आज़ाद भारत का सबसे बड़ा खेल समारोह नेताओं और अधिकारियों के भ्रष्टाचार की वजह से सबसे बड़े घोटाले में तब्दील हो गया है. कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर हर तऱफ लूट मची है. ऐसा लग रहा है कि देश में लूट का महोत्सव मनाया जा रहा है. हर मंत्रालय, हर विभाग के अधिकारी, नेता एवं बिचौलिए, जिन्हें जहां मौक़ा मिला, बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं. क्या खेल संगठनों में राजनेताओं के शीर्ष पद पर होने की वजह यही है.जनता के पैसे की लूटखसोट के नए-नए तरीक़ों का खुलासा हो रहा है. शक़ की सुई हर तऱफ उठ रही है, लेकिन प्रधानमंत्री चुप हैं, आडवाणी चुप हैं.
कॉमनवेल्थ की असल कहानी यह है कि एक साल पहले दिल्ली से इस आयोजन को ख़त्म करने की पूरी तैयारी हो चुकी थी. सात देशों ने यह मना कर दिया था कि दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स नहीं होने चाहिए. इसमें त्रिनिडाड एंड टुबैगो जैसा छोटा देश भी दिल्ली के ख़िला़फ खड़ा हो गया था. इन देशों का यह मानना था कि दिल्ली इस खेल को समय पर कराने में सक्षम नहीं है. सूत्रों के मुताबिक़, इनका मुंह बंद करने के लिए इन देशों के अधिकारियों को चालीस करोड़ रुपये दिए गए. हर अधिकारी को एक-एक करोड़ रुपये दिए गए. सारे पैसे हवाला के ज़रिए दिए गए. अब देश का प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जागा है तो कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर जो पैसे विदेश भेजे गए, उनकी तहक़ीक़ात हो रही है. हर दिन नई कहानी आ रही है और इन खुलासों का सिलसिला का़फी दिनों तक चलता रहेगा. याद रहे कि यह सरकारी अधिकारियों के इस ऐतिहासिक लूट महोत्सव का सबसे गौरवशाली पन्ना है.
एक मज़ेदार कहानी बताता हूं. प्रिंस हैरी रग्बी का मैच देखने दिल्ली आए, साथ में कॉमनवेल्थ गेम्स के कई अधिकारी भी तैयारी का जायज़ा लेने आए थे. स्टेडियम देखकर सब दंग रह गए. घास वग़ैरह बिल्कुल हरी. स्टेडियम के चारों तऱफ की सजावट देखकर सारे लोग मंत्रमुग्ध हो गए. खिलाड़ी भी ख़ुश थे कि दिल्ली में इतना शानदार स्टेडियम बन रहा है. विदेश से आए कुछ अधिकारियों को यक़ीन नहीं हुआ, वे सोच में पड़ गए कि ऐसा कायाकल्प कैसे हो सकता है. एक ने सोचा कि चलो दीवारों के पीछे देखते हैं कि आख़िर वहां क्या है. दीवारों के बीच जाकर देखा तो मज़दूर सो रहे थे, सीमेंट की बोरियां पड़ी हुई थीं, ईंट-पत्थर बिखरे पड़े थे, गंदगी फैली हुई थी, सब कुछ ढंका हुआ था. जो भी कुछ स्टेडियम के अंदर से दिख रहा था, वह सब स़िर्फ अच्छा दिखने के लिए बनाया गया था. सब दिखावा था. दीवारों के पार सब कुछ खोखला था. रिपोर्ट चली गई कि स्टेडियम खेल के लायक़ नहीं है. आज यही हाल दिल्ली में बन रहे सारे स्टेडियमों का है. कॉमनवेल्थ गेम्स हो जाएंगे. ढांक-पोतकर स्टेडियमों को ख़ूबसूरत भी बना दिया जाएगा, लेकिन इस आयोजन के तीन महीने बाद कोई यह पूछने भी नहीं जाएगा कि कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर जो स्टेडियम बनाए गए, सरकार का खज़ाना जो लूटा गया, उसका क्या हुआ. जिस तरह से ये स्टेडियम बनाए जा रहे हैं, वे खिलाड़ियों के किसी काम में नहीं आने वाले हैं. यहीं से हम कॉमनवेल्थ के नाम पर हो रही लूट, घपलेबाज़ी, भ्रष्टाचार और धोखे की कहानी शुरू करते हैं.
