देश में जिस तरह का राजनीतिक माहौल बनाया जा रहा है, उससे साफ़ लगता है कि दंगे होने वाले हैं. देश का मीडिया, राजनीतिक दल और राजनेता इस देश में दंगे कराने पर आमादा हैं. दंगे कराने वालों में सांप्रदायिक ताकतों के साथ- साथ वे कथित सेकुलर ताकतें भी हैं, जिनकी निगाह उस 19 फ़ीसद वोटों पर है, जिन्हें वे बड़ी बेशर्मी से मुस्लिम वोटबैंक कहती हैं. कोई चेहरा दिखाकर मुसलमानों को डरा रहा है, तो कोई हमदर्द होने का दिखावा करके. हैरानी इस बात की है कि मुसलमानों के वोटों के लिए तो सब लड़ रहे हैं, लेकिन मुसलमानों के लिए लड़ने वाला कोई भी नहीं है. मुसलमानों की समस्याएं ख़त्म करने के लिए न तो किसी के पास ठोस नीति है और न ही इरादा. सभी राजनीतिक दलों की एकमात्र रणनीति है, मुसलमानों के साथ फरेब करना. राजनीति के ऐसे फरेबी माहौल में मुसलमानों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे क्या करें और कहां जाएं?
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी एवं जनता दल यूनाइटेड बिहार और उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाली राजनीति पर आमादा हैं. इन सभी पार्टियों के नेताओं को लगता है कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने का सुनहरा अवसर है. इन पार्टियों को यह भी लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उन्हें उतना ही फ़ायदा मिलेगा. इसलिए यह कहा जा सकता है कि चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ये पार्टियां किसी भी हद तक जा सकती हैं.
नीतीश कुमार ने भाजपा से अब रिश्ता तोड़ लिया है. ऊपर से देखने में यह फैसला धर्मनिरपेक्ष राजनीति का एक उदाहरण ज़रूर लगता है, लेकिन इससे जो भविष्य की रेखा खिंचती है, वह बिहार में सांप्रदायिकता को मजबूत करने वाली है. जैसे कि पहले मोदी बिहार में चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाते थे, अब वह आराम से बिहार का दौरा कर सकेंगे.
सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी की बात करते हैं. भाजपा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान कमेटी का मुखिया बना दिया. इससे साफ़-साफ़ एक संकेत मिलता है कि वह लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ेगी. आडवाणी ने मोदी का विरोध किया, लेकिन भाजपा टस से मस नहीं हुई. उन्होंने पार्टी के सभी दायित्वों से इस्तीफ़ा भी दे दिया, पर उसका भी असर नहीं हुआ. भाजपा के दर्जनों नेता मोदी के ख़िलाफ़ हो गए, फिर भी आरएसएस ने अपना फैसला नहीं बदला. मोदी के लिए भाजपा बिहार सरकार से बाहर हो गई और मंत्रियों को कुर्सी से हाथ धोना पड़ा, लेकिन फिर भी मोदी बने रहे. भाजपा को अपने सबसे भरोसेमंद साथी जदयू से रिश्ता तोड़ना पड़ गया, बावजूद इसके फैसले पर कोई असर नहीं हुआ. अब जबकि नरेंद्र मोदी पर पार्टी इतना बड़ा दांव खेल रही है, तो इसका मतलब साफ़ है कि संघ परिवार किसी रणनीति पर काम कर रहा है और उस रणनीति के विरोध में जो भी खड़ा होगा, उसे दरकिनार कर दिया जाएगा. अब समझते हैं कि मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के मायने क्या हैं.
