जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी गठबंधन की ऐसी जीत इसलिए हुई, क्योंकि बिहार की जनता यह मानती है कि नीतीश कुमार की सरकार लालू यादव की सरकार से का़फी बेहतर है. चौथी दुनिया के सर्वे में 73 फीसदी लोगों ने इस बात को माना था और स़िर्फ 12 फीसदी लोगों को यह लगता था कि लालू यादव की सरकार नीतीश सरकार से बेहतर थी. इसका मतलब यह है कि लोग जब वोट देने गए तो उनके दिमाग में जाति और धर्म से ज्यादा सरकार का परफॉर्मेंस महत्वपूर्ण रहा.
बिहार की जनता को झुक कर सलाम करना होगा. बिहार चुनाव के नतीजे ने पूरे देश को चौंका दिया. पहली बार बिहार के लोगों ने यह बताया कि प्रजातंत्र में चुनाव का मतलब नेताओं और राजनीतिक दलों की हार-जीत नहीं, बल्कि जनता की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है. यही वजह है कि पहली बार बिहार के चुनाव में जातीय समीकरण ध्वस्त हो गया, धर्म की ज़ंजीरें टूट गईं. नीतीश कुमार ने जनता के सरोकार को चुनावी मुद्दा बनाया, वहीं लालू यादव और राम विलास पासवान ने धर्म और जातीय समीकरण पर भरोसा किया. नतीजा आपके सामने है. कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी को आगे कर युवाओं और मुसलमानों को अपनी तऱफ खींचना चाहा, लेकिन वह हर परीक्षा में बुरी तरह फेल हो गए. राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता बिहार चुनाव से उलझ गया है. कांग्रेस पार्टी यह भूल गई कि बिहार का चुनाव दूसरे राज्यों के चुनाव से अलग है, क्योंकि यहां की जनता राजनीतिज्ञों के इशारों को भी समझती है.
यह उन राजनीतिक दलों के लिए सबक है, जो बिना एजेंडे के, बिना पॉलिसी के, बिना विकास के किसी रोडमैप के, जाति और धर्म के नाम पर लोगों को बेवकूफ बनाकर चुनाव जीतते आए हैं. ऐसे ही नेताओं और राजनीतिक दलों को जनता ने नकार दिया. लोगों ने नीतीश कुमार को वोट इसलिए नहीं दिए कि बिहार की सारी समस्याएं खत्म हो गईं. बिहार विकसित राज्य बन गया है या फिर अपराध खत्म हो गया है. नीतीश कुमार को इसलिए वोट मिला, क्योंकि लोगों को लगा कि यही एक नेता है, जो बिहार को विकास की राह पर ले जा सकता है.
किसी भी विश्लेषक के लिए बिहार का चुनाव हमेशा से जटिल रहा है. चौथी दुनिया ने बिहार में एक चुनावी सर्वे किया था. यह सर्वे 20 से 29 सितंबर, 2010 के बीच किया गया, जिसे हमने 11-17 अक्टूबर के अंक में छापा था. चौथी दुनिया का सर्वे जिस समय किया गया, उस व़क्त मुख्य उम्मीदवारों की घोषणा नहीं हुई थी. चुनाव में लोग अपने क्षेत्र के उम्मीदवार को वोट देते हैं, जिसमें स्थानीय मुद्दे, उम्मीदवार का व्यक्तित्व और व्यवहार आदि बिंदु बहुत मायने रखते हैं. इसके अलावा बिहार के चुनावों को पढ़ पाना इसलिए भी जटिल हो जाता है, क्योंकि यहां मुद्दों से ज़्यादा जातिगत स्तर पर वोटिंग होती है. उस व़क्त किए गए सर्वे के मुताबिक़, जनता दल यूनाइटेड एवं भारतीय जनता पार्टी के गठबंधन को 130 सीटें और राष्ट्रीय जनता दल एवं लोक जनशक्ति पार्टी के गठबंधन को 95 सीटें मिलने की उम्मीद थी. अब यह सवाल है कि 29 सितंबर के बाद ऐसा क्या हो गया कि सारे समीकरण बदल गए. नीतीश कुमार ने जादू की वह कौन सी छड़ी घुमाई कि उन्हें ऐतिहासिक जीत हासिल हो गई और लालू यादव एवं राम विलास पासवान से ऐसी क्या ग़लती हुई, जिससे उनकी सीटें 95 से 25 पर पहुंच गईं. समझने वाली बात यह है कि जितने वोटों से एनडीए की जीत हुई है, कांग्रेस पार्टी को उतने वोट भी नहीं मिले.
