प्रजातंत्र की एक खासियत है. इसकी लहर उठती है. एक-एक देश करके यह दुनिया में नहीं फैली है. आंदोलन या बदलाव की आंधी चली और कई देशों ने एक साथ प्रजातंत्र को अपनाया. प्रजातंत्र की पहली लहर ने पूरे यूरोप और अमेरिका में अपनी जगह बनाई. लोकतंत्र की दूसरी लहर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आई. जब भारत समेत कई देशों ने आज़ादी के बाद प्रजातंत्र को अपनाया. इसकी तीसरी लहर सोवियत ब्लॉक के टूटने के बाद आई, जब कई सोशलिस्ट स्टेट्स ने प्रजातंत्र को अपनाया. इस तरह दुनिया के हर हिस्से में लोकतंत्र ने अपनी पैठ बना ली थी, स़िर्फ पश्चिम एशिया ही एक ऐसा इलाक़ा बच गया था, जहां प्रजातंत्र नहीं पहुंच सका था. ट्यूनीशिया के बाद मिस्र में आई आंधी प्रजातंत्र की चौथी लहर की शुरुआत है. इसका स्वागत होना चाहिए.
जब भी किसी देश में लोग सड़कों पर बेरोज़गारी, महंगाई, ग़रीबी या किसी अन्य मांग को लेकर सरकार के खिला़फ लामबंद होते हैं तो उसे आंदोलन कहा जाता है. लेकिन जब कोई आंदोलन विद्रोह का रूप ले लेता है, जब किसी आंदोलन का मक़सद सत्ता परिवर्तन होता है तो उसे क्रांति कहते हैं. मिस्र में जो हो रहा है, वह महज़ कोई जनाक्रोश नहीं, कोई साधारण आंदोलन नहीं, बल्कि एक क्रांति है. एक ऐसी क्रांति, जो स़िर्फ मिस्र तक सीमित रहने वाली नहीं है, बल्कि पूरे पश्चिम एशिया में सत्ता परिवर्तन का माध्यम बनने वाली है.
ट्यूनीशिया के बाद मिस्र की घटनाओं से पश्चिम एशिया के देशों की तानाशाही की नींव हिल गई है. आंदोलन की आग ट्यूनीशिया से मिस्र और फिर अल्जीरिया, मौरिशेनिया, जॉर्डन, यमन और सऊदी अरब तक पहुंच चुकी है. समझने की बात यह है कि यह इलाक़ा पहले से ही दुनिया के लिए एक फ्लैश प्वाइंट बना हुआ है. फिलिस्तीन-इजराइल, इराक और अफगानिस्तान में अस्थिरता और अमेरिकी सेना की मौजूदगी, लेबनान का संकट और न्यूक्लियर मुद्दे को लेकर ईरान पर हमले की आशंका के बीच ये आंदोलन हो रहे हैं. ये आंदोलन किसी पार्टी या किसी नेता या किसी विचारधारा की वजह से नहीं शुरू हुए हैं. जंगल की आग की तरह ये आंदोलन शुरू हुए हैं. इसलिए ये ज़्यादा खतरनाक और ज़्यादा असरदार हैं. ऐसे आंदोलनों को नियंत्रित कर पाना किसी भी सरकार के लिए मुश्किल होता है. समझने वाली बात यह है कि मिस्र का आंदोलन किन्हीं आकस्मिक कारणों से नहीं हुआ है. लोग परेशान थे और जब उन्होंने देखा कि ट्यूनीशिया में किस तरह जनता ने आंदोलन किया, उससे उनकी हिम्मत बढ़ी और आंदोलन शुरू हो गया. एक बार लोग सड़क पर उतरे, उसके बाद लोग जुड़ते चले गए. एक ऐसा आंदोलन खड़ा हुआ, जो अरब वर्ल्ड के अब तक के इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन बन गया.
