होते जा रहे हैं. हर राजनीतिक दल परिवारवाद की दलदल में फंसा नज़र आता है और इसीलिए देश की ज़्यादातर पार्टियों का संचालन व नियंत्रण किसी न किसी परिवार के क़ब्ज़े में है. अध्यक्ष का बेटा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री का बेटा मुख्यमंत्री, मंत्री का बेटा मंत्री, यानी सारी मलाई चंद परिवारों और उनके रिश्तेदारों में ही बट कर रह जाती है. टिकट भी दरअसल, उन्हें ही मिलता है, जो किसी न किसी राजनेता के रिश्तेदार या परिवार से जुड़े होते हैं. इस दूषित परंपरा को राजनीतिक दल चुनाव जीतने की कुंजी समझते हैं और यही दलील देकर कार्यकर्ताओं को ठेंगा दिखा दिया जाता है. कहने का मतलब यही है कि राजनीतिक दलों ने अपने क्रिया-कलापों के कारण कार्यकर्ताओं, समर्थकों, वोटरों और जनता को लोकतंत्र से विमुख कर दिया है. यह लोकतंत्र का स्वरूप नहीं, बल्कि लोकतंत्र को दूषित करने वाली राजनीतिक संस्कृति है. ऐसे में अब सवाल यह उठता है कि क्या राजनीतिक दलों को लोकतांत्रिक मूल्यों को पालन करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता? क्या राजनीतिक दलों के बिना लोकतंत्र संभव नहीं है? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अन्ना हजारे ने भ्रष्ट राजनीतिक दलों के भ्रष्ट आचरण पर हमला बोल दिया है. वैसे, आने वाले दिनों में इस बात पर देश की जनता राजनीतिक दलों की विवेचना ज़रूर करेगी.
राजनीतिक दल और संविधान
यहां यह समझना ज़रूरी है कि चुनाव प्रक्रिया में राजनीतिक दलों का संवैधानिक अस्तित्व क्या है? राजनीतिक दलों के अलोकतांत्रिक आचरण की जानकारी के बावजूद चुनाव आयोग ने उन्हें चुनाव में अहम भूमिका दे रखी है. सवाल यहां यह भी उठता है कि क्या चुनाव आयोग जनतंत्र के मौलिक मूल्यों को दरकिनार करके चुनाव करना चाहता है? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के संविधान में राजनीतिक दलों का कोई अस्तित्व ही नहीं है. हमारे संविधान में राजनीतिक दल शब्द का कोई प्रयोग तक नहीं है. देश में चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी चुनाव आयोग की है. संविधान के मुताबिक़, चुनाव आयोग की ज़िम्मेदारी वोटर लिस्ट तैयार कराना और चुनाव कराना है. लेकिन चुनाव आयोग ने चुनावी प्रक्रिया में राजनीतिक दलों को केंद्रीय भूमिका दे दी. इसका परिणाम यह हुआ कि वास्तविक लोकतंत्र भारत में स्थापित नहीं हो सका. न तो जनता की सरकार है और न ही जनता द्वारा इसे चलाया जा रहा है. जनता चुनाव में मतदान करके पांच साल के लिए ग़ुलाम बन गई. इस ग़लती की वजह से ही लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभाएं पार्टीसभा में तब्दील हो गईं. पार्टी ही घोषणा पत्र जारी करती है. पार्टी ही उम्मीदवार खड़े करती है. पार्टी ही धनबल का इस्तेमाल करती है और शराब व पैसे बंटवाकर वोट लेती है. चुनाव की इस पूरी प्रक्रिया से जनता ग़ायब है. न कोई जनता का उम्मीदवार है, न जनता की समस्याओं के लिए लड़ने वाला उनका प्रतिनिधि है. यह लोकतंत्र का कैसा स्वरूप है, जहां जनप्रतिनिधि जनता का नहीं, बल्कि पार्टी का एजेंट बन जाता है. राजनीतिक दलों ने एक और काम किया, जिससे जनप्रतिनिधि एजेंट से पार्टियों के ग़ुलाम बन गए. ५२वें संविधान संशोधन के ज़रिए, दलबदल विरोधी क़ानून पास कर लोकसभा और विधानसभाओं को और भी पंगु बना दिया गया. इससे राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह से तानाशाह बन गईं.
