मीडिया में अरविंद केजरीवाल की जय जयकार हो रही है. कोई इसे अचंभा बता रहा है तो कुछ लोग इसे चमत्कार कह रहे हैं. अरविंद केजरीवाल इन सबसे आगे हैं. वे कहते हैं यह तो भगवान का ही करिश्मा है, नहीं तो एक नई पार्टी सरकार बना सकती है यह कोई सोच भी नहीं सकता है. केजरीवाल लोगों को भ्रमित कर रहे हैं, क्योंकि अगर भगवान होते तो देश की ये हालत ही नहीं होती. अरविंद केजरीवाल असलियत जानते हैं कि दिल्ली चुनाव का नतीजा कोई करिश्मा नहीं, बल्कि एक सही रणनीति, सही प्रचार और उत्तम चुनाव-प्रबंधन का परिणाम है.
आम आदमी पार्टी बनने के पहले से ही अरविंद केजरीवाल दिल्ली का चुनाव लड़ने का मन बना चुके थे, लेकिन पार्टी बनने के बाद जून 2013 में उन्होंने इसकी घोषणा की थी. कांग्रेस और बीजेपी की यह भूल रही कि उन्होंने आम आदमी पार्टी का सही आंकलन नहीं किया, लेकिन अरविंद केजरीवाल चुनाव में कोई रिस्क लेना नहीं चाहते थे. उन्हें इस बात अंदाज़ा था कि नई पार्टी को चुनाव में खड़ा करने के लिए मेहनत की ज़रूरत होगी. सही रणनीति और ढेर सारे कार्यकर्ताओं की ज़रूरत होगी. एक तरफ़ सही मुद्दे के चयन की चुनौती थी और दूसरी तरफ़ संगठन को मज़बूत करने की चिंता थी. इसमें संगठन खड़ा करने की ज़िम्मेदारी अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, शाज़िया इल्मी और गोपाल राय ने बड़ी भूमिका निभाई. दूसरी तरफ़, मुद्दे क्या क्या हों, किस इला़के में क्या समस्या है, नारे क्या हों, लोग क्या चाहते हैं, इन सब के लिए योगेंद्र यादव और उनकी रिसर्च की पूरी टीम ने आम आदमी पार्टी को फ़ीडबैक दिया. कई सर्वे किए गए. लोगों से राय ली गई.
आम आदमी पार्टी ने सबसे पहले नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में प्रयोग किया. इस क्षेत्र से दिल्ली की भूतपूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित विधायक थीं. आम आदमी पार्टी ने पूरे क्षेत्र को 11 अगल-अलग जोन में बांटा. दूसरी पार्टियां एक विधानसभा क्षेत्र को वार्डों में बांटकर योजना बनाती हैं. हर क्षेत्र के लिए छोटी-छोटी टोलियां बनाई गईं. इसका फ़ायदा यह हुआ कि पार्टी घर-घर जाकर लोगों से संपर्क साधने में सफल हुई. शुरुआत में ऐसे लोग सामने आए जो अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जुड़े थे. इन लोगों ने घर-घर जाकर लोगों की समस्याओं का पता किया और जिनके घर गए, उन्हीं के ज़रिए पड़ोसियों से संपर्क किया. लोग परेशान तो थे ही, इसलिए उन्हें अच्छा रिस्पॉन्स मिला. साथ-साथ इन लोगों ने आम आदमी पार्टी के लिए चंदा भी इकट्ठा किया. लोगों की समस्याएं, परेशानियां और उनकी प्रतिक्रिया का जायज़ा लेते ही आम आदमी पार्टी के रणनीतिकारों को समझ में आ गया कि स़िर्फ नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र ही नहीं, बल्कि पूरी दिल्ली पर क़ब्ज़ा किया जा सकता है. इसके लिए 3000 कार्यकर्ताओं को पार्टी ने मैदान में उतार दिया.
