योग गुरु बाबा रामदेव ने आगामी 9 अगस्त से भ्रष्टाचार और काले धन के ख़िलाफ़ देशव्यापी आंदोलन करने का ऐलान किया है. इसके तहत बीते 4 जून से देश भर में ग्राम सभा से लेकर लोकसभा तक मुहिम चलाई जा रही है. इस आंदोलन से एक दिन पहले 8 अगस्त को प्रधानमंत्री को एक ज्ञापन दिया जाएगा, जिसमें कई मांगें होंगी. अगर उन मांगों को नहीं माना गया तो 9 अगस्त से आंदोलन शुरू कर दिया जाएगा. बाबा रामदेव का मानना है कि इस आंदोलन में उन्हें अन्ना हजारे का पूरा समर्थन मिलेगा. बाबा रामदेव का आंदोलन पिछले कई सालों से चल रहा है. कई बार उतार-चढ़ाव भी आए हैं. बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ लोगों को जागरूक भी किया है, लेकिन साथ-साथ उनसे कई ग़लतियां भी हुई हैं. बाबा रामदेव के साथ जनसमर्थन है, लेकिन अब जिस रणनीति पर वह चल रहे हैं, उससे यही लगता है कि उन्हें जनता की शक्ति का अंदाज़ा नहीं है, उन्हें जनता की ताक़त पर भरोसा नहीं है, उन्हें आंदोलन के दूरगामी प्रभाव का अंदाज़ा नहीं है. बाबा रामदेव टीडीपी के एन चंद्रबाबू नायडू, भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी, एनसीपी के शरद पवार, आरएलडी के अजीत सिंह, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता और बसपा अध्यक्ष मायावती से समर्थन मांग रहे हैं. वह ऐसे लोगों से समर्थन मांग रहे हैं, जिन पर भरोसा करना भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ आंदोलन को कमज़ोर करना है.
लगता है, बाबा रामदेव को किसी ने लेनिन के क्रांतिकारी सिद्धांतों की ग़लत व्याख्या समझा दी है. व्लादिमीर इलिच लेनिन एक महान रूसी क्रांतिकारी थे, साथ ही वह एक राजनीतिक दार्शनिक, नेता एवं लेखक भी थे. दुनिया भर में जितने भी आंदोलन और क्रांतियां हुईं, उनमें लेनिन के विचारों का प्रभाव सा़फ-सा़फ दिखता है. उन्होंने रूसी क्रांति के दौरान एक किताब लिखी, जिसका शीर्षक है, एक क़दम आगे दो क़दम पीछे. लेनिन ने यह किताब 1904 में लिखी थी. उस व़क्त पार्टी का बोलशेविक और मेनशेविक में विभाजन हो गया था. बोलशेविक एक क्रांतिकारी पार्टी के रूप में उभरी, जिसे लेनिन ने उसे एक क़दम आगे होने से परिभाषित किया, क्योंकि उनका मानना था कि रूस में क्रांति के लिए एक ऐसी पार्टी की ज़रूरत है, जिसमें वैचारिक और सांगठनिक एकता हो, ताकि वह लोगों को क्रांति के लिए तैयार कर सके और मेनशेविक के अलग होने को उन्होंने दो क़दम पीछे बताया था. अगर लेनिन की इस थ्योरी का ग़लत मतलब निकाला जाए और एक क़दम आगे दो क़दम पीछे को स़िर्फ अक्षरश: समझा जाए तो यही लगेगा कि एक क़दम आगे लेकर कोई दो क़दम पीछे ले ले तो वह हमेशा पीछे की ओर ही जाता रहेगा. बाबा रामदेव ने लेनिन के इस गूढ़ विचार को समझने में ग़लती की है. यही वजह है कि वह जब भी थोड़ा आगे बढ़ते हैं, ऐसा कोई काम कर जाते हैं, जिससे उनका आंदोलन पीछे चला जाता है.
क्या बाबा रामदेव इस बात से अनजान हैं कि देश की राजनीतिक पार्टियों का काले धन से क्या रिश्ता है. चुनाव में काले धन का इस्तेमाल क्या हिंदुस्तान में खत्म हो गया है. बाबा रामदेव मुलायम सिंह से समर्थन मांगते हैं, लेकिन क्या उन्हें पता नहीं है कि मुलायम सिंह यादव पर आय से ज़्यादा संपत्ति अर्जित करने का मामला चल रहा है. बाबा रामदेव कहते हैं कि आईपीएल में काले धन का इस्तेमाल हो रहा है, फिर भी वह शरद पवार से समर्थन मांगते हैं. बाबा रामदेव कैसे भूल गए कि शरद पवार का क्रिकेट से क्या रिश्ता है. बाबा रामदेव नितिन गडकरी के पास जाते हैं, उन्हें आशीर्वाद देते हैं, लेकिन क्या भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में भ्रष्टाचार खत्म हो गया है. बाबा रामदेव उड़ीसा के मुख्यमंत्री का समर्थन चाहते हैं, लेकिन वह इस बात को कैसे भूल गए कि उड़ीसा में खनन मा़फिया देश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा लूट रहे हैं.