नरेंद्र मोदी चाहे विकास की बात करें या फिर भविष्य के भारत का कोई हसीन सपना दिखाएं, लेकिन उनके सामने आते ही चुनाव का ध्रुवीकरण होना निश्चित है. यह बात भाजपा और संघ परिवार के रणनीतिकारों को अच्छी तरह मालूम है. इसके बावजूद, भाजपा ने अपने सबसे बड़े नेता के रूप में मोदी को सामने रखकर यह साफ़ कर दिया कि वह 2014 में हिंदू-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण चाहती है. दरअसल, भाजपा को यही लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उसे उतना ही ज़्यादा फ़ायदा होगा. इसलिए इस रणनीति के तहत ही मोदी के हाथों चुनाव की कमान सौंप दी गई है. ऐसी रणनीति पर चुनाव लड़ने का मतलब यही है कि देश में भाईचारा ख़त्म हो जाए, दंगे हो जाएं या फिर लोगों की जानें चली जाएं, पर चुनाव जीतने के लिए ध्रुवीकरण करना ही एकमात्र रास्ता है. मोदी अब तक विकास की बातें करते आए हैं और इस रणनीति की पुष्टि उन्होंने पठानकोट में कर ही दी. मोदी ने चुनावी अभियान की शुरुआत पठानकोट से की. यहां उन्होंने यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू एवं धारा 370 ख़त्म करने की बात करके यह स्पष्ट कर दिया कि सद्भावना मिशन स़िर्फ मुसलमानों को बहलाने के लिए है, जबकि उनका असली एजेंडा कुछ और ही है.
दूसरी तरफ़, अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद के नेताओं का जमावड़ा शुरू हो गया. बीते 12 जून को विश्व हिंदू परिषद की कोर कमेटी, यानी केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की यहां बैठक हुई. विश्व हिंदू परिषद ने यह ऐलान किया कि अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए वह 25 अगस्त से यात्रा शुरू करेगी, जो 19 दिनों की होगी और यह अयोध्या से सटे बस्ती से शुरू होकर 13 सितंबर को अयोध्या में ही ख़त्म होगी. यात्रा के दौरान यूपीए सरकार से यह मांग की जाएगी कि वह संसद में क़ानून बनाकर विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण कराए. और अगर सरकार ऐसा नहीं करती है, तो 18 अक्टूबर को विश्व हिंदू परिषद अयोध्या में साधु-संतों का एक महाकुंभ आयोजित करेगी. ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह मामला अदालत में है और ऐसे में सरकार से इस तरह की मांग करने का मतलब साफ़ है कि सरकार क़ानून पास नहीं कर सकती है. दूसरा ख़तरनाक पहलू यह है कि यह यात्रा बस्ती से शुरू होकर उत्तर प्रदेश के उन इलाकों में जाएगी, जो न स़िर्फ संवेदनशील हैं, बल्कि जहां मुसलमानों की संख्या काफी ज़्यादा है. आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के लोग ख़तरे से खेलना चाहते हैं, क्योंकि यहां की एक चिंगारी पूरे देश में आग लगा सकती है. इतने सालों तक सोए रहने के बाद, चुनाव से ठीक पहले इस तरह का कार्यक्रम तय करने का मतलब साफ़ है कि भाजपा ने विश्व हिंदू परिषद के कंधे पर बंदूक रखकर माहौल को सांप्रदायिक बनाने की पूरी तैयारी कर ली है. भाजपा इस चुनाव के दौरान राम जन्मभूमि, धारा 370 और यूनिफॉर्म सिविल कोड को मुद्दा बनाने वाली है. दरअसल, ये ऐसे मुद्दे हैं, जो न स़िर्फ मुस्लिम विरोधी हैं, बल्कि एक तरह से यह देश की एकता एवं अखंडता ख़तरे में डालने वाला डायनामाइट है. सच तो यह है कि ऐसे मुद्दों से न केवल भावनाएं भड़क सकती हैं, बल्कि दंगे भी हो सकते हैं.
