सीपीएम की आइडियोलॉजी है कि कैसे अपनी पार्टी, जो मल्टीनेशनल कंपनी है, को मज़बूत करें. अवाम को नुक़सान पहुंचा कर, जनता को नुक़सान पहुंचा कर. सीपीएम का यही हाल है. त्रिपुरा में, केरल में भी यही हाल है. लेकिन बंगाल के लोगों ने इसमें लीड किया है. आगे भी दूसरी जगहों पर यही हाल देखेंगे. इनकी आइडियोलॉजी जनता को दबा कर, आवाज़ ख़त्म करके वन पार्टी जैसा रूल करना है.
पश्चिम बंगाल के हालिया स्थानीय निकाय चुनावों के परिणामों से तृणमूल कांग्रेस ख़ासी गदगद है. अब उसकी नज़र राज्य विधानसभा पर है. नेता, कार्यकर्ता और समर्थक पूरे जोश के साथ अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए जुट गए हैं. पार्टी के कद्दावर नेता सुल्तान अहमद केंद्र में पर्यटन राज्यमंत्री हैं. वह एक बेबाक वक्ता भी हैं. पिछले दिनों हमारे समन्वय संपादक मनीष कुमार ने विभिन्न राजनीतिक मुद्दों पर उनसे एक लंबी बातचीत की. पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश:
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की शानदार जीत हुई. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि वहां मुसलमानों ने आपका समर्थन किया और साथ खड़े रहे. क्या कारण है कि उन्होंने वामपंथियों का साथ छोड़ दिया और आपके साथ आ गए?
देखिए, पश्चिम बंगाल के आज के हालात यही हैं. सीपीएम ने मुसलमानों को 34 साल तक वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया. मुसलमानों को यह मालूम हो चुका है कि सिवाय ज़ुबानी जमा ख़र्च के सीपीएम ने उनके लिए कुछ नहीं किया. उन्होंने फैसला कर लिया है कि अब सीपीएम को उसके आख़िरी अंजाम तक पहुंचा देना है. अल्पसंख्यकों और हिंदू भाइयों के मन में भी सीपीएम के ख़िला़फ ऩफरत की लहर चली है. यह जो कांबिनेशन बना है, वह आपको पूरे देश में कहीं नहीं मिलेगा. हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर यह निर्णय लिया है कि अब समय आ गया है कि सीपीएम को उखाड़ फेंकना है. दिस इज वेरी गुड साइन. बाक़ी जो ग़रीब तबका है, चाहे वह हिंदू है या मुसलमान अथवा निचली जाति का है, उसने तय कर लिया है कि अब सीपीएम के साथ तो एकदम जाना ही नहीं है. उसने यह मान लिया है कि सीपीएम ने उसके साथ धोखा किया है, नाइंसा़फी की है, बच्चों के साथ खिलवाड़ किया है, तालीम के साथ खिलवाड़ किया है, सामाजिक न्याय नहीं किया, आदि तमाम चीज़ें सामने आ गई हैं. हमारे जो किसान हैं, बंगाल में वे हिंदू हैं और मुसलमान भी. उन्होंने भी यह समझ लिया है कि सीपीएम ने जो किसानों की सियासत की है, वह बेकार पड़ गई है. यह संदेश स़िर्फ बंगाल के लिए नहीं है, पूरे देश के लिए है. जनता को यह संदेश जाना चाहिए कि ग़रीब तबका, वह चाहे हिंदुओं में हो, मुसलमानों में हो, अगर एक हो जाए तो किसी भी हुकूमत को उखाड़ फेंकने की ताक़त उसमें है. अब सीपीएम की हालत यह है कि उसने आरएसएस और बीजेपी से हाथ मिलाना शुरू कर दिया है.
दूसरे राज्यों के मुक़ाबले बंगाल के मुसलमान कुछ ज़्यादा ही पिछड़े हैं, ऐसा क्यों?
