हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बलूचिस्तान

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हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बलूचिस्तान

1 पाकिस्तान की आंख में क्यों चुभता है बलूचिस्तान2 भारत- पाकिस्तान के  बीच में पिस रहा है बलूचिस्तान. 3 प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को फंसाया. 4 पाकिस्तान का अकेला धर्मनिरपेक्ष आंदोलन है बलूचिस्तान

baluchistan hidustan pakistanप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान पर ऐतिहासिक कूटनीतिक जीत हासिल की है. पाकिस्तान ने मुंबई हमले पर अपनी जांच की पूरी रिपोर्ट 11 जुलाई को भारत को सौंपी है. इस सरकारी दस्तावेज़ में पहली बार पाकिस्तान ने आधिकारिक तौर पर यह माना कि भारत में आतंकवादी हमलों के  लिए ज़िम्मेदार आतंकवादियों का सरोकार पाकिस्तान से है. पाकिस्तान ने मान लिया कि मुंबई धमाके  की साज़िश, हमले का संचालन, उसका मास्टर माइंड और हमले को अंजाम देने वाले आतंकवादी पाकिस्तानी हैं. सोचने वाली बात यह है जो पाकिस्तान अब तक इस बात से इंकार करता आया है कि वह आतंकवादियों का पनाहगार है, वह आधिकारिक तौर पर यह मानने को कैसे तैयार हो गया. एक महीने पहले रूस में मुलाक़ात के  दौरान पाकिस्तान के  प्रधानमंत्री गिलानी ने मनमोहन सिंह से साफ-साफ कहा था कि वह स़िर्फ इतना कह सकते हैं कि भारत पर होने वाले आतंकवादी हमले के लिए पाकिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल नहीं हो रहा है. सोचने वाली बात है कि एक महीने के  अंदर ऐसा क्या हो गया. क्या मिस्र में भारत-पाकिस्तान के  संयुक्त बयान में बलूचिस्तान का ज़िक्र होना इसकी क़ीमत है ?  अगर यह सही है तो प्रधानमंत्री बधाई के  पात्र हैं. प्रधानमंत्री का फैसला सराहनीय है. और ऐसा इसलिए है, क्योंकि बलूचिस्तान का इतिहास, उसकी समस्या और वहां के  लोग इस बात के  गवाह हैं कि बलूचिस्तान में अशांति का कारण इस इलाक़े की ग़रीबी और पाकिस्तान की नीति है.

मिस्र में भारत-पाकिस्तान के  प्रधानमंत्रियों का साझा बयान क्या आया, मानों तू़फान आ गया. भारत में विरोधी दलों और अंतरराष्ट्रीय मामले के विशेषज्ञों ने एक तऱफ से इसे एक भूल बताया. टेलीविजन मीडिया तो एक क़दम आगे निकल गया और प्रधानमंत्री को ही कठघरे में खड़ा कर दिया. इतना हंगामा हुआ कि कांग्रेस पार्टी भी बैकफुट पर चली गई. उधर पाकिस्तान पहुंचते ही प्रधानमंत्री गिलानी यह कहने में देर नहीं लगाई कि हमने भारत को इस बात को मानने के  लिए मजबूर कर दिया कि बलूचिस्तान में चल रही हिंसा के  पीछे भारत का हाथ है. पाकिस्तान सरकार ने इस बयान को एक जीत के तौर पर दिखाने के  लिए सारी शक्ति लगा दी है. हमारे देश के  लोग भी इस बात को लेकर भ्रमित हैं, लेकिन बलूची नेता कहते हैं कि भारत ने आज तक उनकी कोई मदद नहीं की है. अगर मदद की होती तो बलूचिस्तान का सूरतेहाल कुछ और होता. असलियत यह है कि भारत-पाकिस्तान के  साझा बयान आने के बाद बलूचिस्तान के  लोगों को राहत मिली है. पहली बार बलूचिस्तान की बात अतंरराष्ट्रीय मंच उठी है. बलूच नेता सुलेमान ख़ान भारत के  प्रति आभार प्रकट करते हुए कहा कि दुनिया के  सबसे बड़े प्रजातंत्र ने पहली बार यह माना कि उनके  पड़ोस में कुछ गड़बड़ है, अगर वह इस मसले में कोई भूमिका निभाए तो बेहतर होगा.

