बाबरी मस्जिद-राम जन्‍मभूमि विवादः संघ परिवार और अदालत

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विवाद की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक उच्चस्तरीय बैठक बुलाई, जिसमें वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी, रक्षा मंत्री ए के एंटनी और गृह मंत्री पी चिंदबरम के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन और इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर भी शामिल हुए. उधर, उत्तर प्रदेश सरकार ने फैसले के बाद संभावित हिंसा से निपटने के लिए केंद्र से अतिरिक्त सुरक्षाबलों की मांग की है. राज्य सरकार ने संवेदनशील एवं अति संवेदनशील इलाकों की पहचान भी कर ली है. ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि की विवादित जमीन को लेकर सारी सुनवाई खत्म हो चुकी है. अब स़िर्फ फैसला आना बाकी है. हमारे देश में जिस तरह से अदालतें काम करती हैं, उससे यही लगता है कि फैसला हो चुका है, उसे सिर्फ सुनाना बाकी है. फैसले से पहले यह कोशिश भी हुई कि आ़खिरी व़क्त पर दोनों पक्षों के बीच कोई सुलह हो जाए, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली.

 

sangh pariwarहम कई बार यह कहावत सुनते हैं कि जिसकी लाठी उसकी भैंस, लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि यह स़िर्फ एक कहावत नहीं, बल्कि न्याय दर्शन है. आज से क़रीब दो हज़ार साल पहले यूनान में थ्रैसिमेकस ने न्याय को इस तरह परिभाषित किया था. फिर प्लूटो ने न्याय को नैतिकता बताया. देशकाल के साथ-साथ न्याय के मायने बदलते चले गए. आज हमारे देश में न्याय का मतलब कोर्ट का फैसला है यानी कोर्ट में जो फैसला होता है, वही न्याय मान लिया जाता है. इलाहाबाद हाईकोर्ट एक ऐसा फैसला सुनाने जा रहा है, जिसके असर दूरगामी होने वाले हैं. बाबरी मस्जिद के स्थान पर क्या पहले से कोई राम मंदिर था, क्या यह मंदिर जन्मस्थान है, इस मंदिर और इसके आसपास की ज़मीन किसकी है, क्या यह वक्फ बोर्ड को मिलेगी या फिर इसे राम मंदिर बनाने वालों के हवाले कर दिया जाएगा? ऐसे कई सवाल हैं, जो इस फैसले को ऐतिहासिक बनाते हैं. अदालत का यह फैसला इसलिए ऐतिहासिक होगा, क्योंकि इस फैसले से यह तय होगा कि भारत कितना धर्मनिरपेक्ष है. इससे यह भी तय होगा कि क्या हिंदू धर्म आज भी अपनी विरासत पर टिका है या नहीं यानी हिंदू धर्म का वह मिजाज़, जो सब कुछ समाहित कर लेता था.

अब फैसले का व़क्त आ गया है, इसलिए दोनों ही पक्षों में फैसले को लेकर घबराहट है. मुस्लिम पक्ष शांत है, लेकिन विश्व हिंदू परिषद ने पिछले महीने अयोध्या में तीन दिनों तक बैठक की और यह फैसला लिया कि अगर कोई मस्जिद बननी भी है तो वह अयोध्या शहर के बाहर ही बने. विश्व हिंदू परिषद ने भारत के लाखों मंदिरों में 16 अगस्त से लगातार 4 महीने तक हनुमत शक्ति जागरण का कार्यक्रम चलाने की घोषणा की है. विश्व हिंदू परिषद ने अब यह कहा है कि संसद में क़ानून बनाकर राम जन्मभूमि हिंदुओं को दी जाए, ताकि करोड़ों घरों में जिस मंदिर का चित्र लगा है, वह मंदिर बनाया जा सके. मतलब यह कि विश्व हिंदू परिषद ने एक तरह से यह तय कर लिया है कि कोर्ट का फैसला जो भी हो, वह अपनी जिद पर अड़ी रहेगी. अगर कोर्ट का फैसला उसके पक्ष में नहीं आता है तो वह उसे नहीं मानेगी. वैसे फैसला जो भी हो, इसके राजनीतिक नतीजे होंगे. फैसले के बाद जो स्थिति होगी, उससे बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के भविष्य पर असर होगा. यह भी तय है कि फैसला आने के बाद संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में जनभावनाओं को भड़का कर अपनी स्थिति मज़बूत करने की कोशिश करेगी.