वे इसलिए पीछे नज़र आ रहे हैं, क्योंकि असम के बाद बंगाल में जनसंख्या के हिसाब से 36 फीसदी मुसलमान हैं. जबकि 33 प्रतिशत मतदाता हैं. बंगाल में यह जो 36 फीसदी आबादी अल्पसंख्यकों की है, वह महत्वपूर्ण है. मुसलमान नाराज़ हो गए तो समझिए कि आपकी एक चौथाई जनसंख्या नाराज़ हो गई.
जब इतनी जनसंख्या है और वह इतनी महत्वपूर्ण है, फिर भी मुसलमानों का विकास नहीं हो पा रहा है. क्या सीपीएम ने इनके लिए कभी कोई विशेष नीति या योजना बनाई?
देखिए, जस्टिस सच्चर की रिपोर्ट आई. बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है, हम लोगों ने बहुत कुछ किया मुसलमानों के लिए. लेकिन जब मुसलमान ख़ुद इस रिपोर्ट को पढ़ने लगे और चर्चा हुई, तब उनकी आंखें खुल गईं. उन्हें लगा कि जस्टिस सच्चर और रंगनाथ मिश्र जो कह रहे हैं, क्या वाकई उनकी हालत वैसी है. जस्टिस सच्चर ने कहा कि दलित से भी ज़्यादा मुसलमानों की हालत ख़राब है बंगाल में. फिर सीपीएम ने यह कहने के बजाय कि हमसे ग़लती हो गई है, यह कहना शुरू कर दिया कि जस्टिस सच्चर की रिपोर्ट ग़लत है. इस बात से भी लोग चौंके. उसके बाद सीपीएम ने यह कहना शुरू किया कि एक महीने के अंदर एक करोड़ मुसलमानों को नौकरी देंगे. यह सब बकबास है. आज जब उनके जाने का टाइम आ गया है, उनकी हुकूमत जाने वाली है, सीपीएम अब भी फुसलाने वाली सियासत कर रही है.
तृणमूल कांग्रेस यूपीए में साझीदार है, स्थानीय चुनाव में आप लोग कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़े और चुनाव परिणाम आने के बाद आप फिर एक साथ होंगे. जनता के बीच इस बात का क्या संकेत जाएगा?
ठीक है. हमने 2009 के चुनाव में समझौता किया था. हमने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. लेकिन कांग्रेस का जो बड़े भाई वाला रवैया है, वह बंगाल में लोग मानने के लिए तैयार नहीं हैं. इसलिए कि बंगाल की जनता ने ममता बनर्जी को अपना नेता मान लिया है. वह चाहती है कि कांग्रेस उनके साथ चले, लेकिन यहां अगर कांग्रेस डॉमिनेंट करना चाहे तो यह नहीं चलेगा. कांग्रेस है, रहे, हम साथ देने के लिए तैयार हैं. यूपीए में हैं, रहेंगे. अभी भी हम लोग डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी का साथ देने के लिए तैयार हैं. हमारी लीडर ममता बनर्जी ने बार-बार यह संकेत दिया है कि हम लोग यूपीए में थे, यूपीए में रहेंगे. लेकिन अगर कांग्रेस का रवैया बड़े भाई वाला है तो हम दिल्ली में साथ देंगे, पर बंगाल तृणमूल कांग्रेस का है, ममता बनर्जी का है, उन्हें साथ देना पड़ेगा. पर कांग्रेस की मंशा यही है कि सीपीएम को भी ख़ुश रखें और तृणमूल को भी ख़ुश रखें. यह सियासत न बंगाल की जनता मानेगी और न ही ममता बनर्जी.
आपने सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट की बात की, चौथी दुनिया ने सबसे पहले रंगनाथ रिपोर्ट को सार्वजनिक किया. नतीजतन, लोकसभा में इसे पेश किया गया. चुनाव में आप किस तरह इस मुद्दे को उठाने वाले हैं?