मिस्र में जनता की नाराज़गी की चार प्रमुख वजहें हैं. पहली वजह आर्थिक है. मिस्र में बेरोज़गारी है, महंगाई है. पूरी अर्थव्यवस्था एकाधिकार में फंसी हुई है. सरकार ने पूंजीपतियों को खुला छोड़ दिया है ग़रीब और मध्यम वर्ग का शोषण करने के लिए और ऐसे पूंजीपतियों ने लोगों का खून चूस लिया है. दूसरी वजह है प्रशासनिक संवेदनहीनता. यहां के सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार और कुशासन का बोलबाला है. तीसरी वजह सामाजिक है. मिस्र का युवा वर्ग विमुख हो गया है और शिक्षा प्रणाली बेकार हो गई है. मिस्र का एजूकेशन सिस्टम भी लचर है. जिस तरह की पढ़ाई होती है, वह नई पीढ़ी की आशाओं पर खरी नहीं उतरती. युवा पीछे छूटते जा रहे हैं. मिस्र में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत और भी खराब है. जनता के पास पीने का सा़फ पानी तक नहीं है. जो पानी मिलता है, वह पीने लायक नहीं है. वह दूषित है, लेकिन लोगों को वही पानी पीना पड़ता है. मिस्र के किसानों की हालत सबसे खराब है. वहां किसानों का जीना हराम हो गया है. उनके लिए कोई योजना नहीं है. चौथी और सबसे महत्वपूर्ण वजह है राजनीतिक. राष्ट्रपति और सत्तारूढ़ दल समय के साथ-साथ तानाशाह होते चले गए हैं. भ्रष्टाचार करने वालों पर किसी तरह का कोई अंकुश नहीं है. उन्हें कोई सज़ा नहीं मिलती है. वे क़ानून का मखौल उड़ाकर साफ़-साफ़ बच निकलते हैं. जनता इस अत्याचारी व्यवस्था से मुक्ति चाहती है. हाल में हुए चुनावों में जो धांधली की गई, उससे जनता का गुस्सा उबल पड़ा है. मिस्र की जनता अब अपने फैसले खुद लेना चाहती है. मिस्र के लोग अब प्रजातंत्र चाहते हैं, सरकार चलाने में अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं, ताकि वे अपने भविष्य का निर्माण खुद कर सकें और देश के संसाधनों को देश की जनता के लिए इस्तेमाल कर सकें. इसलिए मिस्र के क्रांतिकारी देश में प्रजातंत्र लागू करने की मांग कर रहे हैं.
अरब देशों में मिस्र सबसे बड़ा है. इसकी आबादी 80 मिलियन है यानी 8 करोड़. यह एशिया और अफ्रीका के बीच का देश है, इसलिए सामरिक और कूटनीतिक दृष्टि से इसका महत्व दूसरे अरब देशों से कहीं ज़्यादा है. 1952 से 1970 के बीच जनरल गमाल अब्देल नासिर के शासनकाल में मिस्र पूरे अरब वर्ल्ड पर हावी था. उनके बाद अनवर सदात और होस्नी मुबारक सत्ता में आए, जिन्होंने मिस्र के वर्चस्व को बरक़रार रखने के लिए अमेरिका के साथ दोस्ती कर ली, लेकिन इससे कुछ अरब देशों में मिस्र का प्रभुत्व तो कम हुआ, लेकिन अपने इतिहास और सामरिक कारणों से यह अरब देशों के दिलोदिमाग से उतर नहीं सका. यही वजह है कि तानाशाही का जो रूप मिस्र में है, वह अरब के दूसरे देशों के लिए एक मॉडल बन गया. मिस्र के तानाशाह होस्नी मुबारक के जाते ही अरब देशों के तानाशाह भी ताश के पत्तों की तरह बिखरने लगेंगे. वैसे भी पश्चिमी एशिया में यह कहा ही जाता है कि मिस्र में जो भी होता है, वह सारे अरब देशों में फैल जाता है. यह बात फिर से सही साबित हो रही है. जिस तरह मिस्र में लोग सरकार के खिला़फ आंदोलन कर रहे हैं, वैसा ही कुछ अरब के दूसरे देशों में शुरू हो गया है. प्रजातंत्र का यह आंदोलन पूरे पश्चिम एशिया में भड़क उठा है. कहीं यह आग दिख रही है और कहीं यह आग आने वाले दिनों में दिखने वाली है. अरब देशों में शुरू से ही तानाशाह शासकों-राजाओं और राजकुमारों की सत्ता रही है.
