देश के बारे में सोचते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं, डर लगने लगता है. देश में किसान आंदोलन विद्रोह का रूप ले रहा है. आदिवासी नक्सलियों के साथ मिलकर विद्रोह कर रहे हैं. सरकारी योजनाओं के नाम पर देश के चंद घरानों को फायदा हो रहा है. भ्रष्टाचार के नित नए-नए रूप दिख रहे हैं. अधिकारी और सरकारी विभाग हर फ्रंट पर विफल हो रहे हैं. नेताओं और सांसदों से लोगों का भरोसा उठ रहा है. स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. सरकार की वैधानिकता पर सवाल उठने लगा है. संभलने का शायद यह आ़खिरी मौक़ा है.
किसी इंसान की तबीयत कितनी खराब है, यह जानने के लिए डॉक्टर थर्मामीटर लगाता है, आला लगाता है, कई तरह के टेस्ट करता है. शरीर का रक्तचाप, तापमान आदि जानकर वह इस नतीजे पर पहुंचता है कि उसकी हालत कैसी है. देश का स्वास्थ्य जानने के लिए भी एक तरीका है. जिस देश में सरकार को अपनी जनता पर बल का प्रयोग करना पड़े, उस देश का स्वास्थ्य ठीक नहीं होता. जिस देश की पुलिस या अर्धसैनिक बल या सेना जिस मात्रा में शक्ति का प्रयोग करती है, उस देश का स्वास्थ्य उतना ही खराब होता है. हमारे देश की तबीयत खराब है. खतरा मंडरा रहा है. अफसोस की बात यह है कि जिन लोगों पर इस खतरे से निपटने की जिम्मेदारी है, उन्हें इसका अंदाज़ा तक नहीं है. देश चलाने वालों को इस बात की फिक्र नहीं है कि अगर किसान उग्र हो गए तो देश को सेना के ज़रिए भी चलाना मुश्किल हो जाएगा.
पंद्रह अगस्त के दिन हमारे देश के हर शहर में जश्न मनाया जा रहा था. अखबारों में राजनेताओं के मुस्कराते हुए चेहरे थे और टीवी पर आज़ादी के फलसफे पर बहस हो रही थी. सरकारी दफ्तरों पर तिरंगा लहराया जा रहा था. एसएमएस के ज़रिए लोग अपने जानने वालों को बधाई दे रहे थे. दिल्ली के लालकिले पर प्रधानमंत्री का भाषण चल रहा था, लेकिन दिल्ली के चारों ओर किसान सड़क पर आंदोलन कर रहे थे. उत्तर प्रदेश में इस समय किसानों के पास औसतन एक हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है. अलीगढ़ के इन पांच गांवों में भी अधिकांश छोटे किसान हैं. खेती ही इनकी एकमात्र आजीविका है. अलीगढ़, मथुरा, हाथरस, आगरा, महामायानगर और गौतमबुद्ध नगर में तिरंगे की जगह किसान हाथ में लाठी लेकर पुलिस व प्रशासन से जूझ रहे थे. पुलिस की लाठियां खा रहे थे, गोलियों का सामना कर रहे थे. इस आंदोलन में दो किसानों की मौत हो गई और कई दर्जन किसान घायल हो गए. सरकार ने झटपट घोषणाएं भी कीं. अगले दिन संसद में भी मामला उठा, लेकिन आंदोलन जारी है, किसानों का गुस्सा बरक़रार है. किसान भूमि अधिग्रहण से इतने नाराज़ हैं कि अलीगढ़ की आग पूरे उत्तर प्रदेश में फैल गई. बलिया से लेकर वाराणसी, भदोही, मिर्जापुर और इलाहाबाद में भी किसान भूमि अधिग्रहण से नाराज़ हैं. फिरोजाबाद में 1775 एकड़ जमीन के अधिग्रहण के खिला़फ 29 गांवों के किसान आंदोलन कर रहे हैं. यमुना एक्सप्रेस-वे के खिला़फ अलीगढ़ से शुरू हुआ आंदोलन अब गंगा एक्सप्रेस-वे तक पहुंच गया है. सरकार की अनदेखी का नतीजा यह है कि किसान अब यह कह रहे हैं कि उन्हें मुआवजा नहीं, जमीन वापस चाहिए. इन आंदोलनकारियों को दूर-दूर से समर्थन मिल रहा है. दादरी के किसानों ने पंचायत बुलाकर इन लोगों को समर्थन देने का ऐलान किया है. अलीगढ़ के किसानों का यवतमाल, वर्धा और नागपुर के किसानों ने भी समर्थन किया है और वे यहां आने की तैयारी में हैं. इसके अलावा गंगा एक्सप्रेस-वे के खिला़फ आंदोलन कर रहे किसानों ने भी विरोध प्रदर्शन करने का ऐलान कर दिया. आंदोलन के तेवर को देखते हुए कई राजनीतिक दल भी अपना समर्थन देने पहुंच गए. सरकार को इस खतरे को हल्के में नहीं लेना चाहिए. किसान आंदोलन विद्रोह का रूप ले रहा है और उत्तर प्रदेश इसका केंद्र बन गया है. अगर इस विद्रोह ने आग पकड़ ली तो इसे नियंत्रित करना नामुमकिन हो जाएगा.