चुनाव तो अलग चीज़ है. हम लोगों ने यूपीए से कहा है कि जस्टिस सच्चर और रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट को संसद में लाकर उस पर बहस करके इसे इंप्लीमेंट भी करें. उस पर चर्चा करके उसमें जो चीज़ें लेने की हैं, जो रिज़र्वेशन और बाक़ी चीज़ें हैं, उन्हें इंप्लीमेंट करके रिपोर्ट को स्वीकार करें.
तृणमूल कांग्रेस कभी बीजेपी की भी दोस्त हुआ करती थी, क्यों दोस्ती टूट गई?
हमारी दोस्ती भी मजबूरी की दोस्ती थी. इसलिए कि बंगाल में कांग्रेस और सीपीएम साथ थे. सीपीएम को तीस साल शासन करने का जो मौक़ा मिला है, वह कांग्रेस की वजह से हुआ है. कांग्रेस ने वहां कभी भी एंटी सीपीएम को महत्व नहीं दिया. आज के माहौल में कांग्रेस को सीपीएम के ख़िला़फ एक स्टैंड लेना चाहिए था. ग़रीबों, किसानों और अल्पसंख्यकों के प्रति सीपीएम की जो नीति और विचार हैं, वे आरएसएस और बीजेपी से कम नहीं हैं. बीजेपी और आरएसएस का एक ही एजेंडा है कि देश के अंदर मुसलमानों को उंगलियां दिखाओ, उनको छोटा करो, उनके ख़िला़फ ज़हर उगलो और हमेशा उन मुद्दों को ज़िंदा रखो, जिससे मुल्क में फिरकापरस्ती की हवा गर्म रहे. सियासत की रोटियां सिंकती रहें. उस समय हम लोग बीजेपी में गए थे, ताकि सीपीएम की मुख़ाल़फत कर सकें. लेकिन फिर देखा गया कि बीजेपी भी सीपीएम के साथ मिली हुई है. 2009 में कांग्रेस के साथ आने का फैसला बहुत बड़ा था. 2008 में यूपीए सरकार को गिराने के लिए बीजेपी ने सीपीएम के साथ हाथ मिलाकर पार्लियामेंट में वोट दिया. उसके बाद ही हम लोगों ने निर्णय लिया कि कांग्रेस पार्टी सीपीएम को पछाड़ चुकी है.
बंगाल में जनता सीपीएम सरकार से परेशान है, लेकिन सीपीएम की जो छवि पूरे देश में है, वह यह है कि बंगाल की सीपीएम सरकार बाक़ी राज्य सरकारों से बेहतर काम कर रही है.
सीपीएम एक मल्टीनेशनल कंपनी जैसी चलती है. उसके पास मनी पावर, मसल पावर और मीडिया पावर है. उसके कई-कई चैनल काम कर रहे हैं. तो प्रोपेगेंडा में वह काफी मज़बूत है. इसके अलावा दिल्ली में जो भी सरकार बनती है, वह सीपीएम सरकार के साथ एक समझौते में आ जाती है. चाहे वह एनडीए की सरकार हो या यूपीए की. तो यह एडवांटेज सीपीएम ने 34 साल लिया है. पिछली लोकसभा में उनकी तादाद 50 से ऊपर रही, इस बार वाममोर्चा गिरकर 34 पर आ गया है. तो यह तो फर्क़ हुआ है. बंगाल में गिरावट के बाद पूरे मुल्क के लोग अब जानना चाहते हैं कि सीपीएम की गिरावट की क्या वजह है. जब वे इस पर ध्यान देंगे तो समझ में आएगा कि सेंट्रल गवर्नमेंट के करोड़ों-अरबों रुपये लेकर भी बंगाल के गांवों की कोई तऱक्क़ी नहीं हुई है. बंगाल में कोई नई इंडस्ट्री नहीं आई है. किसी जमाने में यह कहा जाता था कि एजुकेशन में बंगाल पहले नंबर पर है. आज ऑल इंडिया रेटिंग में बंगाल 17वें नंबर पर चला गया है. आज बिहार में नीतीश कुमार जो कर रहे हैं, उड़ीसा में नवीन पटनायक कर रहे हैं, उसके आसपास भी बंगाल नहीं है. अब पूरे देश के सामने यह बात आ जाएगी कि कितने दिनों तक इन लोगों ने प्रोपेगेंडा किया है, प्रोपेगेंडा मशीनरी को मज़बूत किया है, लेकिन वहां की जनता के हित में कुछ नहीं किया.