साझा बयान में ऐसा क्या था जिससे इतना बड़ा बवंडर आ गया? साझा बयान में लिखा था कि प्रधानमंत्री गिलानी ने बातचीत के  दौरान बताया कि पाकिस्तान के  पास बलूचिस्तान और अन्य इलाक़ों में ख़तरे को लेकर कुछ जानकारियां हैं. बस. ये जानकारियां कैसी हैं, कितनी सच और कितनी झूठ है, क्या ये जानकारियां ये बताती है कि बलूचिस्तान में आतंकवादी हमले के  पीछे भारत का हाथ है, ये सब बातें ़िफलहाल कहने-सुनने की है. असलियत यह है कि बलूचिस्तान में क्या हो रहा है, इसकी जानकारी पूरी दुनिया को है. वहां किस तरह से पाकिस्तान की सरकार आम जनता पर सैनिक हमले करती है, दुनिया भर के  मानवाधिकार और संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के  ज़रिए इसकी जानकारी मिलती रहती है. हमने स़िर्फ अपनी आंखें बंद कर ली है. असलियत यह है कि बलूच मानवाधिकार काउंसिल का आरोप यह है कि पाकिस्तान सरकार बलूचिस्तान के  असल मुद्दे को उलझाने के  लिए भारत का नाम लेती है. ग़ौर करने वाली बात यह है बलूचिस्तान का आंदोलन पाकिस्तान का अकेला धर्मनिरपेक्ष आंदोलन है. यह आंदोलन इस्लाम की बातें नहीं करता और न ही इसका संचालन मुस्लिम धर्मगुरु या मौलवी करते हैं. बलूचिस्तान का आंदोलन हक़ और प्रजातांत्रिक अधिकारों की लड़ाई है.
साझा बयान पर सवाल उठाने वाले मीडिया और राजनीति के  वे लोग हैं जिन्हें यह पता नहीं है कि आख़िर बलूचिस्तान क्या है? वहां के  लोगों की समस्या क्या है? वहां के  आंदोलन का आधार क्या है? मनमोहन सिंह ने बलूचिस्तान में चल रही घटनाओं पर चिंता ज़ाहिर कर उस कर्तव्य का पालन किया जिसे राजनीति की मजबूरी के  चलते इंदिरा गांधी नहीं कर पाईं. भारत-पाकिस्तान के  संयुक्त बयान में बलूचियों को लाकर मनमोहन सिंह ने हिम्मत का परिचय दिया है. भारत को अगर विश्व राजनीति में कोई अहम भूमिका निभानी है, तो पड़ोस में चल रहे नरसंहार पर चुप रहना उचित नहीं है. बलूचियों के  मुद्दे को उठाना भारत की ज़िम्मेदारी है. भारत सरकार को पाकिस्तान पर दबाव डालने की ज़रूरत है कि बलूचियों को भारतीय एजेंट बता कर उन पर ज़ुल्म करना बंद करे.

जो लोग मनमोहन सिंह का विरोध कर रहे हैं उनकी मानसिकता 20 साल पुरानी है. आज के  ज़माने में जब दुनिया में संचार का ऐसा नेटवर्क फैला है, बलूचिस्तान में कई आंतर्राष्ट्रीय संगठन काम कर रही है. इसलिये पाकिस्तान के  इस झूठ को कोई मानने वाला नहीं है. हक़ीक़त यह है पाकिस्तान की सेना आतंकवादियों को ख़त्म करने के लिए अमेरिका से मिले हेलीकॉप्टर और हथियार का इस्तेमाल बलूचियों पर कर रही है. इंटरनेट पर ऐसी कई रिपोर्ट मौज़ूद हैं, जो पाकिस्तान की सेना की करतूत का पर्दाफाश करती हैं. मनमोहन सिंह सरकार की चिंता बलूचिस्तान की बदहाली और वहां के  लोगों समस्या होनी चाहिए. साथ ही आतंकवाद के  नाम पर बलूचियों के  नरसंहार को रोकने में भारत की सरकार को अंतरराष्ट्रीय नियमों और क़ानून के  तहत जो भी क़दम उठाए जा सकते हैं, उठाने चाहिए.