पंद्रह अगस्त के दिन टीवी पर किसानों को लाठी लिए देख स्वामी सहजानंद सरस्वती की याद आती है. वह कहते थे, कैसे लोगे मालगुजारी, लट्ठ हमारा जिंदाबाद. भारत में संगठित किसान आंदोलन का श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को जाता है. उन्होंने अंग्रेजों और जमींदारों के शोषण के खिला़फ निर्णायक लड़ाई लड़ी थी. उन्होंने कहा था,
जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब सो क़ानून बनाएगा.
यह भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलाएगा.
उन्होंने गांव-गांव जाकर लोगों को अंग्रेजों के खिला़फ खड़ा किया. वह इस बात को समझते थे कि अंग्रेजी हुकूमत की आड़ में जमींदार ग़रीब किसानों पर जुल्म ढा रहे हैं. इसलिए उन्होंने 1929 में बिहार में किसान सभा की स्थापना की और जमींदारों के शोषण से मुक्ति और ज़मीन पर मालिकाना हक़ दिलाने की मुहिम शुरू की. स्वामी सहजानंद ने सैकड़ों रैलियां और सभाएं कीं, जिनमें कांग्रेस की सभाओं से ज़्यादा लोग एकत्र होते थे. सहजानंद जीवित नहीं हैं, लेकिन जिस शोषण के खिला़फ उन्होंने लड़ाई लड़ी, वे स्थितियां आज भी मौजूद हैं. अंतर बस इतना है कि उस समय के किसान अंग्रेजों से लड़ रहे थे और आज दुर्भाग्यवश अपनी ही सरकार से. असल में गुलामी हो या आज़ादी, उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. बस शोषण करने वाले का चेहरा बदल गया है. आज़ादी का यह कौन सा मंजर है, जहां चंद उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए ग़रीब किसानों पर गोलियां चलाई जाती हैं.
चाहे वह दादरी हो, अलीगढ़ हो या आगरा या कहीं और, भूमि अधिग्रहण को लेकर हो रहे आंदोलन में शामिल किसान किसी पार्टी, विचारधारा या संगठन के नहीं हैं. वे आम किसान हैं, जिनकी ज़मीन छिन गई है या छीनी जा रही है. इनमें वे लोग हैं, जिनके पास खेतों के अलावा कुछ भी नहीं है. आगरा के एत्मादपुर गांव को ही ले लीजिए. यहां के निवासियों ने अधिग्रहीत की गई ज़मीन का अधिक मुआवजा दिए जाने की मांग को लेकर पुलिस चौकियों पर हमला किया. उग्र ग्रामीणों की भीड़ में भारी संख्या में महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे. पुलिस ने लाठीचार्ज करने के साथ ही रबर की गोलियां चलाईं. कई महिलाएं, बच्चे और अन्य ग्रामीण घायल हुए. काफी देर तक पुलिस और किसानों के बीच पत्थरबाजी होती रही. दूसरी बात यह है कि इस इला़के में कई किसान नेता हैं, जैसे कि अजीत सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत. पर इन ग़रीब किसानों ने इनके नेतृत्व को मानने से इंकार कर दिया है. ये लोग संगठित नहीं हैं. ये आंदोलन इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि नाराज़ हैं. उग्र इसलिए हो जाते हैं, क्योंकि इनकी बात सुनने वाला कोई नहीं है.