इसके अलावा लोगों की राय यह है कि पिछले पांच सालों में अपराध कम हुआ है. यही वजह है कि नीतीश सरकार को लोगों का ज़्यादा समर्थन मिला. चौथी दुनिया के सर्वे में 56 फीसदी लोगों ने कहा कि पिछले पांच सालों में संतोषजनक विकास हुआ है. 28 फीसदी लोगों का कहना था कि पिछले पांच सालों में विकास नहीं हुआ है. जिन लोगों ने कहा कि विकास नहीं हुआ है, वे साथ-साथ यह भी कह रहे थे कि नीतीश सरकार बेहतर सरकार है. लालू प्रसाद यादव ने खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताकर लोगों को फैसला आसान कर दिया. उन्हें नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव में एक को चुनना था. लालू यादव के चेहरे के साथ-साथ 15 सालों का कुशासन भी याद आया, इसलिए लोगों ने नीतीश को चुना.
चुनाव के नतीजे आने से पहले तक यह माना जा रहा था कि मुसलमान भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड को वोट नहीं देते हैं, लेकिन चौथी दुनिया के सर्वे से यह पता चला कि 23 फीसदी मुसलमानों का भी वोट जदयू-भाजपा गठबंधन को मिलेगा. उर्दू टीचरों की बहाली की वजह से मुसलमानों में नीतीश सरकार की लोकप्रियता बढ़ी है. लेकिन जो मुसलमान लालू यादव और राम विलास पासवान के समर्थक थे, उन्हें झूठे वादों के अलावा कुछ नहीं मिला. बिहार में 54 सीटें ऐसी हैं, जहां मुसलमानों की जनसंख्या 20 फीसदी से ज़्यादा है. इन सीटों में से 43 सीटें जदयू-भाजपा गठबंधन को मिलीं. हैरानी की बात यह है कि इस गठबंधन को मिली सीटों में से 30 भारतीय जनता पार्टी और 13 जनता दल यूनाइटेड ने जीतीं. इसका मतलब यह है कि मुसलमानों ने पहली बार भाजपा को जमकर वोट दिया. भारतीय जनता पार्टी से सबा जफर ने जिस सीट (अमौर) से चुनाव जीता, वहां पर मुसलमानों की जनसंख्या 70 फीसदी है. पहली बार मुसलमानों ने अपने धार्मिक और भावनात्मक मुद्दों से बाहर निकल कर बिहार राजनीति की मुख्यधारा में आकर वोट दिए. मुसलमानों ने यह संदेश दिया है कि बिहार में उन्हें बाबरी मस्जिद, उर्दू की बढ़ोत्तरी, नौकरी में रिजर्वेशन, मदरसों को सहयता से पहले बिजली, पानी, सड़क और कानून व्यवस्था चाहिए. यह संदेश उन राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी है, जो सेकुलरिज्म और कम्युनलिज्म का हौवा खड़ा कर मुसलमानों का वोट तो ले लेते हैं, लेकिन उनके विकास के लिए कुछ नहीं करते. बिहार की यह हवा अगर पूरे देश में फैल गई तो कई पार्टियों की टोपी उड़ जाएगी. यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी की सीटें 55 से बढ़कर 91 हो गईं और लालू प्रसाद यादव एवं राम विलास पासवान अपने परंपरागत वोटरों को खो बैठे, जिससे भीषण नुकसान हुआ.