तृणमूल पर आरोप लगाया जा रहा है कि वह माओवादियों के साथ है. माओवादियों के प्रति आप लोगों की क्या विचारधारा है?
हम लोग तो यह समझते हैं कि माओवाद और मार्क्सवाद दोनों एक ही सिक्केके दो पहलू हैं. आज भी जो इलाक़ा माओवादियों का है, वहां न हमारी इलेक्टेड पंचायत है, न पंचायत समिति है, न म्युनिसपलिटी है, न एमएलए है, न कोई एमपी है. तो इसका मतलब है कि लगातार 34 साल तक माओवादी और मार्क्सवादी साथ मिलकर मार्क्सवादियों को वहां चुन रहे थे. हमारी कोई पॉलिटिकल आइडेंटिटी वहां नहीं है. तमाम पंचायतों पर अगर सीपीएम का क़ब्ज़ा रहा है तो इसका मतलब है कि वहां सीपीएम को माओवादियों का समर्थन मिलता रहा है. अगर ऐसे इलाक़े से टीएमसी या कांग्रेस के बजाय सीपीएम के एमएलए और एमपी जीतते हैं तो इसका मतलब है कि वहां दोनों ने मिलकर अपना प्रतिनिधि चुना है. यह तो खुली बात है कि माओवादियों को सीपीएम ने इस्तेमाल किया है. अब माओवादी चाहते हैं कि सीपीएम के हाथ से हुकूमत निकल जाए. अब हम वहां अपना राज क़ायम करेंगे. हम लोगों ने देखा है कि ग़रीबों के लिए केंद्र से जो फंड आता है उसे कैसे सीपीएम वाले ख़ुद गुल कर जाते हैं. आदिवासी क्षेत्रों में डेवलपमेंट अब तक नहीं हुआ है. ग़रीबी अब तक है. लोगों को दो व़क्त का खाना नहीं मिलता है. लोग पत्ते खाकर अपना दिन गुज़ारते हैं. जिस्म पर कपड़े नहीं हैं. अब लोगों की आंखें खुल गई हैं. माओवाद के बारे में हम लोगों ने कहा है कि इन लोगों ने ग़रीबों का शोषण किया है. फिर आज अगर हम यह कहें कि आप बमबारी करके इनको ख़त्म कर दीजिए तो ज़बरदस्त विरोध होगा. हम लोग बमबारी के ख़िला़फ हैं. हम लोग चाहते हैं कि इस समस्या का राजनीतिक समाधान निकाला जाए. हमारी हमदर्दी उन इलाक़ों की जनता के साथ है, माओवादियों के साथ नहीं. वहां के लोग पहले सीपीएम के बंधक थे और अब माओवादियों के बंधक बन चुके हैं. जनता को आज़ादी मिलनी चाहिए, विकास होना चाहिए. माओवाद और मॉर्क्सवाद पॉलिटिकली एक ही नाव में सवार हैं.
एक और बात मीडिया और देश में भी फैलाई जा रही है कि तृणमूल कांग्रेस एंटी इंडस्ट्री है, एंटी बिजनेस है. अगर सरकार बन गई तो बिजनेसमैन भाग जाएंगे.