बलूच आंतकवादी नहीं हैं

पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य है बलूचिस्तान. यह पाकिस्तान के  दक्षिण पश्चिम में स्थित है जो दक्षिण से अरब सागर, पश्चिम से ईरान और उत्तर में अ़फग़ानिस्तान की सीमा से सटा है. यह पाकिस्तान के क्षेत्रफल  का 43 प्रतिशत है, लेकिन जनसंख्या के  हिसाब से यहां पाकिस्तान की कुल जनसंख्या के स़िर्फ पांच प्रतिशत लोग ही रहते हैं. इसकी वजह यह है कि बलूचिस्तान का ज़्यादातर इलाक़ा पहाड़ और रेगिस्तान है. पानी की कमी है, इसलिए जनसंख्या कम है. बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा है. यहां के मुख्य निवासी बलूच और पठान हैं. बलूचिस्तान पाकिस्तान का सबसे ग़रीब और विकास की धारा से सबसे दूर है. इसी बदहाली का नतीजा है कि लोग पाकिस्तान की हुक़ूमत को अपना नहीं मानते. बलूचिस्तान खनिज पदार्थों का भंडार है, लेकिन यहां के  लोग ग़रीब हैं. इस राज्य की साक्षरता दर सबसे कम है. पाकिस्तान की सरकार बलूचिस्तान के  लोगों को शिक्षा, रोज़गार, पीने का साफ पानी, स्वास्थ्य सेवा आदि ज़रूरत की चीज़ें मुहैया कराने में असफल रही है. लोग अपनी परेशानियों को लेकर आंदोलित हैं, लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं है. इसलिए आए दिन बलूचिस्तान से हिंसा की ख़बरें आती रहती हैं. जब भी लोग अपनी समस्याओं को लेकर आंदोलन करते हैं, तो पाकिस्तान की सरकार और एजेंसी इन्हें कभी आतंकवादी तो कभी भारत का एजेंट बताकर उनके  ख़िला़फ सैनिक कार्रवाई करते हैं. बलूचिस्तान  में हिंसा का मुख्य कारण है अ़फग़ानिस्तान से पश्तून शरणार्थी, जो यहां की डेमोग्राफी को बदल रहे हैं. इनमें कुछ ऐसे भी हैं जिनमें से कुछ आतंकवादियों के  समर्थक हैं. बलूची एक सेकुलर समुदाय है. उनको लगता है कि धर्मनिरपेक्ष बलूच राष्ट्रवाद को ख़त्म करने के एजेंडे के  तहत इस्लामाबाद ने जानबूझ कर रिफ्यूजियों के  लिए सीमा को खोल दिया है. आज हालात ये हैं कि बलूचिस्तान सीधे तौर पर आईएसआई के अधीन है और वह यहां पर चल रहे आंदोलन को बाहरी ताक़तों की करतूत बता कर अपनी चाल चल रही है.

एक ही झूठ को अगर बार-बार बोला जाए, तो लोग इसे सच मानने लगते हैं. बलूच भारतीय एजेंट हैं, यह पाकिस्तान की सरकार का दुष्प्रचार है. इसका असर पाकिस्तान की जनता पर भी दिखता है. यह पाकिस्तान की सामूहिक चेतना का हिस्सा बन चुका है, लेकिन उसकी अलग कहानी है. बलूचिस्तान के  लोगों ने भारत के  विभाजन का समर्थन नहीं किया था. बलूचिस्तान के  लोग मानते हैं कि पाकिस्तान ने बंदूक की नोक पर बलूचिस्तान को छीन लिया और अपनी हुक़ूमत स्थापित कर दी. बलूचिस्तान के  लोगों ने आज़ादी से पहले जिन्ना से ज़्यादा गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू को अपना नेता माना. आज भी उनकी आज़ादी के  गीतों में भगत सिंह का नाम होता है.

विभाजन के  बाद जब 1947 में आज़ादी के  बाद भारत-पाकिस्तान  में दंगे हो रहे थे, तब पाकिस्तान से हिंदू, सिख और ग़ैर-मुस्लिमों को भगाया जा रहा था. उस व़क्त भी बलूचिस्तान अकेला ऐसा इलाक़ा था  जहां से किसी को भगाया नहीं गया, कोई क़त्लेआम नहीं हुआ. 1992 में जब हिंदू संगठनों ने भारत में बाबरी मस्जिद को गिरा कर देश को तोड़ने का काम किया तो पाकिस्तान में इसकी प्रतिक्रिया हुई. पाकिस्तान के  पंजाब में अधिकारियों की मदद से हिंदू मंदिरों को तोड़ा गया. इस दौरान भी बलूचिस्तान शांत रहा. बलूचिस्तान में एक भी मंदिर पर हमले नहीं हुआ और न ही किसी हिंदू को क्षति पहुंची. ख़ैरबख्श मारी, अताउल्लाह ख़ान मेंगल, अकबर ख़ान बुग्ती जैसे कई बलूच नेताओं ने इस दौरान हिंदुओं और मंदिरों को अपने संरक्षण में ले लिया. इन नेताओं ने हिंदुओं को न स़िर्फ बचाया, बल्कि अपनी निगरानी में पूजा-पाठ भी  कराया. बलूचियों और हिंदुओं की निकटता का गवाह है नवाब खान बुग्ती की हत्या. अगस्त 2006 में जब परवेज मुशर्रफ की सरकार ने एक सैनिक हमले में उनकी हत्या की, तो उनके  साथ मरने वालों ने कई हिंदू थे, जो उनके  समर्थक थे.

