भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच थे. अनौपचारिक माहौल था और वह देश और भविष्य पर बातचीत कर रहे थे. अनायास उनके मुंह से एक कड़वा सच निकल गया. उन्होंने कहा कि सरकार किसी की बने, देश की हालत सुधरने वाली नहीं है. जनता को खुद अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ेगा. अगर देश के मुख्य विपक्षी दल के अध्यक्ष ऐसी धारणा रखते हैं तो सचमुच देश का भविष्य खतरे में है. यह खतरा इसलिए पैदा हुआ है, क्योंकि भारत की राजनीति से विचारधारा का पतन हो गया है. देश की जनता के सामने स़िर्फ दो विकल्प हैं यूपीए या एनडीए, जिनमें वैचारिक मतभेद न के बराबर हैं. एक की सरकार दूसरे के छोड़े हुए कामों को पूरा करती है. अगर भविष्य में यूपीए की सरकार सत्ता से बाहर जाती है तो एनडीए उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाएगा, जिसे यूपीए ने आधा छोड़ दिया है. यह इसलिए कहा जा सकता है कि क्योंकि भ्रष्टाचार का रिकॉर्ड हो या फिर एफडीआई का मसला हो, आर्थिक नीति हो या विदेश नीति, लगभग एक जैसी है. सरकार कोई भी होती है, अमेरिका के साथ रिश्ता वैसा ही रहता है. इजरायल से हथियार के सौदे को दोनों ही एक तरह से महत्व देते हैं. इन समानताओं के पीछे की वजह यह है कि कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही एक-दूसरे की बी टीम बन गई हैं. वैचारिक मतभेद नहीं रह गए हैं, इसलिए लोकसभा और राज्यसभा में बहस नहीं होती, स़िर्फ हंगामा होता है. इसका सबसे ज़्यादा खामियाजा ऐसी पार्टियों को होता है, जिनकी विचारधारा तो अलग है, लेकिन गठबंधन धर्म का पालन करने की मजबूरी ने उन्हें असरहीन बना दिया है. यही भारत की डेमोक्रेसी के लिए आज सबसे बड़ा खतरा है. जबसे देश में नव उदारवाद की नीति लागू की गई, तबसे राजनीति की दशा और दिशा बदल गई. भारत की राजनीति दो धड़ों में बंट गई है. एक तरफ वे खड़े हैं, जो राजनीति को महज़ सत्ता पाने का ज़रिया समझते हैं और दूसरी तरफ वे हैं, जो राजनीति को सामाजिक और आर्थिक विकास का ज़रिया मानते हैं. एक तरफ केंद्र की सरकार है, दूसरी तरफ संविधान की भावना है.
एक ज़माना था, जब भारतीय जनता पार्टी को हिंदुस्तान की राजनीति में अछूत माना जाता था. खासकर, बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद से तो हर पार्टी उससे दूर ही रही. भारतीय जनता पार्टी के पास आज भी ऐसे नेता नहीं हैं, जो दूसरी पार्टियों से बात करके कोई कारगर गठबंधन बना सकें. वह जब भी केंद्र की सत्ता पर आई, उसने जेडीयू के सहारे गठबंधन तैयार किया और सत्ता पर क़ाबिज़ हुई.
पिछले 20 सालों में केंद्र में जिस किसी गठबंधन की सरकार बनी, उसने संविधान की आत्मा को ही दफना दिया. पता नहीं, देश के कितने मंत्रियों और नेताओं ने संविधान में दिए गए डायरेक्टिव प्रिंसिपल पढ़े होंगे. अगर पढ़े भी होंगे तो भूल गए होंगे. पिछले 20 सालों से देश चलाने वालों के सामने दो रास्ते मौजूद हैं. पहला रास्ता ग़रीबों, पिछड़ों, किसानों और मज़दूरों के विकास के ज़रिए आर्थिक विकास का है और दूसरा रास्ता है देश के उद्योगपतियों और विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचा कर आंकड़ों का मायाजाल बिछाना और विकास का भ्रम फैलाना. अ़फसोस तो इस बात का है कि पिछले 20 सालों से केंद्र की सरकारों ने दूसरा रास्ता अपनाया, विकास का भ्रम ही फैलाया. यही वजह है कि देश में आदिवासियों को उनकी ज़मीन से बेदखल कर दिया जाता है, किसानों के खेत कम क़ीमत में खरीद कर बिल्डरों को बेच दिए जाते हैं, कभी एसईजेड तो कभी डैम या न्यूक्लियर पावर प्लांट के नाम पर ग़रीब किसानों को उनकी ज़मीन से बेदखल कर दिया जाता है. सवाल है कि यह विकास का कैसा मॉडल है और इससे किसका विकास होगा? आंकड़े बताते हैं कि पिछले 20 सालों में ग़रीब पहले से ज़्यादा ग़रीब और अमीर पहले से कई गुना ज़्यादा अमीर हो गए हैं. यूपीए और एनडीए की गठबंधन सरकारों ने देश की जनता को यही तोह़फा दिया है.