यह एकदम ग़लत बात है. बंगाल में 34 साल में कोई इंडस्ट्री नहीं आई. आप यह बात नैनो फैक्ट्री को लेकर कह रहे हैं. उससे पहले बता दूं कि यहां बड़ी-बड़ी इंडस्ट्रीज बंद हो गईं. जूट इंडस्ट्री बंगाल की प्राइम इंडस्ट्री है. टी इंडस्ट्री बंगाल की प्राइम इंडस्ट्री थी. जिस तरह से उसका एक्सपेंशन होना था, वह नहीं हुआ. इंजीनियरिंग इंडस्ट्री बंगाल की नंबर वन इंडस्ट्री थी. हावड़ा को शेफिल्ड ऑफ इंडिया कहा जाता था. एक-एक करके वामपंथियों ने इसे बंद किया. ग़लत ट्रेडिंग करके बंद करवाया. वर्कर्स को ग़लत रास्ता दिखाकर, जनरल मैनेजर का ख़ून करके, डायरेक्टरों पर हमला कराकर बंद करा दिया. यह इतिहास है बंगाल से इंडस्ट्री हटने का. हम टाटा के ख़िला़फ थे. टाटा नौ सौ एकड़ में इंडस्ट्री खोलना चाहती थी, लेकिन उस इंडस्ट्री के लिए तीन सौ एकड़ की ही ज़रूरत थी. हमारा स्टैंड था कि तीन सौ एकड़ ले लो, पर ज़बरदस्ती किसानों से छह सौ एकड़ और न लो. हम टाटा या नैनो के ख़िला़फ नहीं थे. यह भी बुद्धदेव जी की सरकार के लिए नाक की लड़ाई थी. हमारी ईमेज इंडस्ट्री के ख़िला़फ बना दी गई.
आजकल कुछ और भी तस्वीरें उभर कर आ रही हैं. बंगाल के जो ग्रामीण इलाक़े हैं, वहां लोग खुलेआम गोलियां खा रहे हैं.
यह तो सीपीएम की वजह से है. लगातार 34 साल तक सीपीएम ने दबाव वाली राजनीति की है, जहां कोई जुबान नहीं खोल सकता है. सीपीएम की मनमानी इस कदर है कि लोगों को सीपीएम का अख़बार पढ़ना होगा, सीपीएम का चैनल सुनना होगा. अन्य चैनल ब्लैक आउट कर दिए गए. आप गांव में और चैनल नहीं देख सकते. तमाम केबल ऑपरेटर को बोला गया है कि सीपीएम का ही चैनल दिखाना है. तो यह हाल है. लेकिन अब सीपीएम के जाने का व़क्त हो गया है. 48 प्रतिशत वोट म्युनिसपलिटी में मिले हैं. अब सीपीएम इस ताक में है कि किस तरह कांग्रेस और तृणमूल के झंडे दबाए जाएं. तो खुलेआम लोगों पर गोलियां चलाई जा रही हैं. गांव के गांव आग के हवाले कर दिए जा रहे हैं. पठानों को लूटा जा रहा है, नौजवानों का ख़ून किया जा रहा है. इसमें भी टारगेट मुसलमान हैं, ताकि वे ख़ौ़फ में ज़िंदगी गुजारें. अस्सी प्रतिशत मुस्लिम इस टारगेट में आते हैं. हुबली और मंगलकोट के इलाक़े को ज़बर्दस्ती कंट्रोल में रखना चाह रही है सीपीएम.
सीपीएम या मार्क्सवादी आइडियोलॉजिकल प्लॉट पर राजनीति करते हैं.
मैं तो यह समझता हूं कि सीपीएम की कोई आइडियोलॉजी नहीं है. पार्टी आइडियोलॉजी बनाती है अवाम के हित को सामने रखकर. सीपीएम की आइडियोलॉजी है कि कैसे अपनी पार्टी, जो मल्टीनेशनल कंपनी है, को मज़बूत करें. अवाम को नुक़सान पहुंचा कर, जनता को नुक़सान पहुंचा कर. सीपीएम का यही हाल है. त्रिपुरा में, केरल में भी यही हाल है. लेकिन बंगाल के लोगों ने इसमें लीड किया है. आगे भी दूसरी जगहों पर यही हाल देखेंगे. इनकी आइडियोलॉजी जनता को दबा कर, आवाज़ ख़त्म करके वन पार्टी जैसा रूल करना है. इनके आसपास कोई और पार्टी न हो और सब जाकर इनके आगे झुकें. सीपीआई के एमएलए रोते रहते हैं. सीपीआई के लीडर भी रोते रहते हैं. उनके यहां किसी भी वर्कर से पूछ लीजिए तो कहेंगे कि जुर्म हो रहा है. इस चुनाव में सीपीएम की जो गिरावट हुई है, वह तो पहले ही हो जानी चाहिए थी. उन्हें सरकार में रहने का अब कोई मॉरल राइट नहीं है.