इस निरंकुशता के खिला़फ जब भी किसी ने आवाज़ उठाई, उसे बेदर्दी से दबा दिया गया. इसीलिए पश्चिम एशिया में एक कहावत बन गई है कि शासक वर्ग एक पहाड़ की तरह है और उसका विरोध करना अपने सिर को पहाड़ में मारने जैसा है. लेकिन ट्यूनीशिया और मिस्र में जो हो रहा है, उससे यह कहावत झूठी साबित हो रही है. ट्यूनीशिया और मिस्र में जो हुआ, वह सभी अरब देशों के लिए सबक है. अगला नंबर उन्हीं का है. ये देश हैं अल्जीरिया, जॉर्डन, लीबिया, सीरिया, यमन और मोरक्को. मिस्र की तरह ही सऊदी अरब में भी राजाओं का राज चलता है. सऊदी अरब की जनता भी सरकार के ज़ुल्म को चुपचाप सहती है, अपना मुंह खोलने से डरती है. पूरा पश्चिमी एशिया ही इस तरह की हुकूमतों के हाथ में है. सत्ता में जनता की हिस्सेदारी नहीं है, सरकार की नीतियों में जनता का कोई दखल नहीं है. कुछ देशों में धर्म की आड़ में निरंकुश सत्ता है तो कुछ देशों में आज भी सत्ता पर जन्म सिद्ध अधिकार मानकर डायनेस्टी रूल चल रहा है. अरब देशों के संगठन अरब लीग के बाइस सदस्य हैं. इनमें से एक भी देश पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं है. इन देशों की जनता ग़रीब है, सरकार की नीतियां स्थिर और संतुलित नहीं है. लोकतंत्र के सबसे क़रीब है लेबनान, लेकिन यह भी आतंरिक समस्याओं से जूझ रहा है. इन देशों के सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है. फिलिस्तीन में पाक-साफ़ चुनाव हुए थे, लेकिन जीतने वाली हमास पार्टी को सत्ता पर काब़िज नहीं होने दिया गया. मोरक्को और कुवैत में बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था है, लेकिन इन देशों में आज भी राजा का फरमान ही क़ानून है. सीरिया में भी लगभग यही स्थिति है. ज़्यादातर देशों में पुराने राजाओं ने नए राजवंशों को जगह दे दी है.
मिस्र में जिस तरह लोगों ने हिम्मत दिखाई है, वह अरब के दूसरे देशों के लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित करेगी और पूरे इलाके में प्रजातंत्र के लिए आंदोलन हो सकते हैं. ऐसा इसलिए भी होगा, क्योंकि पश्चिम एशिया का मध्यम वर्ग, कामकाजी वर्ग और बुद्धिजीवी हक़ीक़त का सामना करने के लिए तैयार हो गए हैं. पश्चिम एशिया के लोगों को लगता है कि उनकी सरकार न तो उनकी परेशानियां खत्म कर सकती है, न ही उनके भविष्य को उज्ज्वल बना सकती है. आज का दौर इंटरनेट और टेलीविजन का दौर है. पश्चिम एशिया के पढ़े-लिखे मध्य वर्ग को यह पता है कि बाक़ी दुनिया किस तरह आगे जा रही है और वे किस तरह व़क्त की इस दौड़ में पीछे छूट रहे हैं. पश्चिम एशिया के मध्य वर्ग ने अपनी ज़िम्मेदारी समझ ली है. यही वजह है कि फेसबुक से शुरू हुआ यह आंदोलन विश्व स्तर पर अपना महत्व दर्ज करा रहा है.
यह आंदोलन पश्चिम एशिया के सुल्तानों के लिए खतरनाक साबित होने वाला है. इसकी वजह सा़फ है. जो हालात मिस्र में हैं, वही हालात पश्चिमी एशिया के हर देश में हैं. यह दुनिया का वह इलाक़ा है, जहां प्रजातंत्र की हवा तक पहुंचने से रोका गया है. वजह सा़फ है. पश्चिमी देशों और खासकर अमेरिका ने अपने स्वार्थ के लिए यहां के शासक वर्ग को अपने पक्ष में कर रखा है, ताकि वह बिना रोक-टोक यहां के खनिज खासकर पेट्रोलियम को अपने देश में आयात कर सके. पश्चिमी एशिया की ज़्यादातर सरकारें अमेरिका की पिछलग्गू हैं. यहां के लोग सरकार के कामकाज से, तानाशाही से तंग आ चुके हैं और अब प्रजातंत्र की खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं. यह इतिहास के दरवाज़े पर एक दस्तक है. ट्यूनीशिया और मिस्र में जिस तरह आंदोलन हो रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि इतिहास ने रुख मोड़ा है. प्रजातंत्र की हवा अब पश्चिम एशिया में बहने वाली है. मिस्र की क्रांति स़िर्फ मिस्र तक सीमित नहीं रहने वाली, बल्कि यह प्रजातंत्र की चौथी लहर शुरू होने का संकेत दे रही है. ट्यूनीशिया और मिस्र का आंदोलन पश्चिम एशिया में क्रांति की शुरुआत है. अब इसे रोकने की ताक़त दुनिया की किसी भी सरकार में नहीं है. पूरा पश्चिम एशिया इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां से दो रास्ते जाते हैं, एक प्रजातंत्र की ओर, दूसरा गृहयुद्ध की तऱफ. यह पश्चिम एशिया के तानाशाहों को तय करना है कि वे अपने देश को किस रास्ते पर ले जाना चाहते हैं. अगर उनमें देशप्रेम होगा तो वे प्रजातंत्र के लिए रास्ते बनाएंगे, सत्ता में आम जनता को हिस्सेदारी देंगे या फिर अपने देश के लोगों से एक ऐसी लड़ाई की शुरुआत करेंगे, जिसे जीतना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है.