जदयू सांसद केसी त्यागी ने आधार कार्ड योजना से होने वाले खतरे पर सरकार से सवाल पूछे. इन सवालों पर सरकार की ओर से मिले जवाब भ्रमित करने वाले हैं. सरकार की तऱफ से योजना मंत्रालय के राज्य मंत्री इंद्रजीत सिंह ने अपने पत्र में उन्हीं दलीलों को दोहराया है, जो पिछले कई सालों से कांग्रेस सरकार देती रही. सरकार ने अपने जवाब में लिखा कि आधार कार्ड योजना सरकारी योजनाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिए शुरू की गई है. इससे ग़रीबों का फायदा होगा. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया है कि आधार कार्ड को अनिवार्य बनाना ग़लत है और इसके अभाव में किसी का ऩुकसान नहीं होना चाहिए. कहने मतलब यह कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश और सरकार की दलीलों में विरोधाभास है. एक तऱफ सरकार कह रही है कि आधार कार्ड को सरकारी योजनाओं में इस्तेमाल किया जाएगा, वहीं अदालत कह रही है कि इसे किसी योजना से जोड़ना और अनिवार्य करना ग़लत है. दरअसल, सच्चाई यह है कि कई सालों से सरकार की तऱफ से भ्रम फैलाया जा रहा है. जनता को यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि आधार कार्ड बनते ही देश में सरकारी काम आसान हो जाएगा, सारी योजनाएं सफल होने लगेंगी. जो योजना ग़रीबों तक नहीं पहुंच पाती, वह पहुंचने लगेगी और सभी लोगों को बीज एवं खाद की सब्सिडी मिलने लगेगी. सवाल तो केवल इतना ही है कि अगर यह सब नहीं हुआ, तो इसके लिए किसे ज़िम्मेदार माना जाएगा?
राज्यसभा में सांसद केसी त्यागी ने जो सवाल पूछा था, उसका सार यह था कि क्या आधार कार्ड से जुड़ी बायोमीट्रिक जानकारियां किसी विदेशी कंपनी या एजेंसी के साथ साझा की जा रही हैं या नहीं? लेकिन सरकार ने अपने जवाब में इस सवाल को ही गायब कर दिया. सरकार ने जो जवाब दिया, उसमें यह कहा गया कि आधार को जब किसी योजना से जोड़ा जाता है, तो डाटा साझा नहीं किया जाता. साथ ही यह बताया गया कि किसी भी व्यक्ति की पहचान की प्रामाणिकता यूआईडीएआई के सेंट्रल सर्वर द्वारा ही सत्यापित होती है. लेकिन, सवाल यह है कि अगर यूआईडीएआई का सेंट्रल सर्वर ही विदेशी कंपनियों के हाथ में हो, तो इसे क्या कहा जाएगा? केसी त्यागी के सवाल के जवाब में सरकार को यह बताना चाहिए कि सेंट्रल सर्वर में किन-किन कंपनियों और लोगों का एक्सेस है. हक़ीक़त यह है कि मनमोहन सरकार के दौरान यूआईडीएआई ने आधार की कार्यप्रणाली के संचालन के लिए तीन कंपनियों को चुना था. ये कंपनियां हैं एसेंचर, महिंद्रा सत्यम-मोर्फो और एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन. इन तीनों कंपनियों पर ही इस कार्ड से जुड़ी सारी ज़िम्मेदारियां हैं.
दरअसल, कई सालों से भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) ने विदेशी कंपनियों के साथ हुए समझौते को छिपाकर रखा. कई लोगों ने आरटीआई के तहत जानकारी लेने की कोशिश की, लेकिन कभी जवाब नहीं मिला. प्राधिकरण ने यह कभी नहीं बताया कि एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन, एसेंचर और दूसरी विदेशी कंपनियों के साथ क्या समझौता हुआ है. हक़ीक़त यह है कि एक सितंबर, 2010 को भारत सरकार और एसेंचर कंपनी के बीच करार हुआ था. हालांकि, इस बात का ख़ुलासा नहीं किया गया कि एसेंचर सर्विस लिमिटेड एक अमेरिकी कंपनी की सहायक कंपनी है, जो आयरलैंड के डबलिन से ऑपरेट होती है. एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन भी एक अमेरिकी कंपनी है, जिसमें अमेरिका के ख़ु़िफया और सैन्य अधिकारी बोर्ड मेंबर हैं और यह कंपनी अमेरिकी ख़ु़िफया एजेंसी के साथ काम करती आई है. अब इस कंपनी का फ्रांस के साफ्रान ग्रुप में विलय हो चुका है. देश में लोगों का सारा बायोमीट्रिक डाटा इन्हीं दोनों कंपनियों को सौंपा जाएगा, क्योंकि करार के मुताबिक़ यूआईडी डाटा का ऑपरेशन इन्हीं कंपनियों के हाथों में है. हैरानी की बात यह है कि साफ्रान ग्रुप में फ्रांस सरकार की हिस्सेदारी है और साथ-साथ अगले चालीस सालों तक चीन के साथ उनकी पार्टनरशिप है.