चौथी दुनिया के सर्वे में यह भी पूछा गया कि क्या चुनाव में राहुल फैक्टर का असर होगा तो स़िर्फ 36 फीसदी लोगों ने कहा कि राहुल गांधी का बिहार में असर होगा. लेकिन जिस तरह से कांग्रेस पार्टी ने कैंपेन किया, जिस तरह बिना किसी योजना और बिना किसी रोडमैप के लोगों के बीच गए, उससे लोग राहुल गांधी से भी निराश हो गए. यह बात नतीजे से सच साबित होती है. हमें यह याद रखना चाहिए कि बिहार का चुनाव राहुल गांधी के विजन, संगठन शक्ति, लोकप्रियता और चुनाव जिताने की क़ाबिलियत की अग्निपरीक्षा था. बिहार में सफलता का मतलब राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता सा़फ होना था. बिहार में राहुल गांधी फेल हो गए हैं, यह जानने के लिए चुनाव के नतीजे का इंतजार नहीं करना पड़ा. नतीजे आने से दो सप्ताह पहले के चौथी दुनिया के अंक में हमने ही यह लिख दिया था कि राहुल गांधी फेल हो गए हैं. राहुल गांधी ने बिहार के चुनाव में पहली बार बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. संगठन को मज़बूत करने में पूरी ताक़त लगा दी. राहुल के कई नजदीकी सलाहकार बिहार में कई महीने पहले से कैंप कर रहे थे. राहुल गांधी और उनके आभामंडल के इर्द-गिर्द की सारी तैयारियों, युवा भारत का सर्वमान्य नेता बनने की उनकी रणनीति को सफलतापूर्वक अंजाम दिया गया. सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने भी बिहार में कैंपेन किया. कांग्रेस की दुर्दशा इसलिए हुई कि बिहार के लोगों को यह बात समझ में आ गई कि मामला किसानों का हो या फिर उड़ीसा के नियमगिरि के आदिवासियों का, राहुल गांधी के नज़रिये और केंद्र सरकार की नीतियों में मतभेद है. राहुल गांधी ग़रीबों, किसानों और आदिवासियों के साथ नज़र आने का प्रचार करते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री की लाइन दूसरी है. राहुल गांधी की कथनी और केंद्र सरकार की करनी में ज़मीन-आसमान का अंतर है. बिहार के मुसलमानों को भी यह समझ में आ गया कि कांग्रेस पार्टी रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट और सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने की इच्छुक नहीं है. इसलिए राहुल गांधी जहां गए, भीड़ तो हुई, लेकिन लोग उन्हें स़िर्फ देखने आए. किसी ने गंभीरता से नहीं लिया, इसलिए राहुल गांधी के नाम पर लोगों ने वोट नहीं दिया. दक्षिण भारत में ऐसी कलाबाज़ियां छिप जाती हैं. बिहार में यह खेल कांग्रेस पार्टी को महंगा पड़ गया. जो वोट कांग्रेस को मिलने थे, वे भी नीतीश की झोली में चले गए. ताबूत पर आखिरी कील ठोकने का काम बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस की चुप्पी ने कर दिया.
ऐसा नहीं है कि बिहार में पिछले पांच सालों के दौरान सब कुछ ठीकठाक था. कुछ मुद्दे ऐसे भी हैं, जिन्हें लेकर बिहार की जनता सरकार से नाराज़ है. जैसे बिजली की समस्या. ज़्यादातर लोगों का मानना है कि पिछले पांच सालों में बिजली की समस्या बद से बदतर हो गई है. साथ ही भ्रष्टाचार को लेकर भी लोग निराश हैं. उन्हें लगता है कि नीतीश सरकार के दौरान अधिकारी पहले से ज़्यादा भ्रष्ट हो गए हैं. कुछ लोगों ने यह भी बताया कि सरकारी योजनाओं में अब गांव के लोग भी भ्रष्टाचार के मायाजाल के हिस्सेदार हो गए हैं. जिस मुद्दे को लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान को उठाना था, उस मुद्दे को नीतीश कुमार ने उठा दिया. चुनाव प्रचार के दौरान अपनी ़खामियों के लिए जनता से उन्होंने मा़फी भी मांगी. वह जहां गए, उन्होंने यही कहा कि पिछले पांच सालों में उन्होंने अपराध कम किया है और अगले पांच सालों में वह भ्रष्टाचार का खात्मा करेंगे. लोगों ने नीतीश कुमार की बातों पर भरोसा किया. यही वजह है कि नीतीश कुमार धीरे-धीरे अपनी सीटें 130 से बढ़ाते चले गए.
चुनावी इतिहास में ऐसे मौक़े कम आते हैं, जब सदन में नेता विपक्ष की कुर्सी खाली होती है. नेता विपक्ष बनने के लिए 10 फीसदी सीटें पाना ज़रूरी है. बिहार में किसी भी पार्टी के पास 10 फीसदी सीटे नहीं हैं. इस बार बिहार में नेता विपक्ष की कुर्सी खाली रहेगी. अब नीतीश कुमार इस स्थिति का इस्तेमाल कैसे करते हैं, यह उन भर निर्भर करता है. खतरा इस बात का है कि नई सरकार कहीं निरंकुश न हो जाए.