जवान या बूढ़े, शहरी या ग्रामीण, पढ़े-लिखे या अनपढ़-सेकुलरिज़्म बलूचियों के ख़ून में है. यह बात भी सोचने वाली है कि इतनी ग़रीबी और पिछड़ेपन के  बावजूद बलूच किसी जिहादी आतंकवादी संगठन के सदस्य नहीं बनते और न ही किसी बलूची का नाम भारत में आतंक फैलाने वालों की लिस्ट में है. बलूच न तो अल-क़ायदा के  समर्थक हैं और न ही तालिबान के. न ही आजतक कोई ऐसा उदाहरण है जिसमें यूरोप या अमेरिका में पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकवादियों में कोई बलूच हो और आज तक कोई बलूच आत्मघाती आतंकवादी नहीं बना. हां, कुछ ऐसे उदाहरण ज़रूर हैं, जैसे कि डेनियल पर्ल की किडनैपिंग और हत्या, जिसमें येमेनी बूलच भी शामिल थे. यह उदाहरण एक अपवाद की तरह है, लेकिन साधारण तौर पर कहा जा सकता है कि बलूच जिहादी आंतकवाद के  समर्थक नहीं हैं.

बलूच आतंकवादी नहीं हैं. वहां की समस्या आतंकवाद नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक है. पाकिस्तान अगर बलूचिस्तान को भारत-पाकिस्तान के  रिश्तों के बीच मोहरा बनाता है तो आगे आने वाले दिनों में इसके  भयानक परिणाम हो सकते हैं. यह बात भी तय है कि बलूचिस्तान में सेना और हथियारों के  इस्तेमाल से शांति नहीं आने वाली है. पाकिस्तान को बलूचिस्तान में शांति के  लिए सैनिकों को वापस बैरक में भेजना होगा. बलूचियों को राजनीतिक और प्रजातांत्रिक अधिकार देने होंगे और बलूचियों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी बलूच समूदाय के  हाथों में देने की ज़रूरत होगी. साथ ही बलूचिस्तान में पाकिस्तान और विदेशी मीडिया पर लगे प्रतिबंधों को ख़त्म करने की ज़रूरत है, ताकि यहां की हक़ीक़त पाकिस्तान सरकार और दुनिया के सामने आए. पाकिस्तान सरकार को बलूचिस्तान के  नेताओं के  साथ मिलकर हर समस्या का हल निकालना होगा और बलूचिस्तान में विकास की रोशनी पहुंचाने के  लिए मिलजुल कर काम करना होगा. अगर ऐसा नहीं होता है तो यह बलूचिस्तान के  साथ अन्याय होगा. पाकिस्तान की सरकार को यह समझना चाहिए कि बंदूक के  सहारे आतंकवादियों से तो लड़ा जा सकता है लेकिन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के  लिए लड़ने वाली जनता का सामना टैंक नहीं कर सकते. बलूचिस्तान की समस्या के  पीछे विदेशी ताक़तें नहीं हैं, पाकिस्तान की ख़ुद की नासमझी है.

[बलूचिस्तान आंदोलन का इतिहास]

लूचिस्तान के  निवासियों और पाकिस्तान की सरकार के  बीच की यह  तकरार नई नहीं है. पाकिस्तान की समस्या यह है कि 1947 से बलूचिस्तान में लोग आज़ादी की मांग कर रहे हैं. बलूच समुदाय शोषण के  ख़िला़फआवाज़ उठा रहे हैं. बलूचिस्तान की प्राकृतिक संपदाओं और औद्योगीकरण से उनका ़फायदा नहीं हुआ है. इसका फायदा बाहर के  लोग उठा रहे हैं. पंजाब और सिंध के  लोगों के  हितों को बचाने के लिए सरकार यहां सैनिकों का जमावड़ा करती है और व़क्त-बेव़क्तउनका इस्तेमाल बलूचिस्तान की असहाय जनता पर करती है. परवेज मुशर्रफ और वर्तमान सरकार के  दमन के  बावजूद बलूचियों की लड़ाई जारी है. कूटनीति, इतिहास में दर्ज़ घटनाओं को बदल नहीं सकती है. 1947 से बलूचिस्तान का इतिहास पाकिस्तानी सेना और सरकार के दमन की कहानी है. बलूचिस्तान और पाकिस्तान के  बीच चल रही लड़ाई के  मुख्य बिंदु इस तरह हैं-
पहली  लड़ाई 1948