बाबा रामदेव काले धन के खिलाफ राजनीतिक दलों और नेताओं से समर्थन मांग रहे हैं. वह कहते हैं कि काला धन देश की सबसे बड़ी समस्या है. क्या बाबा रामदेव इस बात से अनजान हैं कि देश की राजनीतिक पार्टियों का काले धन से क्या रिश्ता है. चुनाव में काले धन का इस्तेमाल क्या हिंदुस्तान में खत्म हो गया है. बाबा रामदेव मुलायम सिंह से समर्थन मांगते हैं, लेकिन क्या उन्हें पता नहीं है कि मुलायम सिंह यादव पर आय से ज़्यादा संपत्ति अर्जित करने का मामला चल रहा है. बाबा रामदेव कहते हैं कि आईपीएल में काले धन का इस्तेमाल हो रहा है, फिर भी वह शरद पवार से समर्थन मांगते हैं. बाबा रामदेव कैसे भूल गए कि शरद पवार का क्रिकेट से क्या रिश्ता है. बाबा रामदेव नितिन गडकरी के पास जाते हैं, उन्हें आशीर्वाद देते हैं, लेकिन क्या भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में भ्रष्टाचार खत्म हो गया है. बाबा रामदेव उड़ीसा के मुख्यमंत्री का समर्थन चाहते हैं, लेकिन वह इस बात को कैसे भूल गए कि उड़ीसा में खनन मा़फिया देश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा लूट रहे हैं. बाबा रामदेव ऐसे लोगों से हाथ मिलाना चाहते हैं, जो भ्रष्टाचार के पालक और पोषक हैं. सबसे दु:खद बात यह है कि बाबा रामदेव को पता नहीं है कि उनकी इस मुहिम का असर क्या हो रहा है. बाबा रामदेव का इन नेताओं से समर्थन लेना उन्हें क्लीन चिट देना है.
बाबा रामदेव कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं. वह एक योगी हैं. पिछली बार का रामलीला मैदान का आंदोलन असफल रहा, उस असफलता से बाबा रामदेव ने कोई सीख नहीं ली. वह फिर उसी राह पर चल रहे हैं, ऐसे लोगों से मिल रहे हैं, जिनकी फितरत ही धोखा देने की है. पिछली बार के आंदोलन में सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब कांग्रेस ने गुप्त समझौते की बात जगज़ाहिर कर दी. लोगों को विश्वास नहीं हुआ कि बाबा एक तऱफ सरकार के खिलाफ अनशन कर रहे थे और दूसरी तऱफ वह सरकार के नुमाइंदों के साथ समझौता भी कर रहे थे. हालांकि इसमें कोई नई बात नहीं है. छोटे या बड़े, ज़्यादातर आंदोलनों में लोग इस तरह की रणनीति बनाकर चलते हैं कि अनशन या आंदोलन खत्म करने का रास्ता बना रहे. लेकिन बाबा रामदेव ने जिस तरह से सरकार के साथ समझौता किया और जिस तरह बातचीत पटरी से उतर गई, उससे यही साबित हुआ कि बाबा रामदेव राजनीतिक फैसले नहीं ले सकते और न वह राजनीतिज्ञों से निपटना जानते हैं. हैरानी की बात तो यह है कि सरकार से बातचीत वह खुद कर रहे थे और जिस चिट्ठी को कपिल सिब्बल मीडिया के सामने लाए, उस पर बाबा रामदेव के सबसे निकटतम सहयोगी बालकृष्ण के दस्त़खत थे. अगर बाबा रामदेव को सरकार से कोई समझौता ही करना था, तो यह दायित्व वह किसी और को भी दे सकते थे. राजनीतिक दलों एवं राजनेताओं के कितने नज़दीक जाना चाहिए और उनसे कितनी दूरी बनाकर रखनी है, यह बाबा रामदेव को अब तक नहीं आया है. यही वजह है कि वह एक ऐसी रणनीति पर काम कर रहे हैं, जिससे न स़िर्फ उनके आंदोलन को नुक़सान होगा, बल्कि देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बने माहौल, लोगों के उत्साह और उनकी आशाओं को भी एक बड़ा झटका लगेगा.