हिंदुस्तान की डेमोक्रेसी वैचारिक एकाधिकार के चंगुल में फंस गई है. कहने मतलब यह कि देश की राजनीति ऐसी राह पर अग्रसर है, जहां सरकार किसी भी पार्टी की बने, लेकिन नीतियां नहीं बदलतीं, स़िर्फ मंत्रियों के चेहरे बदल जाते हैं. हक़ीक़त यह है कि केंद्र की सत्ता दो ऐसी राजनीतिक धुरियों में सिमट गई है, जिनकी चाल, चरित्र और चेहरे एक जैसे हैं.
भारत की राजनीति में यह समुद्र मंथन का व़क्त है. एक तरफ इंडस्ट्री को फायदा पहुंचाने वाली केंद्र सरकार है तो दूसरी तरफ किसानों के हक़ के लिए लड़ने वाली बंगाल की दीदी है. एक तरफ जनता के साथ मिलकर ज़मीन पर राजनीति करने और बेदाग़ छवि वाली मास लीडर है तो दूसरी तरफ दिल्ली के मंत्रालयों में मंत्री बने बैठे देश के वकील हैं, जिन्होंने ग़रीबों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों, किसानों और मज़दूरों को भुला दिया है. फिर भी वह क्या मजबूरी है कि दोनों साथ-साथ यूपीए गठबंधन में हैं. कांग्रेस गठबंधन की विचारधारा और ममता के तेवरों का अंतर इतना गहरा है कि कभी पेट्रोल के दाम पर, कभी रिटेल में एफडीआई पर, कभी लोकपाल क़ानून या फिर तीस्ता जल बंटवारे के मामले पर, ममता का सामना कांग्रेस पार्टी से हो जाता है. दोनों में इतना मतभेद है कि ममता ने इंदिरा भवन का नाम ही बदल दिया. हर बार तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी ने कांग्रेस को पीछे हटने पर मजबूर किया, लेकिन सवाल है कि यह कब तक चलता रहेगा. अब तो ममता बनर्जी ने उत्तर प्रदेश चुनाव में अकेले उतरने का ऐलान भी कर दिया. तृणमूल और कांग्रेस के बीच खटास यहां तक पहुंच गई है कि दोनों एक-दूसरे को नया सहयोगी तलाशने की नसीहत तक दे रहे हैं. कांग्रेस के प्रदर्शनों और बयानों के जवाब में कोलकाता की सड़क पर तृणमूल समर्थक भी उतर आए. तृणमूल नेताओं ने सा़फ कर दिया कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस की कोई हैसियत नहीं है और कांग्रेस चाहे तो गठबंधन से बाहर निकल सकती है. सवाल यह उठता है कि यूपीए गठबंधन में कांग्रेस की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी का ऐसा रु़ख क्यों है?
एक तऱफ कांग्रेस और भाजपा हैं तो दूसरी तऱफ ममता एवं नीतीश खड़े हैं. ममता एवं नीतीश जैसे नेता सामाजिक विकास के रास्ते आर्थिक विकास, समानता और बराबरी की राजनीति करते हैं. दूसरी तऱफ कांग्रेस और भाजपा राजनीति को महज़ सत्ता पाने का ज़रिया समझती हैं. सवाल यह है कि अगर देश में प्रजातंत्र को जीवंत बनाना है तो क्या ममता बनर्जी और नीतीश कुमार जैसे नेता एक साथ मिलकर सामाजिक विकास की राजनीति को मज़बूत करेंगे, संविधान की भावनाओं को सरकारी नीतियों में शामिल करेंगे या फिर कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों के साथ मिलकर मूकदर्शक बने रहेंगे?