हमारे देश में एक नई प्रथा चली है. उद्योगपतियों, अमीरों एवं रसूख वालों की मांगों को सरकार और अधिकारी बंद कमरे में पूरी कर देते हैं, लेकिन देश के ग़रीबों, मजदूरों एवं किसानों को अपनी मांगों को सरकार तक पहुंचाने के लिए भी खून देना पड़ता है.
यमुना एक्सप्रेस-वे 9 हज़ार करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट है. दिल्ली से आगरा तक के लिए इस प्रोजेक्ट में 165 हाईवे बनने हैं, जिसके लिए सरकार ने किसानों की ज़मीनें अधिग्रहीत की हैं. इस प्रोजेक्ट में उत्तर प्रदेश के 4 ज़िलों के 1192 गांवों के किसानों की ज़मीन ली गई है. किसानों को लगता है कि जिस तरह का मुआवजा नोएडा के किसानों को मिला है, वही मुआवजा उन्हें भी मिलना चाहिए. हाल में हुए किसान आंदोलन इस बात के सबूत हैं कि एक्सप्रेस-वे के मामले में सरकार ने किसानों के साथ न स़िर्फ अन्याय किया है, बल्कि उनकी बातों को सुनने से भी इंकार कर दिया है. पिछले लोकसभा चुनाव की घटना है. ग्रेटर नोएडा के सिकंदराबाद के चोला औद्योगिक एरिया में आने वाले 15 गांवों के किसानों ने लोकसभा चुनाव का बहिष्कार किया था. वजह वही थी, जो आज के आंदोलन की है. इन किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण करने के लिए 1999 में नोटिफिकेशन जारी किया गया था. उस वक्त किसानों ने नोएडा-ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी के सामने मुआवजे और अधिग्रहीत ज़मीन के बदले पांच प्रतिशत प्लाट देने की मांग कर आंदोलन चलाया था, जिसे यूपीएसआईडीसी ने मान भी लिया था. उस वक्त यह तय हुआ था कि 405 रुपये प्रति गज मुआवजा और अधिग्रहीत जमीन के बदले पांच प्रतिशत प्लाट दिया जाएगा. आज तक इस करार पर अमल नहीं हुआ है. टिकैत या अजित सिंह जैसे बड़े नेताओं ने भी इनका साथ नहीं दिया. इन किसानों ने हर राजनीतिक दल का दरवाजा खटखटाया, लेकिन अब ये समझ चुके हैं कि इन्हें स़िर्फ एक राजनीतिक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाता है. आखिरकार, किसानों ने खुद ही मोर्चा संभाल लिया. अलीगढ़ की चिंगारी एक बड़े आंदोलन का रूप ले रही है. इस बात की पूरी संभावना है कि इस आंदोलन के भड़कने से गंगा एक्सप्रेस-वे, हिंडन एक्सप्रेस-वे एवं अन्य दूसरी जगह के किसान भी मुआवाजा बढ़ाने की मांग शुरू कर देंगे, तब यह आंदोलन पश्चिम से पूरब तक फैल जाएगा. किसान सरकारी नीतियों, अधिकारियों की अनदेखी और राजनीतिक दलों के फरेब से निराश हो चुके हैं. दूसरी तरफ, जहां कहीं भी मुआवजे का सवाल उठता है, वहां पुलिस की लाठी और गोली चलती है. ऐसे में खतरा इस बात का है कि अगर किसान उग्र व हिंसक हो जाते हैं तो इसमें उनका कोई दोष भी नहीं होगा. यह सरकार को समझना चाहिए कि देश के ग़रीब किसानों की समस्याओं को निपटाने और उनके साथ बर्ताव करने में मानवीय मूल्यों को तिलांजलि क्यों दे दी जाती है.
आंदोलन को शांत करने के लिए सरकार ने विज्ञप्ति जारी कर दी, जिसमें कहा गया कि जिन किसानों की अधिकांश भूमि अधिग्रहीत कर ली गई है, ऐसे किसान परिवार के एक सदस्य को जेपी इन्फ्राटेक द्वारा उन गांवों में अधिग्रहीत भूमि पर टाउनशिप बनाने का काम शुरू होने पर उनकी योग्यता के अनुसार समायोजित किया जाएगा, लेकिन इस तरह के फरेब से किसान ऊब चुके हैं. टप्पल एवं आसपास अन्य गांवों के किसानों ने वापस जाकर मुआवजा बढ़ाने के लिए धरना जारी रखा. अलीगढ़, मथुरा, आगरा, महामायानगर और गौतम बुद्ध नगर आदि चारों तरफ के किसान भी नोएडा के बराबर मुआवजे की मांग करने लगे हैं. सोचने वाली बात यह है कि किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण करने के पीछे तर्क क्या है.