सबसे पहले बात करते हैं लंदन की कंपनी एएम फिल्म्स की, जिसे लेकर टीवी और अख़बारों में हंगामा हो रहा है. इसके बारे में एक अख़बार ने यह खुलासा किया कि इस कार कंपनी को दिए गए पैसे में घपलेबाज़ी हुई है. एक अनजान एवं छोटी कंपनी को ओसी ने छह करोड़ रुपये दिए. हैरानी की बात यह है कि पहले कलमाडी ने सारे आरोपों को ख़ारिज किया. फिर इस मामले में दरबारी को हटाया गया और बाद में यह खुलासा भी हो गया कि ए एम फिल्म्स को पैसे देने का आदेश कलमाडी ने दिया था. इस प्रकरण में आया सच, अर्धसत्य है. पैसे दिए गए, लेकिन असल कहानी कुछ और है. यह मामला क्वींस बैटन रिले की है. कॉमनवेल्थ गेम्स की मशाल की शुरुआत बकिंघम पैलेस से होती है. कलमाडी और अधिकारियों की इस बात के लिए तारी़फ होनी चाहिए कि इसका बहुत ही बेहतरीन आयोजन किया गया. इसमें 4-5 हज़ार लोगों के शामिल होने का अनुमान था, लेकिन 45 हज़ार लोगों ने इस आयोजन में शामिल होकर इसे ऐतिहासिक बना दिया. इसका आयोजन ऐसा हुआ कि जिसे देखकर किसी भी हिंदुस्तानी का सीना फूल जाए. इतने बड़े आयोजन के लिए पैसे भी जमकर ख़र्च किए गए, लेकिन सब कुछ आख़िरी व़क्त पर हुआ है. ग़लती यह हो गई कि कलमाडी एंड कंपनी पैसे को पहुंचा नहीं पाए. हड़बड़ी में इन्होंने अंतिम व़क्त में इस कार कंपनी के ज़रिए इंग्लैंड पैसे भेजे. उन्होंने जितने पैसे भेजे, वे कम पड़ गए. सूत्र बताते हैं कि इस आयोजन में लगे ज़्यादातर पैसे हवाला के ज़रिए लंदन भेजे गए. यह मामला स़िर्फ छह करोड़ का है. कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर जिस तरह सरकारी खज़ाने की लूट हुई, उसके सामने यह मामला बहुत ही छोटा है.
सोलह सौ करोड़ रुपये कॉमनवेल्थ के आयोजन का बजट है. इसमें पूरे तीन साल पहले मेलबर्न की बैटन रैली से लेकर कॉमनवेल्थ गेम्स के आख़िरी तक का ख़र्च शामिल है, जिसमें स्टेडियम और दिल्ली में बनने वाले ओवरब्रिज एवं सड़कों या इंफ्रास्ट्रक्चर का ख़र्च शामिल नहीं है. इस 1600 करोड़ में स्टेडियम के अंदर की सुविधाओं, ओपनिंग और क्लोजिंग के आयोजन और खेल-खिलाड़ियों के ख़र्च शामिल हैं. ओसी ने यह कहा था कि वह सरकार को यह पैसा लौटा देगी. इसमें तीन सौ करोड़ रुपये खिलाड़ियों की ट्रेनिंग के लिए दिए गए थे, ताकि भारत को ज़्यादा से ज़्यादा मेडल मिल सकें. लेकिन इन तीन सौ करोड़ रुपये में अब तक चालीस करोड़ रुपये भी खिलाड़ियों पर ख़र्च नहीं किए गए हैं. अब सवाल यह है कि ये पैसे गए कहां? मीडिया में घोटाले की जो ख़बरें आ रही हैं, वे इन्हीं सोलह सौ करोड़ रुपये से हुए ख़र्च में घपलेबाज़ी का मामला है. इसमें ट्रेड मिल से लेकर इंग्लैंड की कंपनी ए एम फिल्म्स को दिए गए पैसे शामिल हैं. चौथी दुनिया की तहक़ीक़ात से पता चला है कि कॉमनवेल्थ गेम्स में जो सामान ख़रीदा गया है, उसमें एक बड़ा हिस्सा दिपाली डिज़ाइन एंड एक्जिबिट्स नाम की कंपनी के ज़रिए ख़रीदा जा रहा है. इस कंपनी के पीछे भाजपा के नेता सुधांशु मित्तल का नाम जुड़ा है. इस कंपनी के मालिक सुधांशु मित्तल के क़रीबी रिश्तेदार हैं. इस कंपनी को ओसी ने कुल क़रीब 230 करोड़ रुपये दिए हैं.