अभी तो बंगाल में हर तऱफ तृणमूल की लहर चल पड़ी है.
यह लहर नहीं है, यह हमारी रणनीति है. हमने अपने प्लेटफॉर्म को मज़बूत किया है. पार्टी का फाउंडेशन हमने बनाया है. हमने लड़ाई लड़ी है नंदीग्राम, सिंगुर में. जो नाइंसा़फी हुई है उसके ख़िला़फ आवाज़ उठाई है. रिज़वान मामले की लड़ाई किसकी है? तृणमूल की है. ऐसा नहीं है कि यह आंधी है. हमने जनता की मुसीबतों, जनता की तकलीफों और जनता के दु:ख-दर्द में साथ दिया है. इसलिए जनता ने यह स्वीकार किया है कि तृणमूल ही ऐसी पार्टी है, जिस पर भरोसा किया जा सकता है.
तो क्या आप लोग यह चाहते हैं कि कम्युनिस्टों को सरकार में रहने का कोई मॉरल राइट नहीं है, इसलिए चुनाव जल्दी हो जाएं?
नहीं, हम ऐसा नहीं चाह रहे हैं. दरअसल काम नहीं हो रहा है, सूबा पीछे जा रहा है, एडमिनिस्ट्रेशन ख़राब हो रहा है, तमाम सीपीएम के गुंडे गुंडागर्दी कर रहे हैं. आगे चुनाव आएगा तो फैसला हो ही जाएगा. लेकिन बेहया की तरह, बेशर्म की तरह ये लोग कहे जा रहे हैं कि अभी व़क्तहै, सब ठीक कर लेंगे. ठीक है, उनकी मर्जी है, लेकिन हम लोग जनता से कह रहे हैं कि भाई एलेक्शन हो जाए तो अच्छा है. लेकिन गवर्नमेंट को तोड़ने या 356 जैसा कोई प्लान नहीं हैं. हम लोग यह चाहते हैं कि जनता भी पीसफुली काम करें, क्योंकि जनता ने एक विजन बना लिया है कि तृणमूल इज कमिंग, ममता बनर्जी विल बी सीएम.
बंगाल के लोगों को एक डर और सता रहा है कि जो अगला चुनाव होने वाला है, उसमें बहुत ज़्यादा हिंसा होने वाली है.
देखिए, ऐसा तो सीपीएम नेता बिमान बोस भी कह रहे थे. म्युनिसपल चुनाव के पहले वायलेंस होगा, ख़ूनखराबा होगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 2009 के चुनाव में देश में क्या वायलेंस हुआ? उस व़क्त भी लोग कह रहे थे कि वायलेंस होगा. डेमोक्रेसी में जनता को अब पता चल चुका है कि उन्हें क्या करना है. बहुत होगा तो 2 या 3 फीसदी इलाक़े में होगा. 2009 के चुनाव में जितने बाहुबली थे, सब सोचते थे कि जीतेंगे. क्या हुआ? इसका मतलब है कि जनता की सोच और विचार में ज़बरदस्त तब्दीली आई है. लोगों ने धर्म और जाति के नाम पर वोटिंग कराने की कोशिशें की हैं, लेकिन देश की जनता को सलाम करना चाहिए. जनता ने अपनी समझ से काम लिया है. बंगाल में भी वही होगा. बंगाल देश से अलग नहीं है.