ऐसा लगता है कि अन्ना हजारे और उनके साथियों का लक्ष्य जन लोकपाल बिल को लागू कराना नहीं, बल्कि उसका श्रेय लेना है. अगर जन लोकपाल बिल को लागू कराना मक़सद था तो एक ही दांव में जन लोकपाल बिल क़ानून बन जाता और सरकार को संभलने का मौक़ा तक न मिलता. अगर इस कमेटी में अरुण जेटली, सीताराम येचुरी, सुब्रमण्यम स्वामी, फाली एस नरीमन और अरविंद केजरीवाल होते तो ये सरकारी प्रतिनिधियों पर न स़िर्फ भारी पड़ते, बल्कि इस बिल को संसद में पास होने की गारंटी भी मिल जाती.
अन्ना हजारे का आंदोलन दिशाहीनता का शिकार हो गया है. दिशाहीनता कई स्तर पर नज़र आ रही है. दिशाहीनता का मतलब इस बात से है कि अन्ना हजारे और उनके सर्वगुण संपन्न मैनेजरों ने आंदोलन तो शुरू कर दिया, लेकिन वे यह अनुमान ही नहीं लगा पाए कि आने वाले दिनों में कौन-कौन सी चुनौतियां सामने आने वाली हैं. अपने बयानों और व्यवहारों से उन्होंने दोस्तों को भी दुश्मन बना दिया. एक ही झटके में दुश्मनों को एकजुट होने की वजह दे दी. सबसे मजेदार बात यह है कि जिनके खिला़फ वे भ्रष्टाचार की लड़ाई लड़ रहे थे, आज वे भ्रष्टाचार मिटाने वाले दिख रहे हैं और जो देश से भ्रष्टाचार मिटाने निकले थे, वही भ्रष्ट साबित हो रहे हैं. आंदोलन की खासियत यह है कि जन समर्थन से इसने अभूतपूर्व सफलता पाई, लेकिन पहली ही बैठक में सब कुछ गंवा दिया.
देश की जनता इंतजार कर रही थी कि कोई व्यक्ति होगा, जो भ्रष्टाचार की लड़ाई लड़ेगा, पर लगता है कि भ्रष्टाचार की जो लड़ाई इन लोगों ने मिलकर शुरू की, वह टूटने लगी है, बिखरने लगी है. ज़रा सोचिए, एक तऱफ प्रणव मुखर्जी, पी चिदंबरम, कपिल सिब्बल, वीरप्पा मोइली एवं सलमान खुर्शीद और दूसरी तऱफ शांतिभूषण और प्रशांत भूषण, अन्ना हजारे, संतोष हेगड़े एवं अरविंद केजरीवाल. सरकार की तऱफ से जिन लोगों को इस कमेटी में रखा गया है, वे क़ानून और राजनीति के दिग्गज हैं, अपनी दलीलों से विरोधियों को धराशायी करने में माहिर हैं. और दूसरी तऱफ, क़ानून के दो जानकार शांतिभूषण और प्रशांत भूषण हैं. दोनों आरोपों के घेरे में हैं. शांतिभूषण पर उम्र का असर भी दिखता है. वैसे अंग्रेजी नहीं जानना कोई गुनाह नहीं है, लेकिन हमारा देश भी तो अजब है. जन लोकपाल विधेयक का मसौदा भी अंग्रेजी में बना है, बहस अंगे्रजी में होगी, क्योंकि कमेटी के कई लोगों को हिंदी नहीं आती. अब अन्ना हजारे इस बहस में कैसे हिस्सा लेंगे, उन्हें अंग्रेजी नहीं आती और न ही वह क़ानून के ऐसे जानकार हैं, जो सरकारी सदस्यों को पछाड़ सकें. अरविंद केजरीवाल सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