एक अनुमान के मुताबिक़ इन 230 करोड़ रुपये में जितने भी सामान ख़रीदे गए या किराए पर लिए गए, वे असल में 25 करोड़ रुपये के भी नहीं हैं. इस कंपनी के ज़रिए सारे सामान ख़रीदे नहीं गए हैं, बल्कि ज़्यादातर किराए पर लिए गए हैं. मतलब यह कि आयोजन के बाद हमारे स्टेडियम में भारतीय खिलाड़ियों के हाथ कुछ नहीं लगने वाला है. उदाहरण के तौर पर ट्रेड मिल को ही ले लीजिए. 45 दिनों के किराए के रूप में इस कंपनी को एक ट्रेड मिल के लिए नौ लाख पचहत्तर हज़ार रुपये मिल रहे हैं. पता यह चला है कि यह कंपनी दिल्ली के स्थानीय दुकानों से एक लाख से कम किराया देकर ट्रेड मिल ले रही है और उसी ट्रेड मिल के लिए आयोजन समिति से नौ लाख पचहत्तर हज़ार रुपये ले रही है. मतलब यह कि ओसी एक सामान के लिए नौ गुना ज़्यादा रुपये ख़र्च कर रही है. हैरानी की बात यह है कि इस ट्रेड मिल की क़ीमत ही स़िर्फ चार लाख रुपये है. यानी एक ट्रेड मिल के पैंतालिस दिनों के किराए से हम दो ट्रेड मिल ख़रीद सकते थे. टीशू पेपर का रोल कैसे ख़रीदा गया है, यह तो सचमुच चौंकाने वाला है. हमारे अधिकारियों ने कॉमनवेल्थ के लिए 3757 रुपये में एक रोल ख़रीदी है. बाज़ार में इसकी क़ीमत 30 रुपये है.
इसे एसआर टीशू एंड फ्वाइल्स नाम की कंपनी से ख़रीदा गया. अगर ऐसी मूर्खतापूर्ण डील करनी थी तो आयोजन समिति में इतने पढ़े-लिखे लोगों की ज़रूरत क्या थी? ऐसा कौन सा छाता है, जिसका किराया ही छह हज़ार रुपया है और उसकी क्या खासियत है, यह रहस्य आयोजन समिति के अधिकारियों को ज़रूर उजागर करना चाहिए. जनता के पैसे को किस तरह नाजायज़ खर्च किया गया है, इसे समझने के लिए किसी को जासूस बनने की ज़रूरत नहीं है. सब कुछ सामने है. लिए गए सामानों की वास्तविक क़ीमत और उनके लिए अदा की गई क़ीमत अथवा किराए में ज़मीन-आसमान का फर्क़ देखकर कोई सामान्य समझ वाला शख्स ही बेधड़क बता देगा कि यह खुल्लमखुल्ला लूट है.
तीन सौ करोड़ रुपये खिलाड़ियों पर ख़र्च करना था. हैरानी की बात यह है कि हमें यह भी पता नहीं है कि हॉकी का कैंप कहां हो रहा है, बिलियर्ड्स की ट्रेनिंग कहां होगी, एथलेटिक्स की ट्रेनिंग और प्रैक्टिस कहां हो रही है, यह किसी को पता तक नहीं है. शूटिंग का भी वही हाल है, जबकि हमें पता है कि इसमें भारत को मेडल मिल सकता है. असलियत तो यह है कि अभी तक टीम की भी घोषणा नहीं हुई है. एक महीना रह गया है, लेकिन कैंप तक शुरू नहीं हो पाया है. कोई स्टेडियम ठीक से तैयार नहीं है. सब ऊपर वाले के हाथ में छोड़ दिया गया है.