इस विवाद की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक उच्चस्तरीय बैठक बुलाई, जिसमें वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी, रक्षा मंत्री ए के एंटनी और गृह मंत्री पी चिंदबरम के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन और इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर भी शामिल हुए. उधर, उत्तर प्रदेश सरकार ने फैसले के बाद संभावित हिंसा से निपटने के लिए केंद्र से अतिरिक्त सुरक्षाबलों की मांग की है. राज्य सरकार ने संवेदनशील एवं अति संवेदनशील इलाकों की पहचान भी कर ली है. ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि की विवादित जमीन को लेकर सारी सुनवाई खत्म हो चुकी है. अब स़िर्फ फैसला आना बाकी है. हमारे देश में जिस तरह से अदालतें काम करती हैं, उससे यही लगता है कि फैसला हो चुका है, उसे सिर्फ सुनाना बाकी है. फैसले से पहले यह कोशिश भी हुई कि आ़खिरी व़क्त पर दोनों पक्षों के बीच कोई सुलह हो जाए, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली. अब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला ही आ़खिरी होगा. हालांकि यह भी तय है कि फैसला आते ही यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाएगा. इस विवाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन जजों वाली बेंच चार टाइटल सूट पर एक साथ सुनवाई कर रही थी. हाईकोर्ट की इस बेंच में जस्टिस डी वी शर्मा, जस्टिस एस यू खान और जस्टिस सुधीर अग्रवाल हैं. जस्टिस डी वी शर्मा एक अक्टूबर को रिटायर हो रहे हैं, इसलिए यह फैसला उससे पहले ही सुनाया जा सकता है. यह बेंच गोपाल सिंह विशारद (1950), निर्मोही अखाड़ा (1959), यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड (1961) और हिंदुओं के समूह (1989) मामलों में सुनवाई कर रही थी. इन सारे मामलों की सुनवाई 39 सालों से फैजाबाद की अदालत में हो रही थी, लेकिन 1989 में उत्तर प्रदेश सरकार की मांग पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक स्पेशल बेंच बनाई, जहां इन मामलों की फिर से सुनवाई शुरू हुई. फिर भी बीस साल का समय लगा, क्योंकि कई बार बेंच को बदला गया.