ममता बनर्जी के सामने कई चुनौतियां हैं. एक तो उन्हें पश्चिम बंगाल का कायाकल्प करना है, लेकिन आज पूरा देश उनकी तरफ देख रहा है. केंद्र सरकार की नीतियां किसी भी मायने में जनता के हक़ में नहीं हैं. लोगों की नज़र में केंद्र सरकार भ्रष्टाचार का केंद्र है. मंत्रियों पर घोटाले करने से लेकर महंगाई बढ़ाने तक के आरोप हैं. जब भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल क़ानून बनाया जाता है तो उसमें ममता बनर्जी से कोई पूछता तक नहीं है और जब वह इसका विरोध करती हैं तो उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है. जब पेट्रोल के दाम बढ़ते हैं या जब वह महंगाई को लेकर विरोध करती हैं, तब भी उन्हीं पर यह इल्जाम लगता है कि वह गठबंधन धर्म का पालन नहीं करती हैं. जिन महापुरुषों ने संविधान बनाया, उन्होंने भारत को एक मल्टी पार्टी सिस्टम का रूप दिया. मतलब यह कि अलग-अलग राजनीतिक दलों को जगह दी, ताकि अलग-अलग विचारधाराओं को जगह मिल सके. अब सरकार बजट लाने वाली है. इस बजट की रूपरेखा क्या होगी, यह कौन तय करेगा? मनमोहन सिंह और उनके अर्थशास्त्री मित्रों की टोली, जिनका उद्देश्य उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाना है. अगर सरकार सख्ती के साथ आर्थिक सुधार लागू करती है तो ममता बनर्जी क्या करेंगी? वह गठबंधन धर्म निभाएंगी या फिर जनता के साथ खड़ी होंगी, यह फैसला तो ममता बनर्जी को ही करना है.
हिंदुस्तान की डेमोक्रेसी वैचारिक एकाधिकार के चंगुल में फंस गई है. कहने मतलब यह कि देश की राजनीति ऐसी राह पर अग्रसर है, जहां सरकार किसी भी पार्टी की बने, लेकिन नीतियां नहीं बदलतीं, स़िर्फ मंत्रियों के चेहरे बदल जाते हैं. हक़ीक़त यह है कि केंद्र की सत्ता दो ऐसी राजनीतिक धुरियों में सिमट गई है, जिनकी चाल, चरित्र और चेहरे एक जैसे हैं. यही वजह है कि सरकार किसी भी गठबंधन की हो, चाहे वह यूपीए हो या फिर एनडीए, उससे जनता को कोई उम्मीद नहीं है. लेकिन जब हम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जैसे नेताओं को देखते हैं तो एक आशा जगती है, एक ईमानदार नेता नज़र आता है, जनता के लिए कुछ करने का जज्बा दिखता है. बिहार में वह परिवर्तन की मिसाल कायम कर रहे हैं, सामाजिक विकास के साथ आर्थिक विकास का नारा बुलंद करते दिखाई देते हैं, हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई के बीच भाईचारा बढ़ाने वाले एक नेता नज़र आते हैं. शरद यादव जब संसद में बोलते हैं तो लगता है कि लोकसभा में ऐसा नेता आज भी मौजूद है, जो ग़रीबों की तरफ से बोलता है, जो किसानों की आवाज़ सरकार तक पहुंचाता है, लेकिन जब केंद्र की सत्ता में उनकी भागीदारी पर नज़र डालते हैं तो मायूसी होती है. दोनों ही नेता जनता दल यूनाइटेड पार्टी के हैं, जो भारतीय जनता पार्टी के एनडीए गठबंधन में है. अफसोस इस बात का है कि बिहार के बाहर भारतीय जनता पार्टी के लिए जनता दल यूनाइटेड की कोई अहमियत नहीं है. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा-जदयू का बरसों पुराना गठबंधन टूट गया.
अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो रही है कि एनडीए के दो बड़े मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी आमने-सामने होंगे. एनडीए गठबंधन भी यूपीए की तरह एक तनाव की स्थिति से गुजर रहा है. वैचारिक मतभेद और एक-दूसरे की पार्टी के नेताओं को नीचा दिखाने का दौर यहां भी जारी है. भारतीय जनता पार्टी जब सरकार में रहती है तो उसकी आर्थिक नीति कांग्रेस की आर्थिक नीति से अलग नहीं होती. सरकार चलाने का अंदाज कांग्रेस और भाजपा का एक ही जैसा है. सवाल नीतीश कुमार के लिए है कि क्या वह उन नीतियों का समर्थन करेंगे, जिनका विरोध करते रहे हैं.
एक जमाना था, जब भारतीय जनता पार्टी को हिंदुस्तान की राजनीति में अछूत माना जाता था. खासकर, बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद से तो हर पार्टी उससे दूर ही रही. भारतीय जनता पार्टी के पास आज भी ऐसे नेता नहीं हैं, जो दूसरी पार्टियों से बात करके कोई कारगर गठबंधन बना सकें. वह जब भी केंद्र की सत्ता पर आई, उसने जेडीयू के सहारे गठबंधन तैयार किया और सत्ता पर क़ाबिज़ हुई. यही वजह है कि एनडीए गठबंधन के संयोजक हमेशा जनता दल यूनाइटेड के ही नेता रहे. जब पहली बार एनडीए गठबंधन की सरकार बनी थी, तब जार्ज फर्नांडीस साहब ने अहम भूमिका निभाई थी. वह आजकल बीमार हैं, लेकिन उनकी जगह यह भूमिका शरद यादव बखूबी निभा रहे हैं. समस्या यह है कि भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड की विचारधारा में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है.
जब सरकार बनती है तो जनता दल यूनाइटेड की विचारधारा कहीं गुम हो जाती है. जिस तरह यूपीए गठबंधन में दूसरी पार्टियों की विचारधारा गौण हो जाती है, वही हाल एनडीए में भी होता है. यूपीए की नीतियों में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दखल नहीं है और एनडीए सरकार में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कोई सुनने वाला नहीं है. इसकी वजह सा़फ है कि केंद्र सरकार की सत्ता की चाबी उद्योगपतियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के हाथों में है. जो भी नीतियां बनती हैं, उनमें उनके लाभ को पहले ही सुनिश्चित कर दिया जाता है. बड़ी-बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार के नुमाइंदे घोटाला करने से भी नहीं चूकते. अब सवाल यह है कि क्या भविष्य में ऐसी कोई सरकार बन सकती है, जो देश के दलितों, गरीबों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों, किसानों एवं मज़दूरों की समस्याओं को प्राथमिकता दे और उसमें ममता बनर्जी और नीतीश कुमार की क्या भूमिका हो सकती है?
ऐसे माहौल में ममता बनर्जी और नीतीश कुमार को देखकर आशा जगती है. दरअसल, इन मास लीडरों का दायित्व बढ़ जाता है. एक तरफ कांग्रेस और भाजपा हैं तो दूसरी तरफ ममता एवं नीतीश खड़े हैं. इनके बीच की लड़ाई आने वाले समय में और भी तेज होगी, क्योंकि ममता एवं नीतीश कुमार जैसे नेता और उनकी राजनीति संविधान में बताए गए मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे सामाजिक विकास के रास्ते आर्थिक विकास, समानता और बराबरी की राजनीति करते हैं. दूसरी तरफ कांग्रेस और भाजपा हैं, जो राजनीति को महज सत्ता पाने का जरिया समझती हैं. सवाल यह है कि अगर देश में प्रजातंत्र को जीवंत बनाना है तो क्या ममता बनर्जी और नीतीश कुमार जैसे नेता एक साथ मिलकर सामाजिक विकास की राजनीति को मज़बूत करेंगे, संविधान की भावनाओं को सरकारी नीतियों में शामिल करेंगे या फिर कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों के साथ मिलकर मूकदर्शक बने रहेंगे? ऐसा मौका बार-बार नहीं आता, जब व़क्त आपको इतिहास रचने का मौका देता है. यह वक्त ऐसा है, जो ईमानदार और ज़मीन से जुड़े नेताओं को एक अवसर देता है.