चौथी दुनिया की तहक़ीक़ात से पता चला है कि ओसी के ज़्यादातर अधिकारियों को पता था कि खरीददारी और आयोजन में भीषण घपलेबाज़ी हो रही है. यही वजह है कि ऑल इंडिया टेनिस एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल खन्ना जो ओसी के खजांची थे, ने इस्ती़फा दे दिया. उन्होंने दो महीने से किसी भी चेक पर साइन करना बंद कर दिया था. उन्होंने सा़फ-सा़फ कह दिया कि कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में घपलेबाज़ी हो रही है. इनके जाते ही ए के मट्टू को ओसी में लाया गया. यह एक बड़ी घटना है, क्योंकि इनके आते ही कलमाडी की वही पुरानी टीम जो एथलेटिक्स की टीम थी, ओसी की कर्ताधर्ता बन गई. कलमाडी, ललित भनोट, ए के मट्टू, संजय महेंद्रू और दरबारी ने टीम बनाकर सारे कारनामों को अंजाम दिया. इस टीम के इतिहास के बारे में अगर जानना है तो सरकार को इसके उन कारनामों की तहक़ीक़ात करनी चाहिए, जो इसने देश के एथलेटिक्स के साथ किया है. बहुत सारे खुलासे ख़ुद बख़ुद सामने आ जाएंगे और देश के लोगों को यह भी पता चल जाएगा कि एथलेटिक्स की हालत क्यों ख़राब है.
सबसे बड़ी घपलेबाज़ी का खुलासा तब होगा, जब ओसी और स्पोर्ट्स मार्केटिंग एंड मैनेजमेंट (एसएमएएम) के बीच हुए सौदे का सच सामने आएगा. इस कंपनी को मार्केटिंग राइट्स दिए गए थे, जिन्हें अब निरस्त कर दिया गया है. इसे इस शर्त पर रखा गया था कि इसे हर डील का 23 फीसदी प्लस सर्विस चार्ज मिलेगा. यानी कि चाहे भारतीय रेल हो या फिर ओएनजीसी, जो भी इस खेल में विज्ञापन देगा, उसमें से लगभग पच्चीस फीसदी रकम इस कंपनी को मिल जाएगी. अब यह सोचने वाली बात है कि दिल्ली में आयोजन होगा, भारत की कंपनी पैसे लगाएगी और आस्ट्रेलिया की कंपनी को
बैठे-बैठाए 25 फीसदी पैसे चले जाएंगे. ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह वही कंपनी है, जिसे कलमाडी ने पुणे गेम्स 2008 में मार्केटिंग राइट्स दिए थे. इस कंपनी के तार मॉरीशस की उस कंपनी के साथ जुड़े हैं, जिसका नाम आईपीएल घोटाले में आया है. इस कंपनी को ललित मोदी ने फैसिलिटेशन फीस के तौर पर 380 करोड़ रुपये दिए थे. अ़फसोस की बात यह है कि इसके बावजूद यह कंपनी कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए प्रायोजक नहीं ला सकी. यही वजह है कि भारतीय रेल और ओएनजीसी ने अपनी 100-100 करोड़ रुपये की स्पांसरशिप वापस ले ली. इनका कहना यह है कि अगर इसमें 25 फीसदी आस्ट्रेलिया की कंपनी को जाना है तो पैसे लगाने का कोई तुक ही नहीं है. अब हालात यह हैं कि कलमाडी और ओसी को भीख मांगनी पड़ेगी, क्योंकि अभी तक हीरो होंडा के अलावा कोई बड़ा कॉरपोरेट स्पांसर नहीं मिला है. जो भी कंपनियां हैं, वे क्रिकेट वर्ल्ड कप के लिए पैसे बचाकर रख रही हैं. दूसरी समस्या यह है कि यह कंपनी अब ओसी के ख़िला़फ क़ानूनी कार्रवाई करने की तैयारी में है. आस्ट्रेलिया सरकार के मंत्री भी बयान दे रहे हैं कि इस तरह से किसी कंपनी को ब़र्खास्त नहीं किया जा सकता है. इसका खेल पर इस तरह से असर पड़ने वाला है कि कई बड़े-बड़े खिलाड़ी दिल्ली नहीं आएंगे. कनाडा ने भी अपने बड़े-बड़े खिलाड़ियों को दिल्ली भेजने से मना कर दिया है.