फैसला क्या होगा, यह तो फिलहाल न कहा जा सकता है और न ही अंदाजा लगाया जा सकता है, पर इतना ज़रूर है कि अब इस विवाद में अदालत की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण और केंद्रीय है. अदालत के इस फैसले के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिणाम होंगे. इस फैसले से प्रजातंत्र और सामाजिक ताने-बाने पर भी बहस शुरू होगी, जो इसे दूसरे देशों से अलग और मज़बूत बनाते हैं. यह बात भी सच है कि आज़ाद भारत में बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि विवाद ने पहली बार इसकी धर्मनिरपेक्षता को चुनौती दी. संघ, भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठन ने ही इस पूरी घटना को अंजाम दिया, लेकिन आज तक इस मामले में किसी भी बड़े नेता या कार्यकर्ता को कोई सजा नहीं मिली. अजीबोग़रीब बात यह है कि हम जब भी इन संगठनों या इनकी विचारधारा को लेकर सोचते हैं तो यही लगता है कि भारत की अदालत इन पर ज़्यादा ही मेहरबान है. चाहे मामला राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का हो, गोवंश हत्या या यूनिफॉर्म सिविल कोड, शिक्षा का भगवाकरण हो या फिर मुस्लिम आरक्षण पर इन संगठनों का विरोध, अदालत का फैसला इनके पक्ष में आ जाता है. यह बात जगज़ाहिर है कि इस विवाद में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने देश में भय और आतंक का माहौल बनाया. उनके ही नेतृत्व में बाबरी मस्जिद को कारसेवकों ने गिराया. हैरानी की बात यह है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने न स़िर्फ आडवाणी को छोड़ दिया, बल्कि उनके साथ के कई नेताओं को भी बरी कर दिया. 6 दिसंबर, 1992 को जो कारसेवा हुई, उसके बारे में भी थोड़ा गौर से समझा जाए तो कारसेवकों को वहां कारसेवा करने की अनुमति सुप्रीमकोर्ट ने दी थी. सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि वहां मस्जिद को कुछ नहीं होना चाहिए और वहां भजन-कीर्तन एवं सांकेतिक कारसेवा कर सकते हैं. लाखों लोग अयोध्या में कारसेवा करने के लिए एकत्र हो रहे थे. एक धक्का और दो का नारा दे रहे थे. इंटेलिजेंस रिपोर्ट थी, फिर भी सुप्रीमकोर्ट ने सांकेतिक कारसेवा करने की अनुमति दे दी, जिससे इन कारसेवकों को बाबरी मस्जिद तक जाने से कोई नहीं रोक सका. वैसे भी एक दिन पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने सुप्रीमकोर्ट के इसी बयान को अपने हिसाब से समझा और वहां मौजूद कारसेवकों को समझा दिया कि सुप्रीमकोर्ट ने कारसेवा करने को कहा है, भजन-कीर्तन करने को कहा है, लेकिन वहां पर नुकीले पत्थर हैं, जब तक उन्हें सा़फ नहीं किया गया तो लोग वहां कैसे बैठेंगे. वाजपेजी जी कारसेवकों को इशारे में बता रहे थे कि मस्जिद के गुंबद नुकीले पत्थर हैं. इसमें कोई शक़ नहीं है कि सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले का इस्तेमाल संघ परिवार ने बाबरी मस्जिद को गिराए जाने में किया.

सुप्रीमकोर्ट का एक और महत्वपूर्ण फैसला है, जिसमें उसने हिंदुत्व और हिंदू की व्याख्या की है. हैरानी की बात यह है कि कोर्ट द्वारा परिभाषित हिंदुत्व और सावरकर के हिंदुत्व में ज़्यादा अंतर नहीं है. कोर्ट ने हिंदुत्व को लेकर सबसे पहले 1966 में अपना रु़ख सा़फ किया था. मामला सत्संगियों से जुड़ा था. कोर्ट ने हिंदुत्व को सर्वपल्ली राधाकृष्णन के विचारों के मुताबिक़ परिभाषित किया. कोर्ट ने हिंदुत्व को जीवन जीने का एक तरीका बताया. हमारे सामने दो तरह के हिंदुत्व हैं. एक सर्वपल्ली राधाकृष्णन का और दूसरा सावरकर का. दोनों अलग हैं. एक इनक्लूसिव है और दूसरा एक्सक्लूसिव. एक समाज में भाईचारे का पाठ पढ़ाता है तो दूसरा हिंदुओं को दूसरों के प्रति द्वेष एवं घृणा सिखाता है. यह सचमुच आश्चर्यजनक मसला है कि किस तरह कोर्ट के फैसले में दोनों एक हो जाते हैं. 1996 के सुप्रीमकोर्ट के फैसले पर एक नज़र डालते हैं. यह हिंदुत्व जजमेंट के नाम से मशहूर है. जस्टिस जे एस वर्मा ने कहा, हिंदुत्व और हिंदू दोनों ही भारत के निवासियों की जीवनशैली को चिन्हित करते हैं और इन शब्दों का मतलब हिंदू धर्म का पालन करने वालों के परिभाषित करने तक सीमित नहीं है. एक ही झटके में कोर्ट ने वह बात कह दी, जिसे सावरकर और संघ कहते आए हैं. सावरकर ने भी 1923 में यही कहा था कि हिंदुत्व धर्म नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक मनोभाव है, अवधारणा है. सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले से संघ और भारतीय जनता पार्टी के हाथ ऐसा हथियार लगा, जिसकी वजह से वे एक सांप्रदायिक विचारधारा को कानूनी जामा पहनाने में कामयाब हो गए. 1999 के चुनावी घोषणापत्र में भारतीय जनता पार्टी ने इस फैसले का हवाला दिया.

