जब तक सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता. स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता और न समानता को स्वतंत्रता से. इसी तरह स्वतंत्रता और समानता को बंधुत्व से अलग नहीं किया जा सकता. भारत एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर चुका है. राजनीतिक समानता को एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत समझ लिया गया है, जबकि समाज में आर्थिक और सामाजिक असमानता है. भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग पहले से ज़्यादा शोषित, पहले से कहीं ज़्यादा पीड़ित और सत्ता से दूर चला गया है. जिस व्यवस्था में अल्पसंख्यकों के अधिकार, सत्ता में उनकी हिस्सेदारी और विकास सुनिश्चित नहीं हैं, वह प्रजातंत्र के नाम पर धोखा है.
भारत के मुसलमान देश के सबसे पीड़ित और शोषित वर्गों का हिस्सा बन चुके हैं. राजनीति में मुसलमान हाशिए पर हैं. प्रशासन, सेना और पुलिस में मुसलमानों की संख्या शर्मनाक रूप से कम है, न्यायालयों में मुसलमानों की उपस्थिति बहुत कम है और बाकी कसर उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की आर्थिक नीति ने पूरी कर दी है, जिसकी मार मुसलमानों पर सबसे ज़्यादा पड़ रही है. डॉ. भीमराव अंबेदकर ने सामाजिक असमानता को प्रजातंत्र के लिए खतरा बताया था. मुसलमान सामाजिक समानता से कोसों दूर हैं और न ही उनकी राजनीतिक प्रजातंत्र में हिस्सेदारी है. मुसलमानों के पिछड़ेपन की वजह आज भारत के वेलफेयर स्टेट होने पर सवाल खड़ा कर रही है. यह प्रजातंत्र पर एक बदनुमा दाग बन कर उभर रहा है. एक सफल राजनीतिक प्रजातंत्र के लिए सामाजिक प्रजातंत्र ज़रूरी हिस्सा है. जब तक सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता. स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता और न समानता को स्वतंत्रता से. इसी तरह स्वतंत्रता और समानता को बंधुत्व से अलग नहीं किया जा सकता. भारत एक विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर चुका है. राजनीतिक समानता को एक व्यक्ति-एक वोट का सिद्धांत समझ लिया गया है, जबकि समाज में आर्थिक और सामाजिक असमानता है. भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग पहले से ज्यादा शोषित, पहले से कहीं ज़्यादा पीड़ित और सत्ता से दूर चला गया है. यह देश में प्रजातंत्र के लिए खतरे की घंटी है. अफसोस की बात यह है कि देश चलाने वाले इस खतरे से बिल्कुल अंजान हैं.
1947 में जब भारत का बंटवारा हुआ तो कुछ लोगों ने भारत को अपना देश मानकर पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया. इन लोगों ने भारत को ही अपना वतन माना और मुस्लिम लीग की बातों पर भरोसा नहीं किया. इन लोगों ने भारत में रहने का फैसला अपनी मर्ज़ी से किया था. उन्हें यहां की गंगा-जमुनी तहज़ीब ज़्यादा पसंद आई. साठ से ज़्यादा साल गुज़र गए. इस देश से मोहब्बत करने का ईनाम यह मिला है कि आज भारत का मुसलमान देश के सबसे पीड़ित और पिछड़े समाज में तब्दील हो गया है. मुसलमान नौजवान बेरोज़गारी के साथ-साथ तिरस्कार का भी सामना कर रहे हैं. देश के राजनीतिक दलों को मुसलमानों का वोट तो चाहिए, लेकिन जब उनकी समस्याओं को हल करने का व़क्त आता है तो वे मौन धारण कर लेते हैं. यही वजह है कि सरकार के सौतेले रवैये की वजह से आज मुसलमानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है.
आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही यह तय हो गया था कि आज़ाद भारत एक रिप्रेजेंटेटिव डेमोक्रेसी और वेलफेयर स्टेट होगा. यह भारत की सामाजिक संरचना के हिसाब से सबसे उचित व्यवस्था थी. गांधी, नेहरू और तमाम नेताओं ने यही सोचा था कि अंग्रेजों की हुक़ूमत से आज़ादी के बाद सरकार ग़रीब जनता के विकास के लिए काम करेगी. दुनिया भर में मौजूद सभी शासन प्रणालियों में प्रजातंत्र को सबसे बेहतर इसलिए माना गया है, क्योंकि इस व्यवस्था के अंतर्गत शासन में हर वर्ग और समुदाय का अधिकार सुरक्षित रहता है और उनकी समान हिस्सेदारी होती है. अल्पसंख्यकों के साथ-साथ ग़रीब और पिछड़े वर्गों की भी सरकार चलाने में हिस्सेदारी प्रजातंत्र को दूसरी किसी व्यवस्था से अलग बनाती है. यही वजह है कि भारत के संविधान निर्माताओं में मतैक्य था कि आज़ाद भारत में प्रजातांत्रिक सरकार बनेगी, जिसमें छोटे-बड़े सभी वर्गों की समान हिस्सेदारी होगी. आज हमारे सामने भारत में प्रजातंत्र की साख खत्म होने का खतरा मंडराने लगा है. प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बारे में कई लोगों को यह भ्रम है कि यह बहुमत पर आधारित है. जब यूरोप में प्रजातंत्र का विकास हुआ, तब प्रजातंत्र का रूप अलग था. उस व़क्त बहुमत का सिद्धांत प्रजातंत्र का मूलमंत्र था. लेकिन दुनिया की स्थिति में बदलाव हुआ. पूंजीवाद और उदार प्रजातंत्र की आंधी में बहुमत के नाम पर सरकार निरंकुश होती चली गई. ग़रीब किसान और मज़दूर सत्ता से दूर चले गए. इसके विरोध में मार्क्सवादी विचारधारा का फैलाव हुआ. नतीजा यह हुआ कि पूरे यूरोप में प्रजातंत्र का चेहरा बदलने लगा. लेजेफेयर स्टेट का चरित्र बदला, वेलफेयर स्टेट की स्थापना हुई, जिसमें अल्पसंख्यकों को भी तरजीह मिलने की व्यवस्था लागू हुई. भारत के संविधान निर्माताओं ने ग़रीबों, किसानों एवं मज़दूरों के विकास के लिए प्रजातंत्र और वेलफेयर स्टेट स्थापित किया. मुसलमानों की हालत इस बात की गवाह है कि भारत का प्रजातंत्र और वेलफेयर स्टेट अपने एजेंडे से विमुख हो चुका है. जिस वजह से संविधान निर्माताओं ने इसे अपनाया था, उसमें भारत विफल हो गया है.
ग़रीब मुसलमानों के बारे में जो सच्चाई है, वह कलेजा दहला देने वाली है. ग्रामीण इलाक़ों में ग़रीबी रेखा के नीचे वाले 94.9 फीसदी मुसलमानों को मुफ्त अनाज नहीं मिल रहा है. सिर्फ 3.2 फीसदी मुसलमानों को सब्सिडाइज्ड लोन का लाभ मिल रहा है. स़िर्फ 2.1 फीसदी ग्रामीण मुसलमानों के पास ट्रैक्टर हैं और स़िर्फ 1 फीसदी के पास हैंडपंप की सुविधा है. शिक्षा की स्थिति और भी खराब है. गांवों में 54.6 फीसदी और शहरों में 60 फीसदी मुसलमान कभी किसी स्कूल में नहीं गए. पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की संख्या 25 फीसदी से ज़्यादा है, लेकिन सरकारी नौकरी में वे स़िर्फ 4.2 फीसदी हैं. जबकि यहां वामपंथियों की सरकार है, फिर भी राज्य की सरकारी कंपनियों में काम करने वाले मुसलमानों की संख्या शून्य है. सेना, पुलिस और अर्धसैनिक बलों में मुसलमानों की संख्या बहुत ही कम है. मुसलमानों की बेबसी का आंकड़ा जेलों से मिलता है. हैरानी की बात यह है कि मुसलमानों की संख्या जेल में ज़्यादा है. महाराष्ट्र में 10.6 फीसदी मुसलमान हैं, लेकिन यहां की जेलों में मुसलमानों की संख्या 32.4 फीसदी है. दिल्ली में 11.7 फीसदी मुसलमान हैं, लेकिन जेल में बंद 27.9 फीसदी क़ैदी मुसलमान हैं.