1947 में भारत के  विभाजन के समय बलूचिस्तान पाकिस्तान में नहीं था. अप्रैल 1948 में पाकिस्तान सरकार ने सेना भेजी, जिसने मीर अहमद यार ख़ान को अपने राज्य को पाकिस्तान के  हवाले करने को मजबूर कर दिया. उनके  भाई, प्रिंस अब्दुल करीम ख़ान ने पाकिस्तान सरकार के साथ संघर्ष करने का ़फैसला किया. वह अ़फग़ानिस्तान में रहकर पाकिस्तान की सेना के  साथ गुरिल्ला युद्ध करते रहे. 16 मई 1948 को अब्दुल करीम ने एलान कर दिया कि वह बलूचिस्तान की आज़ादी के लिए आंदोलन करेंगे. उन्होंने बलूचिस्तान के  बड़े राजनीतिक दलों का एक गठजोड़ बनाया. प्रिंस अब्दुल करीम ख़ान का संबंध न स़िर्फ वहां के  शाही परिवार से था बल्कि वह मकरान राज्य के  पूर्व गवर्नर भी थे.

दूसरी लड़ाई  1958-59

जब प्रधानमंत्री चौधरी मोहम्मद अली ने पाकिस्तान में एक यूनिट की पॉलिसी का एलान किया तो बलूचिस्तान में हंगामा मच गया. इस पॉलिसी के  तहत पाकिस्तान का मक़सद संघीय ढांचे को ख़त्म करके चारों राज्यों को एक साथ मिलाना था. नवाब नवरोज ख़ान ने इस पॉलिसी के ख़िला़फ हथियार उठा लिए. उन्हें और उनके  समर्थकों को देशद्रोह का दोषी बता कर पाकिस्तान की सरकार ने गिरफ़्तार कर लिया. उन्हें हैदराबाद जेल में डाल दिया गय. जब वह जेल में थे तभी उनके परिवार के  पांच सदस्यों को फांसी दे दी गई. इसके  बाद जेल के अंदर ही नवाब नवरोज ़खान की मौत हो गई.

तीसरी लड़ाई 1963-69

नवाब नवरोज ख़ान की मौत के  बाद पाकिस्तान की सरकार ने बलूचिस्तान में सैनिकों को तैनात करना शुरू कर दिया. इसके  विरोध में शेर मोहम्मद बिजरानी मारी ने गुरिल्ला युद्ध शुरू किया. इन लोगों ने रेलवे लाइन पर बमबारी की और कई सैनिक ठिकानों को अपना निशाना बनाया. पाकिस्तानी सेना ने इसका भयानक जवाब दिया और मारी जनजाति के  कई इलाक़ों को तबाह कर दिया. इस युद्ध का नतीजा यह रहा कि याह्या ख़ान ने 1969 में एक यूनिट की पॉलिसी को ख़त्म कर दिया और बलूचियों के  साथ शांति स्थापित की. इस पॉलिसी के  ख़त्म होते ही बलूचिस्तान को नई पहचान मिली. आज यह पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य है.

चौथी  लड़ाई  1973-77

1972 में राजनीतिक दलों फिर से एकजुटता दिखाई और पाकिस्तान की ज़ुल़्िफकार अली भुट्टो की सरकार के  ख़िला़फ आंदोलन शुरू किया. उन्होंने सरकार में बलूच समुदाय की हिस्सेदारी का सवाल उठाया. इसके जवाब में पाकिस्तान सरकार ने वहां की सरकार गिरा दी, जिससे बलूचिस्तान में हिंसा भड़क उठी. उस लड़ाई में आठ हज़ार से ज़्यादा बलूचियों की मौत हुई.
पांचवीं लड़ाई  2004 से अब तक

2005 में बलूच लीडर नवाब अकबर ख़ान बुग्ती और मीर बचाच मारी ने पाकिस्तान सरकार के  सामने 15 प्वाइंट का एजेंडा रखा. इसमें बलूचिस्तान की प्राकृतिक संपदा, बलूचों की सुरक्षा और इलाक़े में सैनिक अड्डा बनाने पर रोक जैसे मुद्दे थे. सरकार ने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया. पाकिस्तान सरकार के  शोषण के  ख़िला़फ बलूचिस्तान में फिर से आंदोलन शुरू हो गया. पाकिस्तान सरकार ने राजनीतिक हल निकालने के  बजाय बलप्रयोग किया. सैकड़ों राजनीतिक कार्यकर्ता, छात्रों, डॉक्टरों और नेताओं की बिना किसी ज़ुर्म के  गिरफ़्तारी शुरू हो गई. इनमें से कई आज तक वापस लौट कर नहीं आए हैं. कई लोगों को जेल में यातना दी गई जिससे उनकी मौत हो गई. अगस्त 2006 को  पाकिस्तानी सेना से लड़ते हुए नवाब अकबर ख़ान बुग्ती की मौत हो गई. 3 अप्रैल 2009 में बलूच नेशनल मूवमेंट के  अध्यक्ष ग़ुलाम मोहम्मद बलूच और उनके  साथी लाला मुनीर और शेर मोहम्मद को सरेआम गिरफ़्तार किया गया और पांच दिन बाद एक सुनसान जगह में उनकी लाशें मिलीं. उनकी लाशें गोलियों से छलनी थीं. बलूचिस्तान के लोग मानते हैं कि यह काम आईएसआई का है.

हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बलूचिस्तान

आंदोलन हक़ और प्रजातांत्रिक अधिकारों की लड़ाई है.  साझा बयान पर सवाल उठाने वाले मीडिया और राजनीति के  वे लोग हैं जिन्हें यह पता नहीं है कि आख़िर बलूचिस्तान क्या है? वहां के  लोगों की समस्या क्या है? वहां के  आंदोलन का आधार क्या है? मनमोहन सिंह ने बलूचिस्तान में चल रही घटनाओं पर चिंता ज़ाहिर कर उस कर्तव्य का पालन किया जिसे राजनीति की मजबूरी के  चलते इंदिरा गांधी नहीं कर पाईं. भारत-पाकिस्तान के  संयुक्त बयान में बलूचियों को लाकर मनमोहन सिंह ने हिम्मत का परिचय दिया है. भारत को अगर विश्व राजनीति में कोई अहम भूमिका निभानी है, तो पड़ोस में चल रहे नरसंहार पर चुप रहना उचित नहीं है. बलूचियों के  मुद्दे को उठाना भारत की ज़िम्मेदारी है. भारत सरकार को पाकिस्तान पर दबाव डालने की ज़रूरत है कि बलूचियों को भारतीय एजेंट बता कर उन पर ज़ुल्म करना
बंद करे.

जो लोग मनमोहन सिंह का विरोध कर रहे हैं उनकी मानसिकता 20 साल पुरानी है. आज के  ज़माने में जब दुनिया में संचार का ऐसा नेटवर्क फैला है, बलूचिस्तान में कई आंतर्राष्ट्रीय संगठन काम कर रही है. इसलिये पाकिस्तान के  इस झूठ को कोई मानने वाला नहीं है. हक़ीक़त यह है पाकिस्तान की सेना आतंकवादियों को ख़त्म करने के लिए अमेरिका से मिले हेलीकॉप्टर और हथियार का इस्तेमाल बलूचियों पर कर रही है. इंटरनेट पर ऐसी कई रिपोर्ट मौज़ूद हैं, जो पाकिस्तान की सेना की करतूत का पर्दाफाश करती हैं. मनमोहन सिंह सरकार की चिंता बलूचिस्तान की बदहाली और वहां के  लोगों समस्या होनी चाहिए. साथ ही आतंकवाद के  नाम पर बलूचियों के  नरसंहार को रोकने में भारत की सरकार को अंतरराष्ट्रीय नियमों और क़ानून के  तहत जो भी क़दम उठाए जा सकते हैं, उठाने चाहिए.
बलूच आंतकवादी नहीं हैं

पाकिस्तान का सबसे बड़ा राज्य है बलूचिस्तान. यह पाकिस्तान के  दक्षिण पश्चिम में स्थित है जो दक्षिण से अरब सागर, पश्चिम से ईरान और उत्तर में अ़फग़ानिस्तान की सीमा से सटा है. यह पाकिस्तान के क्षेत्रफल  का 43 प्रतिशत है, लेकिन जनसंख्या के  हिसाब से यहां पाकिस्तान की कुल जनसंख्या के स़िर्फ पांच प्रतिशत लोग ही रहते हैं. इसकी वजह यह है कि बलूचिस्तान का ज़्यादातर इलाक़ा पहाड़ और रेगिस्तान है. पानी की कमी है, इसलिए जनसंख्या कम है. बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा है. यहां के मुख्य निवासी बलूच और पठान हैं. बलूचिस्तान पाकिस्तान का सबसे ग़रीब और विकास की धारा से सबसे दूर है. इसी बदहाली का नतीजा है कि लोग पाकिस्तान की हुक़ूमत को अपना नहीं मानते. बलूचिस्तान खनिज पदार्थों का भंडार है, लेकिन यहां के  लोग ग़रीब हैं. इस राज्य की साक्षरता दर सबसे कम है. पाकिस्तान की सरकार बलूचिस्तान के  लोगों को शिक्षा,