गोवंश हत्या का मामला हो या फिर यूनिफॉर्म सिविल कोड पर कोई बहस हो, कोर्ट की तरफ से ऐसे ही संदेश आते हैं, जो संघ परिवार के मनमुताबिक़ होते हैं. मुस्लिम आरक्षण पर भी कई राज्य सरकारों ने पहल की, लेकिन अदालत में इसे निरस्त कर दिया जाता है. शिक्षा के भगवाकरण का मामला जब उठा था, तब भी 12 सितंबर, 2002 को सर्वोच्च न्यायालय ने एनसीईआरटी की नई किताबों को हरी झंडी देकर भारतीय जनता पार्टी को राहत दी थी. ये सारे मुद्दे राजनीतिक एवं वैचारिक बहस के मसले हैं. इन पर जब कोर्ट फैसला लेती है तो वह न्याय के रूप में देश में मान्य हो जाता है. देश में अजीबोगरीब माहौल बन रहा है. हर कोई हर विषय पर न्यायालय चला जाता है. यह देश के राजनीतिक दलों की कमी है. राजनीतिक और वैचारिक मुद्दों पर हमारे नेताओं में ही साफगोई नहीं है. हर मुद्दे में वोट बैंक की राजनीति घुस जाती है और नतीजा यह है कि किसी भी राजनीतिक दल में सच बोलने की हिम्मत नहीं है. हर मामला कोर्ट चला जाता है और जब कोर्ट का फैसला आता है तो उसे न्यायपूर्ण मानने के अलावा कोई चारा नहीं बचता.

बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद को शुरू हुए साठ साल हो गए. देश के लोगों ने इस विवाद की कीमत खून से चुकाई है. अब मामला अदालत के फैसले पर टिका है. फैसला क्या होगा, यह पता नहीं है, लेकिन कोई भी फैसला इतिहास में दो वजहों से शुमार होता है. एक मामले की अहमियत और दूसरा, जब अदालत किसी मामले में अभूतपूर्व तर्कों, ज्ञान एवं बुद्धि का प्रयोग कर ऐसा फैसला सुना दे, जिससे समाज की धारा बदल जाती है. देश की अदालत ऐसे ही मोड़ पर खड़ी है. दोनों अवसर मौजूद हैं. एक तो मसला महत्वपूर्ण है और दूसरा अदालत के सामने भी यह मौका कि वह अपने फैसले से न्याय के मायने को एक नई दिशा दे दे. उम्मीद यही की जानी चाहिए कि अदालत का फैसला देश की प्रजातांत्रिक और न्याय व्यवस्था के लिए मील का पत्थर साबित हो. डर इस बात का है कि ज़रा सी चूक न्याय को वापस थ्रैसिमेकस के दिनों में लौटा देगी.

अब साधु-संत नेतृत्‍व करेंगे

राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के प्रणेताओं में से एक महंत अवैद्यनाथ ने अयोध्या मसले में हाईकोर्ट का फैसला आने के पूर्व साफ-साफ राजनीतिक रेखा खींच दी है. वयोवृद्ध अवैद्यनाथ ने चौथी दुनिया के एडिटर इंवेस्टीगेशन प्रभात रंजन दीन  के साथ एक खास बातचीत की. प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश:

क्या भारतीय जनता पार्टी फिर से राम मंदिर आंदोलन चलाएगी?

घर में रामभक्त और संसद में सेकुलर का छद्म ओढ़ने वाले भाजपा नेताओं के हाथ में अब राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन का नेतृत्व नहीं दिया जाएगा. राम जन्मभूमि आंदोलन का संचालन अब साधु-संतों के हाथों होगा. भाजपा नेता अपनी सार्थकता और उपादेयता संसद में साबित कर सकते हैं तो करें. राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के कारण बिखर कर रह गया. यदि फिर से राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन भाजपा के हाथों में गया तो यह आंदोलन हमेशा के लिए फेल हो जाएगा.

नेतृत्व कौन संभालेगा?

साधु-संत और देश की युवा पीढ़ी. राम जन्मभूमि आंदोलन समिति का मैं ही अध्यक्ष था और अब भी मैं ही अध्यक्ष हूं. लिहाजा मैं ही यह तय करूंगा कि आंदोलन का नेतृत्व कौन संभालेगा.