जब कोई ग़ैर राजनीतिक व्यक्ति राजनीति करने लग जाता है तो ग़लतियां होने का ख़तरा बढ़ जाता है. बाबा रामदेव योग गुरु हैं, राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं. उन्होंने देश में आंदोलन शुरू किया, एक अच्छा मुद्दा उठाया, लोगों का भरपूर समर्थन भी है, लेकिन इस समर्थन का आंदोलन में सही इस्तेमाल करने में वह चूक जाते हैं. उन्हें समझना होगा कि देश के लोग स़िर्फ भ्रष्टाचार से ही परेशान नहीं हैं, वे सरकारी व्यवस्था के प्रति उदासीन हो गए हैं. देश में महंगाई है, बेरोज़गारी है, मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं शहरों एवं गांवों में बिजली नहीं है, पीने के लिए सा़फ पानी नहीं मिल रहा है, स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह से चौपट हैं, सिंचाई की व्यवस्था नहीं है, किसान अपनी ज़मीनें छीने जाने से परेशान हैं और आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं. शहरों में काम करने वाले लोग अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं, मध्य वर्ग की स्थिति खराब है, ज़िंदगी जीने के लिए ज़रूरी हर चीज़, जैसे रोटी-कपड़ा-मकान आदि आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई है. लोग परेशानी में जी रहे हैं, उनकी खुशियां छिन गई हैं. लोगों को लगता है कि इस स्थिति के लिए राजनीतिक दल एवं राजनेता ज़िम्मेदार हैं. और, जब बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोग इसके लिए आंदोलन करते हैं तो लोगों में आशा जगती है, इसीलिए वे बाबा रामदेव को समर्थन देते हैं. यह समर्थन बाबा रामदेव के लिए नहीं है, बल्कि यह समर्थन सरकारी व्यवस्था की विफलता के खिलाफ है. जनता जिन्हें अपना दुश्मन मानती है, बाबा रामदेव उन्हीं से समर्थन लेना चाहते हैं. यही उनकी सबसे बड़ी भूल है. उन्होंने राजनीति शुरू कर दी. वह चाहते हैं कि जब वह 9 अगस्त को आंदोलन करें, तब ज़्यादा से ज़्यादा राजनीतिक दल उनका समर्थन करें. वह काले धन के खिलाफ राजनीतिक दलों को एकजुट करना चाहते हैं. सच्चाई यह है कि काले धन का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल भारत की राजनीति में होता है, चुनाव में होता है. कई राजनीतिक पार्टियों का अस्तित्व ही काले धन पर निर्भर है. ऐसे में बाबा रामदेव की रणनीति कामयाब होती नहीं दिखती है. राजनीतिक दलों के साथ डील करना आसान काम नहीं है. अब राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को लेकर जिस तरह से मुलायम सिंह ने ममता बनर्जी का इस्तेमाल किया, यही भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य है. वादा खिला़फी ही राजनीति का एकमात्र आदर्श है. बाबा रामदेव को राजनीतिक दोस्त और दुश्मन में फर्क़ करना होगा. अगर जनता के लिए लड़ना है तो राजनीतिक दलों और नेताओं से दूरी रखना ज़रूरी है. साथ ही उन्हें सरकार की मीडिया मैनेजमेंट की ताक़त को समझना होगा. कोई भी आंदोलन, चाहे वह बाबा रामदेव का हो या फिर अन्ना हजारे का, अगर इन बातों का सही आकलन करने में विफल हो जाए तो यह राजनीतिक अपरिपक्वता को दर्शाता है.
प्रजातंत्र में किसी भी आंदोलन या राजनीतिक गतिविधि के लिए जनता का समर्थन ज़रूरी होता है. बाबा रामदेव के साथ जनता का अपार समर्थन है. जिस तरह भीड़ इकट्ठा करने की क्षमता उनमें है, वह देश के किसी दूसरे नेता में नहीं है. बाबा रामदेव के आंदोलन का सबसे ज़्यादा फायदा अन्ना हजारे को मिला है. अन्ना के पास एजेंडा तो है, लेकिन समर्थन का अभाव है. दोनों अब साथ में हैं, यह एक अच्छा मौक़ा है, जब भ्रष्टाचार के ख़िला़फ बने जनमत को अन्ना की तऱफ मोड़ा जाए. इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले दो सालों से भ्रष्टाचार के ख़िला़फ लोगों को जागरूक करने का काम बाबा रामदेव ने किया है. लोगों में नाराज़गी है, वे अपनी परेशानियों से निपटने के लिए और घोर कुव्यवस्था के ख़िला़फ देश में आंदोलन चाहते हैं. रामदेव के आंदोलन का पहला लक्ष्य काला धन वापस लाना है और विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वालों को बेनक़ाब करके उन्हें दंडित करना है. विदेशी बैंकों में जमा भारत का धन अगर वापस आ गया तो सचमुच देश के वारे-न्यारे हो जाएंगे. इस मुहिम में पूरे देश को बाबा रामदेव के साथ खड़ा होना चाहिए. बाबा रामदेव देश को नई दिशा पर ले जाना चाहते हैं. वह इस लड़ाई को राजनीतिक बनाना चाहते हैं, लेकिन समझने वाली बात यह है कि आंदोलन से बदलाव लाने के लिए एक संगठित विचारधारा की ज़रूरत होती है, जिससे देश की आर्थिक नीति, विदेश नीति, रक्षा नीति और विकास का रास्ता तय होता है. बाबा रामदेव की ओर से अब तक ऐसे संकेत नहीं मिले हैं, जिनसे यह समझा जा सके कि वह एक संगठित विचारधारा का नेतृत्व करते हैं. लोग बदलाव चाहते हैं, लेकिन बाबा रामदेव के पास भविष्य का ब्लू प्रिंट नहीं है. बाबा रामदेव को अगर देश का नेतृत्व करना है, व्यवस्था में बदलाव लाना है, तो उन्हें देश के हर धर्म, जाति एवं क्षेत्र के लोगों के सामाजिक और आर्थिक विकास का एजेंडा सबके सामने रखना होगा.