कहने का मतलब यह कि जो डाटा यूआईडी के नाम पर इकट्ठा किया जा रहा है, वह सुरक्षित नहीं है. यह डाटा अमेरिका, फ्रांस और चीन के हाथ लग सकता है. इसकी कोई गारंटी नहीं है कि इसे किसी और देश को नहीं बेचा जा सकता है. इन जानकारियों का ग़लत इस्तेमाल हो सकता है. इसमें एक और ध्यान देने वाली बात है. सरकार को बताना चाहिए कि क्या यह बात सही नहीं है कि फरवरी, 2014 में पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी ऑन इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की साइबर सिक्योरिटी पर एक रिपोर्ट आई थी और उसमें यह चेतावनी दी गई कि आधार कार्ड योजना न स़िर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता है, बल्कि नागरिकों की संप्रभुता एवं निजता के अधिकार पर हमला भी है. क्योंकि, जिस तरह से लोगों का बायोमीट्रिक डाटा क्लाउड टेक्नोलॉजी के तहत स्टोर किया जा रहा है, उस पर देश की सरकार का कोई अधिकार नहीं है. देश का क़ानून उस पर लागू नहीं हो सकता है. अगर लोगों की जानाकरियां कॉपी भी हो गईं या कोई उन्हें हैक करके हासिल कर लेता है, तो उसके ख़िला़फ भारत कुछ करने की स्थिति में नहीं होगा. अब तो यह बात देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि जो डाटा एक बार देश के बाहर चला गया, उस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं रह जाता. डिजिटल डाटा की कॉपी बनाना न स़िर्फ आसान है, बल्कि उसमें समय भी नहीं लगता.
यूआईडी और एसेंचर कंपनी के बीच हुए समझौते का अनुच्छेद 15.1 कहता है कि इस अनुबंध के तहत एसेंचर सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड या एसेंचर सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड की टीम भारत के किसी भी निवासी की व्यक्तिगत जानकारी का उपयोग कर सकती है.
यूआईडी और एसेंचर कंपनी के बीच हुए समझौते का अनुच्छेद 15.1 कहता है कि इस अनुबंध के तहत एसेंचर सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड या एसेंचर सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड की टीम भारत के किसी भी निवासी की व्यक्तिगत जानकारी का उपयोग कर सकती है. कहने का मतलब यह कि इस करार के तहत विदेशी कंपनियां देश के लोगों के बायोमीट्रिक डाटा का इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र हैं. समझौते के अनुच्छेद 15.1 में यह भी कहा गया कि एसेंचर कंपनी इस डाटा को सात सालों तक अपने पास रख सकती है. सात सालों में तो भारत के लोगों की बायोमीट्रिक जानकारियों की इतनी कॉपियां बन जाएंगी कि कोई यह भी पता नहीं लगा पाएगा कि ओरिजनल यानी असली किसके पास है. इसी तरह का समझौता एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन ऑपरेटिंग कंपनी के साथ कर लिया गया. इसके अलावा, यूआईडी/आधार कार्ड फॉर्म के कॉलम नंबर 9 में एक अजीबोग़रीब बात लिखी हुई है. इसे एक शपथ के रूप में लिखा गया है. कॉलम नंबर 9 में लिखा है कि यूआईडीएआई को उसके (आवेदक) द्वारा दी गई सारी जानकारियां किसी कल्याणकारी सेवा में लगी एजेंसियों को देने में उसे कोई ऐतराज़ नहीं है. इस कॉलम के आगे हां और ना के बॉक्स बने हैं. दरअसल, इस हां और ना का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि फॉर्म भरने वाले लोग हां पर टिक लगा देते हैं.
बंगलुरु में यूआईडीएआई के डिप्टी चेयरमैन ने यह घोषणा की कि यूआईडीएआई पुलिस जांच में लोगों की जानकारी मुहैया कराएगा. सवाल यह है कि क्या पुलिस एक कल्याणकारी सेवा करने वाली एजेंसी है? समस्या यह है कि इस फॉर्म पर कल्याणकारी सेवा में लगी एजेंसियों के नाम ही नहीं हैं. इसका मतलब यह है कि यूआईडीएआई जिसे भी कल्याणकारी सेवा में लगी एजेंसी मान लेगी, उसके साथ वह लोगों की जानकारियां साझा कर सकती है. यानी एक बार लोगों ने अपनी जानकारियां दे दीं, तो उसके बाद उन जानकारियों के इस्तेमाल पर उनका कोई अधिकार नहीं रह जाएगा.