चुनाव का ध्रुवीकरण करने और भावनाओं को भड़काने में कांग्रेस पार्टी भी पीछे नहीं है. फ़र्क स़िर्फ इतना है कि भाजपा मोदी को आगे करके ध्रुवीकरण की राजनीति कर रही है और कांग्रेस एवं तमाम दूसरी सेकुलर पार्टियां संघ परिवार का खौफ दिखाकर. कांग्रेस के प्रवक्ता एवं नेता और कांग्रेस द्वारा नियंत्रित मीडिया मोदी के नाम का इतना बड़ा हौव्वा बना रही है कि जैसे देश में मोदी के अलावा, कोई दूसरा मुद्दा ही नहीं है. कांग्रेस ने 2014 का चुनाव एक साल पहले से ही मोदी केंद्रित कर दिया है. कांग्रेस ने मोदी के हर बयान का जवाब देना अपना परम कर्तव्य समझ लिया है. मोदी जो करते हैं उसके बारे में या तो टिप्पणी आती है या फिर उसी काम में पूरी कांग्रेस लग जाती है. प्राकृतिक आपदा के बाद मोदी उत्तराखंड गए. पहले तो उन्हें रोककर कांग्रेस ने बेवजह विवाद खड़ा किया और फिर अपने तीन-तीन मंत्रियों को उत्तराखंड भेज दिया. मोदी दो दिन उत्तराखंड में रहे, तो राहुल गांधी भी दो दिन उत्तराखंड में लोगों से मिलते रहे. मोदी के बारे में कोई ख़बर छप जाती है, तो कांग्रेस के मंत्री फौरन उसका जवाब देने के लिए मीडिया में पहुंच जाते हैं. कहने का मतलब यह कि जितना मोदी स्वयं अपना प्रचार करते हैं, उससे ज़्यादा उनका प्रचार कांग्रेस कर रही है. ऐसा इसलिए, क्योंकि कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि मोदी के आगे आने से उन्हें फ़ायदा होने वाला है, क्योंकि मुसलमानों के पास कांग्रेस के सिवाय कोई और दूसरा विकल्प नहीं है.
सवाल यह उठता है कि क्या स़िर्फ मोदी का विरोध करने मात्र से कांग्रेस का दायित्व ख़त्म हो जाता है? क्या देश में सेकुलरिज्म के मायने स़िर्फ मोदी विरोध तक ही सीमित है? भाजपा मुसलमानों को लुभाने के लिए उनके सामाजिक एवं आर्थिक विकास का एक रोडमैप लेकर सामने आ गई, लेकिन कांग्रेस ने क्या किया? क्या मुसलमानों को फिर से आरक्षण का लालीपॉप दिखाकर धोखा दिया जाएगा, जैसा कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ था? विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस ने हद ही कर दी. पहले उर्दू अख़बारों और अन्य मीडिया के जरिए अल्पसंख्यक आरक्षण को मुस्लिम आरक्षण बताकर मुसलमानों को ठगने की कोशिश की गई. जब यह चोरी पकड़ी गई, तो सलमान खुर्शीद ने मुसलमानों को 9 फ़ीसद आरक्षण देने का वादा कर दिया, लेकिन जब कांग्रेस पार्टी का चुनाव घोषणापत्र सामने आया, तो मुसलमानों के संदर्भ में लिखी गई बातें उर्दू और अंग्रेजी में अलग-अलग थीं. यह किस तरह की राजनीति है? क्या कांग्रेस को लगता है कि हर बार की तरह इस बार भी झूठे वादे करके वह मुसलमानों को ठगने में कामयाब हो जाएगी? जैसा कि अब तक का इतिहास रहा है, उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस फिर मुसलमानों के लिए आरक्षण एवं किसी पैकेज का झूठा ऐलान करके उनके वोट लेने की तैयारी में लगी हुई है. ऐसी राजनीति का नतीजा यह होता है कि मुसलमानों के हाथ लगता कुछ भी नहीं है, उल्टे मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध में ध्रुवीकरण ज़रूर हो जाता है. शायद कांग्रेस भी यही चाहती है. लगता है, कांग्रेस झूठे वादे करके, अफवाहें फैलाकर, डरा-धमका कर और मोदी का खौफ दिखाकर ध्रुवीकरण की रणनीति को अंजाम देने में लगी हुई है, ताकि मुसलमानों के 19 फ़ीसद वोट उसे बैठे-बिठाए मिल जाएं. कांग्रेस भी इस इंतज़ार में बैठी है कि माहौल में सांप्रदायिकता का ज़हर घुले, ताकि वह इसका चुनावी फ़ायदा उठा सके.