यह आयोग की भूल है या फिर जानबूझ कर किया गया षड़यंत्र, इस पर हमें विचार करना होगा. राजनीतिक दलों की अहम भूमिका की वजह से आज साधारण नागरिक चुनावी प्रक्रिया से दूर चला गया है. हालांकि लोकतंत्र में नागरिकों की भूमिका स़िर्फ वोट देने तक ही सीमित नहीं है, लेकिन राजनीतिक दलों ने देश में एक ऐसे राजनीतिक वातावरण का निर्माण किया है, जिसमें आम आदमी चुनाव ल़डने के बारे में सोच भी नहीं सकता. हालत यह है कि राजनीतिक दलों ने पंचायत चुनाव तक को दूषित कर दिया है. सांसद और विधायक का चुनाव ल़डने के लिए आज पहली शर्त यही है कि आप करोड़ों रुपये का जुआ खेलने में सक्षम हैं या नहीं. प्रजातंत्र में चुनाव पर पैसे का महत्व इतना वीभत्स है कि राजनीतिक दल शराब और पैसे देकर चुनाव जीतने को ही सक्षम रणनीति मानते हैं. राजनीतिक दलों का वर्चस्व और राजनीतिक दलों की दूषित मानसिकता की वजह से भारत का स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण और भ्रष्टाचार का जनक बन चुका है. लोगों की समस्याओं के निदान के लिए सरकार कुछ करेगी, यह उम्मीद भी ख़त्म हो गई है, क्योंकि सरकार लोगों की हिस्सेदारी से नहीं चल रही है.
इसमें कोई शक नहीं है कि राजनीतिक दलों ने अपनी तिकड़म से देश के प्रजातंत्र को दूषित कर दिया है. स्वतंत्रता संग्राम में शामिल महापुरुषों के सपनों का गला घोट दिया गया है. १९४७ से पहले देश में जिस तरह शोषण था, वह आज भी है, जनता पर जिस तरह का थोपा हुआ शासन था, वह आज भी है. जिस तरह अंग्रेज भारत की संपदा को लूट रहे थे, उसी तरह आज भी लूटा जा रहा है. फ़़र्क स़िर्फ इतना है कि पहले विदेशी लूट रहे थे और आज राजनीतिक दलों की मदद से देश के ही लोग लूट रहे हैं. दरअसल, आज की सरकार अंग्रेजों की सरकार से ज़्यादा शोषण कर रही है. किसानों की ज़मीन कौ़िडयों के भाव छीनी जा रही है, जंगल पर लोगों का हक़ नहीं, नदियों पर जनता का हक़ नहीं, खनिज संपदा की लूट हो रही है और इस लूट का फ़ायदा देशी-विदेशी कंपनियां मिलकर उठा रही हैं और आश्चर्य की बात तो यह है कि सरकार इनके लिए बिचौलियों का काम कर रही है. एक के बाद एक शर्मनाक घोटाले हो रहे हैं, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती है. देश में बेरोज़गारी, अशिक्षा, कुपोषण और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी है. शर्मनाक बात यह है कि इनसे जु़डी हर योजना भ्रष्टाचार की वजह से फेल हो जाती है और कोई ज़िम्मेदार भी नहीं होता. अजीब बात यह है कि लोककल्याण की योजनाएं सफल नहीं होतीं, बल्कि भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाती हैं. देश का बच्चा-बच्चा यह जानता है कि ये योजनाएं नेताओं, अधिकारियों और पार्टी से जुड़े लोगों के कमाने का ज़रिया बन गई हैं, लेकिन न किसी को सज़ा मिलती है और न ही कोई जवाबदेह होता है. राजनीतिक दलों ने लोकतंत्र के अहम मूल्यों की पारदर्शिता और जवाबदेही को शून्य कर दिया है. लगता है कि लोकतंत्र की आड़ में देश में पार्टियों की तानाशाही चल रही है. वैसे तो यह काम संसद और विरोधी दलों का है, लेकिन संसद का आलम यह है कि वह सदनों में पारित प्रस्तावों से भी मुकर जाती है. न्यायपालिका का हाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट की वजह से लोगों की आस्था टिकी हुई है, वरना जिस तरह से देश में न्यायिक व्यवस्था है, उससे तो लोग निराश ही हैं. वह लोकतंत्र बेमानी है, जिस पर जनता का भरोसा नहीं है.
निराश जनता अब आक्रोश में है, इसीलिए सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलनों को जनता का समर्थन मिल रहा है. लोग राजनीतिक दलों के फ़रेब से तंग आ चुके हैं. अन्ना हजारे गांधी और जयप्रकाश नारायण की तरह दलगत राजनीति पर प्रहार कर रहे हैं. यह अपेक्षा करना भी बेमानी है कि राजनीतिक दल सुधरेंगे और देश में सच्चे लोकतंत्र को क़ायम करेंगे. इसलिए देश में सच्चा लोकतंत्र लाने के लिए अब लोगों को ही आगे आना होगा. राजनीतिक दलों की तिकड़मबाज़ी का विरोध करना होगा. अब व़क्त आ गया है कि सच्चे लोकतंत्र और संविधान को लागू करने के लिए देश की जनता को आज़ादी की दूसरी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार होना होगा. देश के युवाओं और चरित्रवान लोगों को राजनीतिक नेतृत्व अपने हाथ में लेना होगा, वरना आने वाले दिनों में पूरा देश चंद परिवारों के अधीन चला जाएगा.