मुसलमानों पर हुए सारे रिसर्च का नतीजा एक ही है. इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सरकार के किसी भी विभाग में मुसलमानों की हिस्सेदारी जनसंख्या के अनुपात में नहीं है. प्रशासनिक सेवाओं में मुसलमानों की संख्या दयनीय है. देश में स़िर्फ 3.22 फीसदी आईएएस, 2.64 फीसदी आईपीएस और 3.14 फीसदी आईएफएस मुसलमान हैं. इससे भी ज़्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि सिखों और ईसाइयों की आबादी मुसलमानों से कम है, लेकिन इन सेवाओं में दोनों की संख्या मुसलमानों से ज़्यादा है. देश के सरकारी विभागों की हालत भी ऐसी ही है. ज्यूडिसियरी में मुसलमानों की हिस्सेदारी स़िर्फ 6 फीसदी है. जहां तक बात राजनीति में हिस्सेदारी की है तो यहां भी चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं. आज़ादी के साठ साल के बाद भी अब तक स़िर्फ सात राज्यों में मुस्लिम मुख्यमंत्री बन पाए हैं. हैरानी की बात यह यह है कि जम्मू-कश्मीर के फारुख़ अब्दुल्ला के अलावा देश में एक भी ऐसा मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं बन पाया, जो पांच साल तक शासन कर सका हो. राजनीति में मुसलमान हाशिए पर हैं, इस बात की गवाह लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की मौजूदा संख्या है. फिलहाल लोकसभा में 543 सीटों में स़िर्फ 29 सांसद मुसलमान हैं. सामाजिक पिछड़ेपन के साथ-साथ प्रजातंत्र के विभिन्न स्तंभों में भी मुसलमान हाशिए पर हैं.
जिस देश का सबसे बड़ा अल्पसंख़्यक समुदाय पिछड़ा, अशिक्षित, कमज़ोर और ग़रीब रह जाए तो उसका कभी भी विकास नहीं हो सकता. सरकार किसी भी पार्टी की हो, अगर वह भारत का विकास चाहती है तो हर ग़रीब और पिछड़े समुदाय को विकास की धारा से जोड़ना उसका दायित्व बन जाता है. अशिक्षा मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा अभिशाप है. हैरानी की बात यह है कि आज़ादी के इतने साल बीत जाने के बावजूद मुस्लिम नेताओं और सरकार को इस अभिशाप का एहसास नहीं है. मदरसों को बेहतर बनाने की बात होती है तो हिंदू और मुस्लिम कट्टरवादी संगठन एक साथ इसका विरोध करते हैं. और जो सेकुलर और प्रोग्रेसिव कहलाने वाली पार्टियां हैं, उन्हें यह लगता है कि जब तक मुसलमान अशिक्षित रहेंगे, तब तक उन्हें वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है. अब इस बात पर तो स़िर्फ दु:ख ही व्यक्त किया जा सकता है कि आज़ादी के 60 साल के बाद भी हमारी सरकार इस नतीजे पर नहीं पहुंच पाई है कि मुसलमानों की अशिक्षा कैसे दूर की जाए और मदरसों को कैसे बेहतर बनाया जाए. अब इंतजार अगले 60 साल का है, जिसमें दुनिया कहां से कहां निकल जाएगी और तब तक भारत में इस विषय पर हम बहस ही करते रह जाएंगे.
निजीकरण, वैश्वीकरण और आर्थिक उदारवाद का देश के ग़रीब मुसलमानों पर सबसे बुरा असर हुआ है. पिछले दो दशकों से भारत नव उदारवाद की आर्थिक नीति की चपेट में है. इसका सबसे बुरा असर मुसलमानों पर पड़ा है, खासकर बुनकर, दस्तकार, कारीगर और कढ़ाई-रंगाई आदि करने वाले लोग इस आर्थिक नीति की वजह से हाशिए पर आ गए हैं. वे बेरोज़गार हो गए हैं. इसका नतीजा यह है कि ग़रीबी की वजह से उनके बच्चे स्कूल से दूर चले गए हैं. अब शिक्षा के निजीकरण से ग़रीब अल्पसंख्यक पढ़ाई-लिखाई से वंचित रह जाएंगे. सरकार एक तरफ सरकारी नौकरियों में कटौती कर रही है. उसकी नीतियों और बदलती आर्थिक व्यवस्था में देश के पढ़े-लिखे लोग सरकारी नौकरी छोड़ ज़्यादा पैसे और सफलता के लिए प्राइवेट नौकरी की ओर जा रहे हैं. समझने की बात यह है कि ऐसे में अगर 10 साल के बाद मुसलमानों को रिजर्वेशन दे भी दिया जाता है तो भी अल्पसंख्यक पिछड़े ही बने रहेंगे और देश का दूसरा वर्ग आगे निकल जाएगा.