आपका आशीर्वाद किसे मिलेगा?

मेरा और देश के तमाम साधु-संतों का आशीर्वाद उसी नेता को मिलेगा, जो हिंदुओं का सम्मान बरकरार रखेगा.

कहीं आप नरेंद्र मोदी की तरफ तो इशारा नहीं कर रहे?

(महंत हंसने लगते हैं, लेकिन उनकी हंसी भविष्य की राजनीति की ओर इशारा करती है) नरेंद्र मोदी जैसे कई लोग हैं. अकेले नरेंद्र मोदी का नाम ले लूं तो भाजपाई सब उसके पीछे पड़ जाएंगे.  राम-कृष्ण और शंकर हिंदू संस्कृति के मूल आधार हैं. अगर इनका अपमान हुआ तो देश के सम्मान पर आघात पहुंचेगा. अगर हाईकोर्ट ने विपरीत फैसला दिया तो आने वाली नस्लें इसे भुला देंगी?  राम जन्मभूमि को क्या कोई बदल सकता है?

देश के मौजूदा राजनीतिक स्वरूप पर आपकी क्या राय है?

राजनीति का जो स्वरूप बनता जा रहा है, वह भयावह है. नेताओं को इस्लामी आतंकवाद कहते शर्म आती है, लेकिन भगवा आतंकवाद कहते हुए शर्म नहीं आती.

क्या आप अभी से मान बैठे हैं कि हाईकोर्ट का फैसला आपके विपरीत आएगा?

जजों ने न्यायप्रियता से फैसला लिया तो वह राम जन्मभूमि आंदोलन के पक्ष में जाएगा. राम जन्मभूमि स्थल की खुदाई करा कर अदालत ने जांच कराई. सारी जांचें अदालत की निगरानी में हुईं, फिर अदालत विपरीत फैसला कैसे दे देगी?

और अगर विपरीत फैसला आया तो?

(इस सवाल पर महंत बिदकते हैं) अगर फैसला गलत हुआ तो अनर्थ हो जाएगा. आंदोलन और भी उग्र रूप लेगा और उसके दोषी गलत फैसला सुनाने वाले जज होंगे. जज न्यायपूर्ण फैसला ही सुनाएंगे. मेरा स्वास्थ्य लगातार गिर रहा है. मैं केवल फैसला सुनने के लिए जी रहा हूं. मेरी ख्वाहिश है कि जीते जी राम जन्मभूमि की मुक्ति देख लूं, तब मैं चैन से मरूंगा. अनुकूल फैसला आया तो मैं फिर से स्वस्थ हो जाऊंगा.

आप हमेशा से यही कहते रहे कि राम जन्मभूमि का मसला अदालतों के अधिकार क्षेत्र के बाहर का है. फिर आप अदालत के फैसले की प्रतीक्षा में क्यों हैं?

मैं तो अभी भी यह कह रहा हूं कि राम जन्मभूमि का मसला अदालत के अधिकार क्षेत्र में है ही नहीं. क्या अदालतें इस देश में हिंदू आराध्यों का अस्तित्व तय करेंगी? अदालत के फैसले पर नज़र इसलिए है, क्योंकि इसके बाद हिंदुओं के मान-सम्मान की दशा-दिशा तय होनी है. विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत के हजारों मंदिर तोड़कर मस्जिदें बनाईं. क्या देश में मस्जिद बनाने के लिए जगह की कमी थी? नहीं. वह केवल हिंदुओं को अपमानित करने के लिए किया गया, लेकिन इसके बावजूद हम उन सभी मंदिरों की बात नहीं करते. जिन अवशेषों में हिंदू मंदिरों के प्रतीक स्पष्ट हैं, हम केवल उनकी बात करते हैं, जो खुद यह प्रमाणित करते हैं कि यह किस इरादे से किया गया था. इसके लिए क्या नए सिरे से प्रमाण जुटाने की जरूरत है? मंदिर निर्माण के मसले में हमें न्यायालय के निर्णय के बजाय देश के आम लोगों का निर्णय शिरोधार्य करना चाहिए.

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