दिल्ली की सभी सत्तर सीटों पर 11 हज़ार से ज्यादा पोलिंग बूथ हैं. किसी भी पार्टी के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती होती है कि हर पोलिंग बूथ पर पार्टी कार्यकर्ता हों. भाजपा और कांग्रेस ने ज़मीनी राजनीति जब से छोड़ी है, तब से पोलिंग के दिन बड़ी-बड़ी पार्टियां पैसे देकर लोगों को पोलिंग बूथ पर लगाती हैं. लेकिन आम आदमी पार्टी ने इस चुनौती से निपटने कि लिए दिल्ली के हर इला़के में घर-घर जाकर लोगों को पार्टी से जोड़ा. कार्यकर्ता बनाए. जो जितना समय दे सकता है उनकी पूरी लिस्ट तैयार हुई. डाटा बैंक बना. फोन नंबर जमा किए गए. हर इला़के में तीन चार बार सर्वे किया गया. जिससे पार्टी को मतदाताओं के बारे में सारी जानकारियां हासिल हो गईं. जैसे कि कौन कांग्रेस और बीजेपी के वोटर हैं. कौन न्यूट्रल वोटर हैं. युवा क्या चाहते हैं. गृहणियां क्या चाहतीं हैं. यही वजह है कि आम आदमी पार्टी हर विधानसभा क्षेत्र में इन सर्वे के ज़रिए अलग-अलग घोषणा पत्र जारी करने में सफल हुई. लोगों को लगा कि पहली बार किसी पार्टी का कार्यकर्ता उनके घर आ रहा है. संपर्क कर रहा है. साथ ही जिन मुद्दों को पार्टी ने उठाया, जैसे कि भ्रष्टाचार और महंगाई आदि, वह लोगों को दिलो-दिमाग पर च़ढ गया. दूसरा फ़ायदा यह हुआ कि आप अन्ना हजारे के आंदोलन से निकली हुई पार्टी है, इससे लोगों ने उसपर भरोसा किया. सबसे ज्यादा फ़ायदा आम आदमी पार्टी को इस बात से हुआ कि वे दूसरी पार्टियों की तरह राजनीति करने नहीं, बल्कि अन्ना हजारे के बताए रास्ते पर सेवा करने आए हैं. शहरी इलाक़ा होने की वजह से आम आदमी पार्टी को ज्यादा फ़ायदा हुआ. फोन और इंटरनेट के ज़रिए लोगों को संपर्क करना आसान हो गया. यही एक बात यह भी कहनी ज़रूरी है कि जिस ऊर्जा और समर्पण से आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मेहनत की, उससे यह काम आसान हो गया. पार्टी दिल्ली के 25 लाख घरों में पहुंचने में कामयाब हुई और चुनाव आते-आते हर बूथ पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की ट्रेनिंग भी हुई.
दिल्ली में आम आदमी पार्टी ज़मीनी स्तर पर काम कर रही थी, वहीं कांग्रेस और बीजेपी पुराने अंदाज़ में चुनाव की तैयारी कर रही थीं. बीजेपी और कांग्रेस का पूरा फोकस उम्मीदवार पर रहा, उम्मीदवारों की घोषणा के बाद कैंपेन पर रहा, जो आम आदमी पार्टी के कैंपेन के मुक़ाबले बहुत ही सतही साबित हुआ. आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने छह-सात महीने अपने-अपने इला़के में इतनी मेहनत की, जिससे लोगों ने इस बात की ओर ध्यान भी नहीं दिया कि पार्टी के उम्मीदावार का नाम क्या है. आम आदमी पार्टी के ज्यादातर उम्मीदवार न तो प्रभावशाली थे, न ही लोकप्रिय लोग थे. सचमुच वो आम आदमी थे. कोई हलवाई था, कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर था, छोटा-बड़ा व्यापारी था और ज्यादातर युवा थे. जहां दूसरी पार्टी टिकट वितरण में इला़के के आज़माए हुए, प्रभावशील व चुनाव जीतने की योग्यता रखने वाले उम्मीदवारों पर अपना ज़ोर दिया, जबकि आम आदमी पार्टी ने सतही राजनीति के नीचे सुरंग खोद कर अपनी पैठ बनाई.
आम आदमी पार्टी को सबसे ज्यादा समर्थन मध्यवर्ग का मिला. इनमें ज्यादातर सरकारी नौकरी करने वाले, छोटे व्यापारी, डॉक्टर, टीचर, वकील और पत्रकारों का सबसे ज्यादा समर्थन मिला. ये वर्ग ऐसा था जो भ्रष्टाचार और महंगाई से सबसे ज्यादा परेशान था. यही वह वर्ग है जो सरकारी विभागों से नाराज़ था. जिन्हें बिजली बिल में गड़बड़ियां नज़र आ रही थीं. वह पानी को लेकर परेशान था. अस्पताल और ट्रांसपोर्ट को लेकर चिंतित था. आम आदमी पार्टी को कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले कर्मचारियों का भी भरपूर समर्थन मिला. आम आदमी पार्टी ने हर जगह इस बात पर ज़ोर दिया कि दिल्ली में ठेके पर काम पर रोक लगा दी जाएगी. सफाई कर्मचारी, टीचर, मजदूर, ट्राइवर, मेट्रो में काम करने वाले कर्मचारियों ज्यादातर लोग ठेके पर काम करते हैं. इनकी दिल्ली में एक बड़ी आबादी है. यही वजह है कि शपथ लेने के बाद लोग अपने मुख्यमंत्री से ठेकेदारी प्रथा को ख़त्म करने की मांग कर रहे हैं. आम आदमी पार्टी को दिल्ली में मौजूद एनजीओ, सामाजिक कार्यकर्ताओं का भी भरपूर समर्थन मिला. इनमें हर विचारधारा और सोच वाले लोग शामिल थे.