हम जब भी मुसलमानों की बात करते हैं तो उन्हें एक पैन इंडियन समाज मान लेते हैं. यह सत्य नहीं है और यह खतरनाक भी है. भारत का मुस्लिम समाज किसी दूसरे धर्म की तरह सजातीय नहीं है. मुस्लिम समाज भी दूसरों की तरह आर्थिक, सामाजिक, भाषाई, एथनिक, क्षेत्रीय और जातिगत आधार पर बंटा हुआ है. भारत में जैसे हिंदू समाज है, वैसे ही मुस्लिम समाज भी है. दूसरे धर्मों के ग़रीब और पिछड़े लोगों को जिस तरह से सरकारी योजनाओं का फायदा मिल रहा है, वह फायदा मुसलमानों को भी मिलना चाहिए. भारत में मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति और जनजातियों से भी खराब है. वजह सा़फ है कि ग़रीबी की मार दोनों पर है, लेकिन एक के लिए सरकार की मदद मौजूद है और मुसलमानों को उनकी क़िस्मत के सहारे छोड़ दिया गया है. अब देश चलाने वालों और मुस्लिम समाज के रहनुमाओं के सामने यह सवाल है कि ग़रीबों के बीच भी धर्म के नाम पर भेदभाव क्यों किया जा रहा है.
मुसलमानों के पिछड़ेपन के मूल में मुस्लिम नेताओं की भी भूमिका रही है. समस्या यह है कि सामाजिक-आर्थिक विकास के मुद्दों के बजाय ज़्यादातर मुस्लिम नेता धार्मिक एवं सांस्कृतिक जैसे भावनात्मक मुद्दों को आगे रखते हैं. जब भी हम मुसलमानों के हालात के बारे में बात करते हैं तो मसला मुस्लिम पर्सनल लॉ, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के चरित्र और उर्दू ज़ुबान पर आकर खत्म हो जाता है. मुस्लिम नेताओं के बीच सामाजिक एवं आर्थिक विकास बहस का मुद्दा नहीं है. शुरुआत से ही मुसलमान अपने अधिकार से ज़्यादा सुरक्षा को लेकर चिंतित रहे, लेकिन इसे बदलने की ज़रूरत है. यह समझने की ज़रूरत है कि अगर अधिकार होंगे तो सुरक्षा खुद बखुद हो जाएगी. जब तक मुसलमान बेरोज़गार, ग़रीब और सत्ता में भागीदारी से दूर रहेंगे, तब तक कोई सरकार, कोई पार्टी एवं कोई नेता उन्हें सुरक्षा नहीं दे सकता. इसलिए अधिकार की लड़ाई ही व़क्तकी मांग है, वरना देर हो जाएगी.
जितनी भी सेकुलर पार्टियां हैं, वे सब अपने चुनावी घोषणापत्र में मुसलमानों के रिजर्वेशन की बात दोहराती हैं और सरकार बनते ही उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है. चौथी दुनिया अ़खबार ने जब दो साल से संसद की अलमारी में सड़ रही रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट छापी तो लोकसभा और राज्यसभा में हंगामा मच गया. लेकिन सरकार ने इसके बावजूद इसे पेश नहीं किया. इसके बाद जब संपादक संतोष भारतीय ने यह कहकर ललकारा कि राज्यसभा नपुंसक लोगों का क्लब बन गई है तो चौथी दुनिया के एडिटर को प्रिवेलेज नोटिस थमा दिया गया. इसके बाद जब मुलायम सिंह ने लोकसभा में आवाज़ उठाई और सदन की कार्यवाही न चलने देने की धमकी दी, तब सरकार ने रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट संसद में पेश की. स़िर्फ पेश की, कोई कार्रवाई नहीं की. रिपोर्ट लागू करने की अब तक कोई सुगबुगाहट भी नहीं है. यह सरकार वही है, जिसके मुखिया मनमोहन सिंह ने कुछ साल पहले यह कहा था कि देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का ज़्यादा अधिकार है. सरकार की यह कैसी मजबूरी है कि वह वादा़फरामोशी पर आमादा है. मुसलमान किस पर भरोसा करें. यह क्यों न मान लिया जाए कि राजनीतिक दल चाहे वे किसी भी विचारधारा के हों, मुसलमानों के विकास के लिए बातें तो करते हैं, लेकिन अमल नहीं करते.