रोज़गार, पीने का साफ पानी, स्वास्थ्य सेवा आदि ज़रूरत की चीज़ें मुहैया कराने में असफल रही है. लोग अपनी परेशानियों को लेकर आंदोलित हैं, लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं है. इसलिए आए दिन बलूचिस्तान से हिंसा की ख़बरें आती रहती हैं. जब भी लोग अपनी समस्याओं को लेकर आंदोलन करते हैं, तो पाकिस्तान की सरकार और एजेंसी इन्हें कभी आतंकवादी तो कभी भारत का एजेंट बताकर उनके  ख़िला़फ सैनिक कार्रवाई करते हैं. बलूचिस्तान  में हिंसा का मुख्य कारण है अ़फग़ानिस्तान से पश्तून शरणार्थी, जो यहां की डेमोग्राफी को बदल रहे हैं. इनमें कुछ ऐसे भी हैं जिनमें से कुछ आतंकवादियों के  समर्थक हैं. बलूची एक सेकुलर समुदाय है. उनको लगता है कि धर्मनिरपेक्ष बलूच राष्ट्रवाद को ख़त्म करने के एजेंडे के  तहत इस्लामाबाद ने जानबूझ कर रिफ्यूजियों के  लिए सीमा को खोल दिया है. आज हालात ये हैं कि बलूचिस्तान सीधे तौर पर आईएसआई के अधीन है और वह यहां पर चल रहे आंदोलन को बाहरी ताक़तों की करतूत बता कर अपनी चाल चल रही है.

एक ही झूठ को अगर बार-बार बोला जाए, तो लोग इसे सच मानने लगते हैं. बलूच भारतीय एजेंट हैं, यह पाकिस्तान की सरकार का दुष्प्रचार है. इसका असर पाकिस्तान की जनता पर भी दिखता है. यह पाकिस्तान की सामूहिक चेतना का हिस्सा बन चुका है, लेकिन उसकी अलग कहानी है. बलूचिस्तान के  लोगों ने भारत के  विभाजन का समर्थन नहीं किया था. बलूचिस्तान के  लोग मानते हैं कि पाकिस्तान ने बंदूक की नोक पर बलूचिस्तान को छीन लिया और अपनी हुक़ूमत स्थापित कर दी. बलूचिस्तान के  लोगों ने आज़ादी से पहले जिन्ना से ज़्यादा गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू को अपना नेता माना. आज भी उनकी आज़ादी के  गीतों में भगत सिंह का नाम होता है.

विभाजन के  बाद जब 1947 में आज़ादी के  बाद भारत-पाकिस्तान  में दंगे हो रहे थे, तब पाकिस्तान से हिंदू, सिख और ग़ैर-मुस्लिमों को भगाया जा रहा था. उस व़क्त भी बलूचिस्तान अकेला ऐसा इलाक़ा था  जहां से किसी को भगाया नहीं गया, कोई क़त्लेआम नहीं हुआ. 1992 में जब हिंदू संगठनों ने भारत में बाबरी मस्जिद को गिरा कर देश को तोड़ने का काम किया तो पाकिस्तान में इसकी प्रतिक्रिया हुई. पाकिस्तान के  पंजाब में अधिकारियों की मदद से हिंदू मंदिरों को तोड़ा गया. इस दौरान भी बलूचिस्तान शांत रहा. बलूचिस्तान में एक भी मंदिर पर हमले नहीं हुआ और न ही किसी हिंदू को क्षति पहुंची. ख़ैरबख्श मारी, अताउल्लाह ख़ान मेंगल, अकबर ख़ान बुग्ती जैसे कई बलूच

नेताओं ने इस दौरान हिंदुओं और मंदिरों को अपने संरक्षण में ले लिया. इन नेताओं ने हिंदुओं को न स़िर्फ बचाया, बल्कि अपनी निगरानी में पूजा-पाठ भी  कराया. बलूचियों और हिंदुओं की निकटता का गवाह है नवाब खान बुग्ती की हत्या. अगस्त 2006 में जब परवेज मुशर्रफ की सरकार ने एक सैनिक हमले में उनकी हत्या की, तो उनके  साथ मरने वालों ने कई हिंदू थे, जो उनके  समर्थक थे.

जवान या बूढ़े, शहरी या ग्रामीण, पढ़े-लिखे या अनपढ़-सेकुलरिज़्म बलूचियों के ख़ून में है. यह बात भी सोचने वाली है कि इतनी ग़रीबी और पिछड़ेपन के  बावजूद बलूच किसी जिहादी आतंकवादी संगठन के सदस्य नहीं बनते और न ही किसी बलूची का नाम भारत में आतंक फैलाने वालों की लिस्ट में है. बलूच न तो अल-क़ायदा के  समर्थक हैं और न ही तालिबान के. न ही आजतक कोई ऐसा उदाहरण है जिसमें यूरोप या अमेरिका में पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकवादियों में कोई बलूच हो और आज तक कोई बलूच आत्मघाती आतंकवादी नहीं बना. हां, कुछ ऐसे उदाहरण ज़रूर हैं, जैसे कि डेनियल पर्ल की किडनैपिंग और हत्या, जिसमें येमेनी बूलच भी शामिल थे. यह उदाहरण एक अपवाद की तरह है, लेकिन साधारण तौर पर कहा जा सकता है कि बलूच जिहादी आंतकवाद के  समर्थक नहीं हैं.