इस विवादास्पद परियोजना का पूरा नाम यमुना एक्सप्रेस-वे इंडस्ट्रियल अथॉरिटी है. नाम से ही समझ में आ जाता है कि यह स़िर्फ सड़क बनाने की योजना नहीं है. यहां व्यवसायिक केंद्र भी बनेंगे. इसमें किसानों की ज़मीन अधिग्रहीत करके जेपी एसोसिएट्स नामक कंपनी को सड़क बनाने के साथ-साथ इस इलाके के विकास की ज़िम्मेदारी दी गई है. जेपी एसोसिएट्स ही यहां लागत लगाकर औद्योगिक विकास करेगा, उसका संचालन करेगा और उसकी बिक्री भी करेगा. यह अथॉरिटी रिहायशी प्लाट के लिए लगभग पांच हज़ार रुपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से ज़मीन बेच रही है. बाद में इसकी क़ीमत और भी ज़्यादा होगी. सरकार किसानों की उपजाऊ खेतों पर हाईवे, एक्सप्रेस-वे या इंडस्ट्री या फिर एसईजेड बनाना चाहती है, जिसका फायदा ग़रीब किसानों को नहीं, बल्कि देश के उद्योगपतियों एवं अमीरों को मिलेगा. इन खेतों में टाउनशिप, मॉल, ऑफिस एवं थिएटर आदि का निर्माण होगा. लेकिन जिनकी जमीन है, उनके खाते में क्या आएगा? यही वजह है कि ग़रीब किसानों का गुस्सा सरकार के साथ-साथ उन बड़ी- बड़ी कंपनियों के प्रति भी है, जिन्हें इन नीतियों का सीधा फायदा मिलता है. नाराजगी इस कदर है कि आंदोलित किसानों ने जेपी एसोसिएट्स का ऑफिस तक फूंक दिया. लोग बताते हैं कि ये ऑफिस इतना बड़ा था कि इसे जलने में दो दिन लगने थे, लेकिन तीन-चार घंटे में सब कुछ जलकर खाक हो गया. सरकार के सामने दूसरा खतरा यह है कि किसानों ने अब मुआवजा मांगना बंद कर दिया है. वे अब अपनी ज़मीन वापस चाहते हैं. अगर यह आंदोलन ज़मीन वापसी की मांग की ओर मुड़ गया तो स्थिति भयानक रूप ले सकती है. किसान ज़मीन छोड़ेंगे नहीं और सरकार विकास के नाम पर पीछे नहीं हटेगी. इसलिए हिंसक आंदोलन की आहट सा़फ सुनाई दे रही है.
ऐसे में किसी भी सरकार को यह अधिकार नहीं दिया जा सकता है कि कुछ लोगों के विकास के लिए वह सैकड़ों किसानों की ज़मीन जबरन अधिग्रहीत कर ले. देश में ऐसे क़ानून की ज़रूरत है, जिसमें किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण उनकी मर्जी के बिना न किया जा सके और अगर सरकार अधिग्रहण करती भी है तो मुआवजे की राशि एवं किसानों के भविष्य के प्रति पूरा ध्यान रखा जाए.
देश के बारे में सोचते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं, डर लगने लगता है. देश में किसान आंदोलन विद्रोह का रूप ले रहा है. आदिवासी नक्सलियों के साथ मिलकर विद्रोह कर रहे हैं. सरकारी योजनाओं के नाम पर देश के चंद घरानों को फायदा हो रहा है. भ्रष्टाचार के नित नए-नए रूप दिख रहे हैं. अधिकारी और सरकारी विभाग हर फ्रंट पर विफल हो रहे हैं. नेताओं और सांसदों से लोगों का भरोसा उठ रहा है. स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. सरकार की वैधानिकता पर सवाल उठने लगा है. संभलने का शायद यह आ़खिरी मौक़ा है.