अभी यह शुरुआत हुई है. माना यह जा रहा है कि आस्ट्रेलिया और कनाडा के बाद और भी देश अपने अच्छे खिलाड़ियों को दिल्ली आने से मना कर सकते हैं. जब अच्छे खिलाड़ी हिस्सा ही नहीं लेंगे तो दर्शक किसे देखने के लिए स्टेडियम जाएंगे या टीवी देखेंगे. कॉमनवेल्थ गेम्स को एक और झटका लगा है. यह बात बहुत ही कम लोग जानते हैं कि जब इसकी तैयारी हुई थी तो यह अनुमान लगाया गया था कि क़रीब 4 लाख विदेशी दिल्ली आएंगे. हक़ीक़त यह है कि आज यह संख्या घटकर 20-30 हज़ार से ज़्यादा नहीं है. इस घपलेबाज़ी का दूसरा ख़ामियाज़ा यह है कि भारत ने एशियन गेम्स के लिए बिड करना छोड़ दिया है. कोई भी मंत्रालय अब कलमाडी के साथ हाथ मिलाने से कतरा रहा है. इस घपलेबाज़ी का एक और नुक़सान यह है कि खेलों में आने वाला विदेशी निवेश रुक जाएगा.
कलमाडी से यह सवाल भी पूछना चाहिए कि कॉमनवेल्थ गेम्स में क्रिकेट क्यों नहीं है. चाहे वह आस्ट्रेलिया हो, न्यूजीलैंड, इंग्लैंड, वेस्टइंडीज, साउथ अफ्रीका, भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश हो, ये सब क्रिकेट खेलने वाले देश कॉमनवेल्थ के मेंबर हैं. 2004 में ही यह तय हो चुका था कि दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स में क्रिकेट भी शामिल होगा, लेकिन बीसीसीआई ने इसमें हिस्सा लेने से मना कर दिया. असलियत यह है कि महाराष्ट्र के दो नेताओं शरद पवार और कलमाडी की लड़ाई की वजह से देश को सबसे बड़ा नुक़सान होने वाला है. अगर क्रिकेट को शामिल कर लिया गया होता तो 900 से 1000 करोड़ रुपये स़िर्फ क्रिकेट से मिल गए होते. आज हालत यह है कि सुरेश कलमाडी को दूरदर्शन ने भी छोड़ दिया है. अब दूरदर्शन ने यह कह दिया है 75000 सेकेंड के लिए जो स्पांसर्स लाने हैं, वे ओसी ही लेकर आए. अब समस्या यह है कि स्पांसर्स कहां से आएंगे. एक अनुमान के हिसाब से कॉमनवेल्थ गेम्स से ज़्यादा से ज़्यादा स़िर्फ 400 करोड़ रुपये ही आ सकते हैं. सवाल यह है कि अब कलमाडी 1600 करोड़ रुपये सरकार को कहां से वापस करेंगे. अब सरकार को यह फैसला करना है कि अगर यह पैसा वापस नहीं होता है तो क्या इस लूट का ख़ामियाज़ा देश की जनता भुगतेगी?
35,000 करोड़ रुपये जो इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए दिए गए हैं, उसमें भी भीषण घपलेबाज़ी हुई है. सरकार को यह तहक़ीक़ात करनी चाहिए कि 32 खेलों के लिए जितने भी स्टेडियम बने हैं, स्विमिंग पूल, टेनिस कोर्ट आदि बने हैं, उनकी डिज़ाइन और आर्किटेक्चर किस कंपनी ने तैयार किए. इन कंपनियों के पीछे कौन-कौन लोग हैं. इस तहकीक़ात की ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि ये कंपनियां और एजेंसियां ओसी के अधिकारियों की फ्रंट कंपनी हैं. मतलब यह कि पैसे कैसे ख़र्च होंगे, स्टेडियम कैसा बनेगा, उसका डिज़ाइन क्या होगा, ये सारे फैसले ओसी को ही लेने थे. यानी इन सब लोगों ने देश की जनता के 35 हज़ार करोड़ रुपयों को निजी संपत्ति मानकर लूटखसोट की. जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम को ले लीजिए. इसके जीर्णोद्धार के लिए 900 करोड़ रुपये ख़र्च किए गए हैं. यह विशाल स्टेडियम पहले से बना था.