लेकिन कांग्रेस की रणनीति में एक बहुत बड़ी त्रुटि है. मुसलमान या मोदी विरोधियों का वोट उसी उम्मीदवार को मिलेगा, जो भाजपा के उम्मीदवार को हराने में सबसे ज़्यादा सक्षम होगा. चूंकि यह चुनाव मोदी के समर्थन और विरोध के बीच एक लड़ाई है, इसलिए मोदी विरोधी कोई जोखिम नहीं उठाएंगे. इस बार स्ट्रैटजिक वोटिंग के साथ इंटेलिजेंट वोटिंग भी होगी. यही सोच मुलायम सिंह यादव की है. उन्हें लगता है कि मोदी के आगे आने से लोकसभा चुनाव के सारे मुद्दे ख़त्म हो जाएंगे और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को मुद्दा बनाएंगे तथा भाजपा को हराने के लिए समाजवादी पार्टी के साथ आ जाएंगे. कहने का मतलब यह है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकऱण होगा, समाजवादी पार्टी को उतना ही फ़ायदा होगा. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार मोदी के वहां आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रही है, क्योंकि मोदी ही उसकी जीत की कुंजी हैं. आने वाले समय में समाजवादी पार्टी मोदी एवं विश्व हिंदू परिषद को कोहराम मचाने के लिए न केवल छूट देगी, बल्कि जमकर विरोध भी करेगी. मतलब यह कि चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिकता का ज़हर घोलेगी, तो कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टी आग में घी डालने का काम करेंगी.
ऐसी ही रणनीति का उदाहरण नीतीश कुमार हैं. नीतीश कुमार की राजनीति को मुसलमानों ने फिर से 30 साल पीछे धकेल दिया है और भाजपा को सांप्रदायिक राजनीति करने की पूरी छूट दे दी. बिहार में नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के बीच गठबंधन था, सरकार चल रही थी. दोनों ने मिलजुल कर कई चुनाव भी लड़े. बिहार में पहली बार मुसलमानों ने खुलकर भाजपा को वोट दिया. भाजपा के टिकट से मुस्लिम उम्मीदवार भी चुनाव जीतकर आए. नीतीश कुमार एवं सुशील मोदी ने अपनी सूझबूझ से सांप्रदायिकता को राज्य से दूर ही रखा. उनकी गठबंधन सरकार के दौरान भागलपुर के दंगों के दोषियों को सजा भी मिली. चुनाव में भाजपा ने विवादित मुद्दे कभी नहीं उठाए और न ही नरेंद्र मोदी को बिहार में पैर जमाने का कोई मौक़ा दिया. जब-जब चुनाव हुए, नरेंद्र मोदी को बिहार आने से रोका गया. इसमें जितना रोल नीतीश कुमार का था, उतना ही सुशील मोदी का भी था. मुसलमान विकास एवं सुशासन के नाम पर बिना खौफ वोट करते रहे.
नीतीश कुमार ने भाजपा से अब रिश्ता तोड़ लिया है. ऊपर से देखने में यह फैसला धर्मनिरपेक्ष राजनीति का एक उदाहरण ज़रूर लगता है, लेकिन इससे जो भविष्य की रेखा खिंचती है, वह बिहार में सांप्रदायिकता को मजबूत करने वाली है. जैसे कि पहले मोदी बिहार में चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाते थे, अब वह आराम से बिहार का दौरा कर सकेंगे. पहले भाजपा विवादित मुद्दे उठाने से बचती थी, अब वह ऐसे सारे मुद्दे उठा सकेगी, जो विवादित और समाज को बांटने वाले हैं. नीतीश कुमार के फैसले के पीछे भी चुनावी राजनीति का समीकरण है. बिहार में 15 सालों तक लालू यादव का वर्चस्व रहा. वह चुनाव नहीं हारते थे, क्योंकि उनकी जीत का फॉर्मूला यादवों एवं मुसलमानों के वोटों का गठजोड़ था. लेकिन जबसे मुसलमानों ने लालू यादव को वोट देना बंद कर दिया, तबसे वह बिहार की सत्ता से बाहर हो गए. मुसलमानों ने लालू यादव को इसलिए वोट देना बंद किया, क्योंकि 15 सालों में उनकी सरकार ने मुसलमानों के विकास के लिए कुछ भी नहीं किया. मुसलमानों को लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है, इसलिए उन्होंने जदयू-भाजपा गठबंधन का साथ दिया. नीतीश का भाजपा से अलग होने का फैसला वैचारिक मतभेद से ज़्यादा चुनावी समीकरण का नतीजा है. नीतीश जानते हैं कि बिहार में लालू यादव को कमजोर करके ही सत्ता में कायम रहा जा सकता है. जिस दिन मुसलमान वापस लालू के साथ हो गए, उसी दिन उनकी सत्ता की नींव कमजोर हो जाएगी. इसलिए हर चुनाव से पहले वह मोदी का विरोध करके मुसलमानों का दिल जीतने में कामयाब रहे. इसलिए जैसे ही भाजपा ने मोदी के नाम की घोषणा की, वैसे ही उन्होंने उससे रिश्ता तोड़ लिया. इससे नीतीश को चुनाव में कितना फ़ायदा होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन उनका फैसला उसी रणनीति का नतीजा है, जिस पर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी काम कर रही है.