यह अकेले सदस्य हैं, जो मीटिंग के दौरान सरकारी पक्ष से जवाब तलब कर रहे थे. जब आप किसी मीटिंग में निगोसिएशन कर रहे हैं तो सामने वाले से आपके अंदर की शारीरिक और मानसिक शक्ति इक्कीस ही होनी चाहिए, उन्नीस नहीं. यही बात अन्ना हजारे को समझ में नहीं आई. जब पहली मीटिंग के बाद ये लोग बाहर आए तो इनकी बॉडी लैंग्वेज से ही पता चल गया कि अंदर क्या हुआ. पहली मीटिंग में लोकपाल की नियुक्ति और मीटिंग की वीडियोग्राफी पर बात हुई. दोनों ही मुद्दों पर सरकारी पक्ष हावी रहा. लोकपाल की नियुक्ति की जिम्मेदारी में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता शामिल हो गए. ठीक वैसे ही, जैसे चीफ विजिलेंस कमिश्नर की नियुक्ति में होता है. इसी नियम की तरह पी जे थॉमस की नियुक्ति हुई थी. पी जे थॉमस पर भ्रष्टाचार का मामला चल रहा था, फिर भी वह इसी नियम के तहत सीवीसी बनने में कामयाब रहे थे. इस मुद्दे पर सरकार कठघरे में आ गई. मीटिंग की वीडियोग्राफी पर भी सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों को सफलता नहीं मिली. इस मीटिंग में ऑडियो रिकार्डिंग पर ही सहमति बन पाई. लोकपाल कानून बनाने की इस लड़ाई में एक आर्मी जनरल का बयान याद आता है, जो उसने 1971 के युद्ध के बारे में दिया था. वह बयान यह था कि हम पाकिस्तान से मैदान में युद्ध तो जीत गए, लेकिन शिमला में टेबल पर हार गए. डर इस बात का है कि यह सच साबित न हो जाए.
अन्ना हजारे से कई ग़लतियां हुई हैं, जिससे भ्रष्टाचार के खिला़फ आंदोलन ही दिशाहीन हो गया. पहला झटका बाबा रामदेव ने दिया, जब उन्होंने बिल ड्राफ्ट करने वाली कमेटी के लिए किरण बेदी का नाम सुझा दिया. यह पता चल गया कि आंदोलन कर रहे लोगों में एकजुटता नहीं है. इस आंदोलन की कमियां जैसे ही उजागर हुईं, दलालों ने हमले शुरू कर दिए हैं. प्रशांत भूषण और शांति भूषण, जो ज्वाइंट ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य हैं, चेयरमैन हैं, उन पर नए-नए आरोप लगे. इस पूरी कहानी के बीच एक कहानी छुप सी गई है और वह कहानी है कि काले धन को लेकर इस देश में जो जनांदोलन या जनाक्रोश शुरू हुआ, वह बाबा रामदेव से शुरू हुआ. फिर अन्ना हजारे ने लोकपाल बिल के लिए जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया. बाबा रामदेव और अन्ना हजारे में दूरियां आ गईं. आंदोलन जैसे ही अलग-थलग हुआ, दलालों ने सच के सिपाहियों पर हमले शुरू कर दिए.