आम आदमी पार्टी ने अब तक कोई वैचारिक स्पष्टता नहीं दिखाई है, इसलिए वामपंथियों को यह पार्टी केंद्र से लेफ्ट की ओर झुकी नज़र आती है और वहीं दक्षिणपंथियों को यह पार्टी गुड गवर्नेंस देने वाली केंद्र से राइट की ओर झुकी नज़र आती है. इससे पार्टी को यह फ़ायदा हुआ कि विचारधारा के आधार पर किसी ने आम आदमी पार्टी को ख़ारिज नहीं किया. जो संगठन जिन वर्गों में काम कर रहा था, वहां आम आदमी पार्टी का प्रचार स्वत: हो गया. दिल्ली के ज्यादातर एनजीओ झुग्गी-झोपड़ी में काम करते हैं. इन ग़ैर-सरकारी संगठनों ने आम आदमी पार्टी का जमकर प्रचार किया. झुग्गी-झोपड़ी में अब तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा. कांग्रेस पार्टी झुग्गियों में यहां के प्रभावशाली लोगों के ज़रिए ऑपरेट करती आई है. यह बात भी छिपी नहीं है कि पार्टियां पहले झुग्गियों में चुनाव से पहले पैसे और शराब बांटती थीं और लोगों का वोट पाती थीं. लेकिन पहली बार आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने स्वयंसेवी संस्थाओं के ज़रिए झुग्गियों में रहने वाले मतदाताओं से सीधा संपर्क साधा. उन्हें घर देने का वादा किया. ठेके पर काम करने से मुक्ति दिलाने का भरोसा दिया. लोगों ने आम आदमी पार्टी के वादों पर भरोसा किया. यही वजह है कि यह वर्ग आम आदमी पार्टी के ग़ढ में तब्दील हो गया.
राजनीतिक विश्लेषक दिल्ली में आप की सफलता को चुनाव से पहले आंकने में असफल रहे. ऐसा इसलिए, क्योंकि आम आदमी पार्टी के साथ दो चीज़ें ऐसी हुईं, जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता. पहला यह कि 2008 के चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी को 14.05 फ़ीसदी वोट मिले थे. यह तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता है कि बसपा का वोटर भी किसी दूसरी पार्टी को वोट दे सकता है और दूसरा यह कि कांग्रेस पार्टी की वोट बैंक भी खिसक सकता है. आंकलन यह था कि कांग्रेस पार्टी तो हारेगी, लेकिन बीजेपी जीत जाएगी. कांग्रेस पार्टी हारने के बावजूद 20-25 सीट जीत जाएगी. लेकिन यही उल्टा हो गया. कांग्रेस का परंपरागत वोट आम आदमी पार्टी में ट्रांसफर हो गया और बीजेपी इसलिए हारी, क्योंकि आम आदमी पार्टी उनके मध्यमवर्ग वोटरों में सेंध मारने में सफल हुई.
दिल्ली में सरकार बन गई है. अरविंद केजरीवाल अब छह महीने तक सुरक्षित हैं. अगर कांग्रेस पार्टी आम आदमी पार्टी से समर्थन भी खींच लेती है, तब भी अब लोकसभा चुनाव के बाद ही दिल्ली में चुनाव होने की संभावना है. अब एक सवाल यह उठता है कि अगर फिर से चुनाव होगें तो क्या होगा? क्या आम आदमी पार्टी को फिर से सफलता मिलेगी? क्या आम आदमी पार्टी को इस बार स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा? अगर दिल्ली में फिर से चुनाव होते हैं तो आम आदमी पार्टी से ज्यादा बीजेपी को चिंतित होना चाहिए और कांग्रेस पार्टी को शायद चिंता करने की ज़रूरत न पड़े, क्योंकि कांग्रेस इस स्थिति में ही नहीं होगी. भारतीय जनता पार्टी को अगर दिल्ली में फिर से सरकार बनानी है तो उन्हें आम आदमी पार्टी की तरह ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं को तैयार करना होगा. जो घर-घर जाकर संपर्क बना सके. दिल्ली में अब पुराने रीति-रिवाज वाली राजनीति का अब कोई स्थान नहीं है. जो पार्टी जनता के साथ जितना सामंजस्य स्थापित करेगी, वही दिल्ली में राज करेगी. यही लोकसभा में होगा, यही विधानसभा और एमसीडी के चुनावों में होगा. इसमें कोई शक नहीं है कि अगर फिर से चुनाव हुए तो आम आदमी पार्टी को आसानी से बहुमत मिल जाएगा. इसकी वजह यह है कि अब दिल्ली में आम आदमी पार्टी का संगठन दिल्ली के चप्पे-चप्पे में खड़ा हो चुका है. इस बार मुसमलानों का समर्थन आम आदमी पार्टी को नहीं मिला है और यही आम आदमी पार्टी के लिए अवसर है, क्योंकि मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा उसी पार्टी को वोट देता है, जो बीजेपी को हरा सकती है. यही वजह है कि दिल्ली में अगर फिर से चुनाव हुए तो बीजेपी को हराने का दमखम स़िर्फ आम आदमी पार्टी के पास होगा और वे मुसलमानों के वोट के हक़दार हो जाएंगे. इससे कांग्रेस पार्टी के वोट पर ऐसा असर पड़ेगा कि दिल्ली अगले कई चुनावों के लिए आप बनाम बीजेपी में तब्दील हो जाएगी.