दरअसल, भारतीय राजनीति विचारशून्य हो गई है. सेकुलरिज्म का मतलब स़िर्फ अल्पसंख्यकों के वोट धोखे से हासिल कर लेना भर रह गया है. केंद्र में कांग्रेस की सरकार है, बिहार में नीतीश और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की. ये सब दिन-रात सेकुलरिज्म की दुहाई देते हैं, लेकिन इनमें से किसकी सरकार ने ग़रीब अल्पसंख्यकों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए कोई समग्र योजना तैयार की है? किसने उन्हें निरक्षरता के अंधेरे से बाहर निकालने की कोशिश की? हर किसी ने मुसलमानों के साथ धोखा किया. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने मुसलमानों के पिछड़ेपन की हकीकत बता दी. रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट ने कई सारे सुझाव दिए. तीन-चार साल से यह रिपोर्ट सरकार की आलमारी में सड़ रही है और किसी सेकुलर पार्टी को इसकी सुध लेने की फुर्सत भी नहीं है. बाकी जिन समस्याओं से देश गुजर रहा है, उनका तो मुसलमानों पर असर पड़ ही रहा है, लेकिन जिस तरह की आर्थिक नीति देश में लागू की जा रही है, उससे मुसलमान अलग से परेशान हो रहे हैं. किसी सेकुलर पार्टी ने अब तक इस बात पर क्यों ध्यान नहीं दिया कि उदारवाद की आर्थिक नीति की वजह से सबसे ज़्यादा मुसलमान पिसे हैं, सबसे ज़्यादा मुसलमान बेरोजगार हुए हैं. बाज़ार में चीनी सामान आने से सबसे ज़्यादा मुसलमान कारीगर परेशान हैं, एफडीआई की वजह से सबसे ज़्यादा मुसलमानों का व्यवसाय चौपट होगा. कहने का मतलब यह है कि देश के राजनीतिक दलों ने सेकुलरिज्म का मतलब केवल मुसलमानों से वोट लेना समझ लिया है. झूठे वादे करके मुसलमानों को धोखा देना ही सेकुलरिज्म का सही अर्थ लगा लिया गया है. चुनाव आते ही राजनीतिक दलों को मुसलमानों का आरक्षण याद आता है. बोलियां लगने लगती हैं. कोई 5 फ़ीसद, तो कोई 9 फ़ीसद, तो कोई 19 फ़ीसद आरक्षण की बात करता है और जब चुनाव हो जाते हैं, तो सब कुछ जीरो हो जाता है.
भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी एवं जनता दल यूनाइटेड बिहार और उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाली राजनीति पर आमादा हैं. इन सभी पार्टियों के नेताओं को लगता है कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने का सुनहरा अवसर है. इन पार्टियों को यह भी लगता है कि जितना ज़्यादा ध्रुवीकरण होगा, उन्हें उतना ही फ़ायदा मिलेगा. इसलिए यह कहा जा सकता है कि चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ये पार्टियां किसी भी हद तक जा सकती हैं. कोई डरा-धमका कर, विवादित भाषण देकर, तो कई मीठा जहर घोलकर वोटरों को बांटने की कोशिश करेगा. इनके अलावा, और भी कई पार्टियां हैं, जो इस दौड़ में थोड़ी पीछे ज़रूर नज़र आ रही हैं, लेकिन वे चुनाव के दौरान कैटेलिस्ट का काम करेंगी, जैसे लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल, रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी. ये पार्टियां भी सेकुलर राजनीति की दुहाई देकर वोटरों को बांटने की कोशिश करेंगी. जब इतनी सारी पार्टियां एक साथ एक मकसद पर काम करेंगी, तो नतीजा क्या निकलेगा, यह बिल्कुल साफ़ है. इसलिए हमें यह मानकर चलना चाहिए कि दंगे होने वाले हैं.