अन्ना हजारे से लोगों की उम्मीद बंधी थी, लेकिन यह समझ लेना भी कि स़िर्फ आंदोलन में शामिल लोग ही प्रतिनिधित्व करते हैं, सिविल सोसायटी की एक भूल है. जो राजनेता आए, उन्हें वहां से भगा दिया गया. ओम प्रकाश चौटाला, उमा भारती को भगा दिया गया और अनुपम खेर के आने पर सब लोग प्रसन्न हो गए. किसी भी आंदोलन में अगर किसी नेता का समर्थन मिलता है तो उसे स्वीकार करना चाहिए. यह भी एक भूल थी. आंदोलन खत्म होने के बाद जब शांतिभूषण और प्रशांत भूषण पर आरोप लगा तो अन्ना ने सोनिया गांधी को चिट्ठी लिख दी. सोनिया का जवाब भी आ गया. यह भी एक जल्दबाजी में उठाया गया कदम था. एक और गलती यह हुई कि पूरे आंदोलन पर चार-पांच लोग कब्जा किए हुए बैठे थे. इसका एक उदाहरण बाबा रामदेव भी हैं. बाबा रामदेव कोई आम व्यक्ति नहीं हैं. बाबा रामदेव जंतर मंतर आए तो उन्हें वहां बैठने भी नहीं दिया गया. अन्ना हजारे के आंदोलन को 82 लाख रुपये मिले हैं, जिनमें 37 लाख खर्च हुए. खबर यह भी आई कि पैसा कांग्रेसी परिवार जिंदल ने दिया. आंदोलन के दौरान जंतर मंतर पर स़िर्फ अन्ना हजारे ही नहीं भूख हड़ताल कर रहे थे, बल्कि उनके साथ डे़ढ सौ आदमी भी अनशन पर बैठे. इन लोगों ने तीन-तीन दिनों तक भूख ह़डताल की, लेकिन उनका नाम तक नहीं लिया गया. अन्ना हजारे को उनके बीच में बैठना था. कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि अन्ना हजारे का आंदोलन कांग्रेस द्वारा संचालित था, ताकि बाबा रामदेव का आंदोलन कमज़ोर पड़ जाए. एक परिवार से दो आदमियों को रखना सबसे बड़ी भूल है.
बाबा रामदेव और अन्ना हजारे में एक समानता यह है कि दोनों बहुत ही सिक्रेटिव हैं. दोनों ही अपने कुछ चंद सलाहकारों की बातों पर चलते हैं. दोनों हर चीज को अंडर कंट्रोल रखना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि कोई भी आए, वह उनके अधीन काम करे. बाबा रामदेव की समस्या यह है कि वह गुरुकुल में प़ढे हैं. दयानंद सरस्वती का, आर्य समाज का बाबा रामदेव पर का़फी असर है. दिमाग़ी तौर पर उन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का का़फी असर है. कई बार भाषणों में वह अखंड भारत की पैरवी करते हैं. सवाल यह है कि क्या भ्रष्टाचार के खिला़फ जो आंदोलन है, वह खत्म हो चुका है. मेरा मानना है कि अभी यह खत्म नहीं हुआ है. इसके सूत्रधार न बाबा रामदेव हैं और न अन्ना हजारे. फेल हो जाने दो दोनों को, कोई और लीडर आ जाएगा. कमी थोड़े ना है इस देश में लीडरों की.
ऐसा लगता है कि अन्ना हजारे और उनके साथियों का लक्ष्य जन लोकपाल बिल को लागू कराना नहीं, बल्कि उसका श्रेय लेना है. अगर जन लोकपाल बिल को लागू कराना मक़सद था तो एक ही दांव में जन लोकपाल बिल क़ानून बन जाता और सरकार को संभलने का मौक़ा तक न मिलता. अन्ना हजारे यह समझ नहीं सके कि इस देश में भ्रष्टाचार से लड़ने वाले आदमियों की कोई कमी नही है. वह यह भी नहीं समझ सके कि राजनीतिक दलों से लड़ने के लिए राजनीति आनी चाहिए. क़ानून के जानकारों की भी कमी नहीं है और यह कहना कि जन लोकपाल बिल हमने बनाया है और इसे कोई दूसरा समझ नहीं सकता, यह बात भी ग़लत है. अन्ना हजारे को चाहिए था कि आंदोलन की सफलता के बाद वह कमेटी के लिए ऐसे लोगों के नाम आगे करते, जिससे लोकपाल बिल न स़िर्फ तैयार हो जाता, बल्कि संसद में इसे पारित होने की गारंटी भी मिल जाती. अगर इस कमेटी में अरुण जेटली, सीताराम येचुरी, सुब्रमण्यम स्वामी, फाली एस नरीमन और अरविंद केजरीवाल होते तो ये सरकारी प्रतिनिधियों पर न स़िर्फ भारी पड़ते, बल्कि इस बिल को संसद में पास होने की गारंटी भी मिल जाती.