अब देखना यह है कि 900 करोड़ किस चीज पर ख़र्च किए जा रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि इस ख़र्च में खिलाड़ियों के लिए ज़रूरी मशीनें और सुविधाएं शामिल नहीं हैं. पैसे की बरबादी का यह अनोखा नमूना है. उदाहरण के तौर पर पुणे के बालेवाडी स्टेडियम को ले लीजिए, जो एक बेहतरीन स्टेडियम है. यह 82 करोड़ रुपये में बना था. यहां वर्ल्ड क्लास सुविधाएं हैं, अल्ट्रा माडर्न जिम है. मतलब यह कि अगर 200 या 300 करोड़ भी ख़र्च किए जाएं तो एक नया स्टेडियम बन सकता है, वह भी वर्ल्ड क्लास का. स्वीमिंग पूल का बजट 300 करोड़ का है, जबकि अच्छा से अच्छा स्वीमिंग पूल 5 करोड़ में तैयार हो जाता है. पैसे की बरबादी के साथ-साथ इन कामों में जिस तरह से नियम -क़ानून की अनदेखी की गई है, उसका नतीजा यह है कि कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़े काम पूरे नहीं हो पाए. इस काम में लगे ठेकेदार और कंपनियां अधिकारियों की सारी घपलेबाज़ी को जानते हैं. जब उन्हें कोई टेंडर नहीं मिलता है तो वे आरटीआई डाल देते हैं. मामला कोर्ट में पहुंच जाता है और काम रुक जाता है. अदालत में अब तक क़रीब 30 आरटीआई आवेदन डाले जा चुके हैं. आरटीआई डालने वाले समाजसेवक नहीं हैं. इनमें से ज़्यादातर लोग इन ठेकेदारों और कंपनियों के इशारे पर काम कर रहे हैं.
कॉमनवेल्थ गेम्स सही मायने में काजल की काली कोठरी है. इसमें जो भी शामिल हैं, उनका बेदाग़ निकलना मुश्किल है. कुछ दिनों पहले तक कलमाडी जब भी दिखते, इटालियन सूट और विदेशी रंगीन चश्मे में नज़र आते थे. जबसे कॉमनवेल्थ गेम्स में घोटाले की ख़बर आई है, वह पहले शर्ट और पैंट में नज़र आए और अब स़फेद खादी कुर्ते में दिखते हैं. सफेद खादी की ताक़त वह जानते हैं. साथ ही वह यह भी जानते हैं कि भारत की जनता भोली भाली है, बेहतरीन शुभारंभ समारोह और ज़बरदस्त आतिशबाज़ी के बीच सब कुछ भूल जाएगी. यही वजह है कि समारोह के लिए पचास करोड़ रुपये रखे गए हैं. जमकर आतिशबाज़ी होगी, जिसकी चमक और दमक के बीच भ्रष्टाचार के सारे मामले दब जाएंगे. फिर अलग-अलग एजेंसियों को जांच में लगाया जाएगा. यह दिखाया जाएगा कि सरकार गुनहगारों को सज़ा दिलाएगी, लेकिन गुनहगार फिर भी बच जाएंगे. वैसे भी हमारे देश में यह एक परंपरा बन चुकी है कि यहां शक्तिशाली घोटालेबाज़ों को सज़ा नहीं मिलती है. मीडिया खुलासे करता रहेगा, संसद में हंगामा होता रहेगा और अपराधी इन सब पर मुस्कराते रहेंगे. अब तो बस एक ही सवाल बच गया है, जिन्हें नाज़ है हिंद पर, वो कहां हैं?