सरकार कहती है कि मुसलमानों को रिजर्वेशन देने के लिए संसद में सर्वसम्मति की ज़रूरत है. तो क्या सरकार जो भी बिल पास कराती है, उसमें सभी पार्टियों की सहमति होती है? क्या भारत-अमेरिका परमाणु संधि में सभी पार्टियों की सहमति थी? क्या महिला आरक्षण बिल को लेकर सभी दलों में सहमति है? फिर भी सरकार ने क़दम उठाया, बिल को पेश किया. लेकिन जब बात ग़रीब और पिछड़े मुसलमानों के विकास की होती है तो हर सरकार बहाना ढूंढने लग जाती है. सोचने वाली बात यह है कि जब मुसलमानों से जुड़ा भावनात्मक मामला आता है तो देश में ज़बरदस्त आंदोलन शुरू हो जाता है. यह अच्छी बात है. लेकिन जब इन्हीं मुसलमानों के लिए रोज़गार, शिक्षा और विकास की बात आती है तो पता नहीं क्यों, लोगों को सांप सूंघ जाता है. बाबरी मस्जिद की शहादत की बात को ही ले लीजिए. देश की सारी सेकुलर पार्टियां एक हो गईं. हिंदू हो या मुसलमान, समाज के रहनुमा सड़कों पर उतर आए. भाजपा और आरएसएस के खिलाफ़ देशव्यापी आंदोलन शुरू हो गया, लेकिन यही लोग सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पर चुप्पी साध कर बैठ गए हैं.
देश के सामने एक गंभीर खतरा मंडरा रहा है. प्रजातंत्र खतरे में है, लेकिन इस खतरे का आभास न तो सरकार को है और न ही राजनीतिक दलों को. समाज में फैली असमानता को चिन्हित करने और उसके उपाय निकालने के बजाय देश चलाने वाले चुप हैं या फिर इस मसले को टालने का फैसला कर लिया गया है. इस खतरे की वजह है मुसलमानों का पिछड़ापन, उनकी बेरोजगारी और अशिक्षा. मुसलमानों की हालत साल दर साल बदतर होती जा रही है. एक तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा जैसी पार्टियों से खतरा है तो दूसरी तरफ वे दल हैं, जो मुसलमानों को वोटबैंक समझ कर इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन उनकी रोज़मर्रा की समस्याओं को हल करने के बजाय टालमटोल का खेल खेलते हैं. एक तरफ अमेरिका और यूरोप की सरकारें मुसलमानों को आतंकी क़रार देने में जुटी हैं तो दूसरी तरफ आर्थिक नीति और महंगाई ने मुसलमानों के हौसले को तोड़ कर रख दिया है. एक तरफ सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट है, जो मुसलमानों के लिए आशा की किरण बनकर सामने आती है तो दूसरी तरफ इन रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डालने वाली सरकार. मुसलमान हर तरफ से नुकसान ही झेल रहा है. यह नुकसान स़िर्फ मुसलमानों का नहीं है, यह देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था के आधार और विचार को चुनौती दे रहा है. यह चुनौती भारत में प्रजातंत्र की साख को खत्म करने की ताक़त रखती है. समझने वाली बात यह है कि जिस व्यवस्था में अल्पसंख्यकों के अधिकार, सत्ता में उनकी हिस्सेदारी और विकास सुनिश्चित नहीं हैं, वह प्रजातंत्र के नाम पर धोखा है. सत्य तो यह है कि आज स़िर्फ मुसलमान ही नहीं, हमारा प्रजातंत्र भी खतरे में है.