लोगों को टीवी पर रामदेव भोले नज़र आते हैं. उन्हें लगता है कि उनका मन सा़फ है, इसलिए वह खूब बोलते हैं. इन्हीं वजहों से कभी-कभी वह मुसीबत में फंस जाते हैं. जंतर-मंतर के एकदिवसीय अनशन के दौरान जब अरविंद केजरीवाल ने मंत्रियों के नाम लिए तो बाबा को यह रास नहीं आया. इस घटना के बाद टीम अन्ना ने संयम का परिचय दिया. जिन नेताओं के खिलाफ उन्होंने मीडिया में भ्रष्टाचार के सबूत दिए और जांच की मांग की, उनका नाम लेना कोई ग़लत बात नहीं है. बाबा रामदेव के नज़दीकी लोग बताते हैं कि वह किसी पर विश्वास नहीं करते. आंदोलन से सीधे तौर पर जुड़े लोगों की राय सुनते हैं. बाबा अपने आंदोलन और रैलियों में लोगों को बुलाते तो हैं, लेकिन उनसे कोई राय नहीं लेते. अगर कोई राय देता भी है तो उसे वह नहीं मानते, लेकिन मीडिया के कुछ ब़डे-बड़े नामों की राय पर चलते हैं. यही वजह है कि जबसे उन्होंने आंदोलन की शुरुआत की है, तबसे जब भी आंदोलन शिखर पर पहुंचता है, वह कुछ न कुछ ऐसा कर बैठते हैं कि आंदोलन की हवा निकल जाती है. बाबा रामदेव काले धन के खिलाफ राजनीतिक दलों को एकजुट करने की नई भूल कर रहे हैं. यह वैसी ही ग़लती है, जैसी ग़लती टीम अन्ना ने की थी. टीम अन्ना ने भी राजनीतिक दलों से मदद लेने की कोशिश की थी, लेकिन जब रामलीला मैदान के आंदोलन को देश भर में समर्थन मिला, तब संसद के अंदर सारे राजनीतिक दल अन्ना के खिलाफ हो गए. समझने वाली बात यह है कि कोई भी आंदोलन सीधे-सीधे राजनीतिक दलों और नेताओं पर असर डालता है. यह आंदोलन भी उन्हीं के खिलाफ है, इसलिए उनसे समर्थन की उम्मीद करना उचित नहीं है. अगर वे भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ आंदोलन को समर्थन देते भी हैं तो वह आंदोलन के लिए भारी पड़ सकता है.
बाबा ने एक ग़लती रामलीला मैदान में की थी. जिस तरह वह पुलिस के डर से भागे थे और महिलाओं के वस्त्र धारण करके चकमा देने की कोशिश की थी, उससे उनके बारे में लोगों के मन में संदेह पैदा हो गया. बाबा को पुलिस के सामने डटकर भाषण देना था और आराम से ख़ुद को गिरफ़्तार करा देना था. गांधी जी के सत्याग्रह को याद करें तो उसमें यही होता था. गांधी जी क़ानून तोड़ते थे, पुलिस आती थी, उन्हें गिरफ़्तार करती थी. गांधी जी कहते थे, पूरा देश ही जब जेल है तो जेल के अंदर क्या और बाहर क्या! जेल भरो आंदोलन शुरू हो जाता था, लेकिन बाबा रामदेव ने ऐसा कुछ नहीं किया. उल्टा जान बचाने के लिए वह एक घंटे से ज़्यादा छिपे रहे. अच्छी बात यह है कि लोगों ने उनकी इस ग़लती को भुला दिया. आज भी जनता का समर्थन है, लेकिन अगर वैसी ग़लती फिर से दोहराई गई तो बाबा रामदेव के साथ-साथ देश के दूसरे आंदोलनों को भी ऐसा झटका लगेगा कि कई सालों तक देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ लोग आवाज़ नहीं उठा पाएंगे.