बलूच आतंकवादी नहीं हैं.

वहां की समस्या आतंकवाद नहीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक है. पाकिस्तान अगर बलूचिस्तान को भारत-पाकिस्तान के  रिश्तों के बीच मोहरा बनाता है तो आगे आने वाले दिनों में इसके  भयानक परिणाम हो सकते हैं. यह बात भी तय है कि बलूचिस्तान में सेना और हथियारों के  इस्तेमाल से शांति नहीं आने वाली है. पाकिस्तान को बलूचिस्तान में शांति के  लिए सैनिकों को वापस बैरक में भेजना होगा. बलूचियों को राजनीतिक और प्रजातांत्रिक अधिकार देने होंगे और बलूचियों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी बलूच समूदाय के  हाथों में देने की ज़रूरत होगी. साथ ही बलूचिस्तान में पाकिस्तान और विदेशी मीडिया पर लगे प्रतिबंधों को ख़त्म करने की ज़रूरत है, ताकि यहां की हक़ीक़त पाकिस्तान सरकार और दुनिया के सामने आए. पाकिस्तान सरकार को बलूचिस्तान के  नेताओं के  साथ मिलकर हर समस्या का हल निकालना होगा और बलूचिस्तान में विकास की रोशनी पहुंचाने के  लिए मिलजुल कर काम करना होगा. अगर ऐसा नहीं होता है तो यह बलूचिस्तान के  साथ अन्याय होगा. पाकिस्तान की सरकार को यह समझना चाहिए कि बंदूक के  सहारे आतंकवादियों से तो लड़ा जा सकता है लेकिन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के  लिए लड़ने वाली जनता का सामना टैंक नहीं कर सकते. बलूचिस्तान की समस्या के  पीछे विदेशी ताक़तें नहीं हैं, पाकिस्तान की ख़ुद की नासमझी है.

आतंक की कहानी पाक की ज़ुबानी
इस कार की दो नंबर प्लेटें लश्कर कैंप से बरामद हुई थीं.

  • पारिवारिक रिकाड्‌र्स, स्कूल, वोटर लिस्ट और लोगों के बयानों के आधार पर अजमल कसाब (ओकारा) और इमरान बब्बर (मुल्तान) की पहचान की गई.

 

  • भारत द्वारा जुटाए गए जीपीएस डाटा और कॉर्डीनेट्‌स की जांच एसआईजी कराची के विश्लेषक ने की. उसने निष्कर्ष निकाला कि आरोपी अमीन सादिक़ द्वारा पहचाने गए अज़ीज़ाबाद के कैंप और गुलशन-ए-ग़ज़ाली, बाग़-ए-ऱफी, शाह ़फैसल टाउन, कराची में स्थित चार आरोपियों के घरों में गए थे.
  • ओकारा और मुल्तान में अजमल कसाब और अमजद ख़ान के बारे में जांच के दौरान नई बातें सामने आईं. कहा गया था कि मारे जाने वालों में एक इमरान बब्बर वल्द शहाबुद्दीन (मुल्तान) भी था. राष्ट्रीय फॉरेंसिक साइंस एजेंसी के एनडीए मिलाने से यह साबित हो गया कि शहाबुद्दीन मुंबई में मारे गए आतंकवादी इमरान बब्बर का पिता था.
  • भारत ने सात फिंगरप्रिंट्‌स भी भेजे. उनमें से एक का निशान मोहम्मद अल्ता़फ वल्द नाज़िर अहमद से मिलता हुआ था. डीएनए जांच में यह साफ हो गया कि नाज़िर अहमद मुंबई में मारे गए आतंकी अब्दुर रहमान छोटा(असल नाम मोहम्मद अल्ताफ) के पिता हैं.
  • भारतीय सरकार से मिले जीपीएस डाटा को इंस्पेक्टर एसआईजी कराची भेजा गया. उन्होंने गूगल अर्थ की जांच की और दिए गए ठिकानों को ए) कराची बंदरगाह पर खड़ी अल-फौज बोट, बी) नाव पर काम करने वाले आरोपित के घर, सी) अमीन सादिक़ का घर, डी) कराची का लश्कर ट्रेनिंग कैंप, ई) लश्कर का थाथा स्थित कैंप, और एफ) नावों के रूप में उनकी पहचान की है.
  • कराची में हुई जब्ती के बाद – जिसमें यामाहा मोटर इंजन(नं. 1020015)-जिसे मुंबई में पकड़ा गया था और अमजद और शाहिद जमील रिआज़ ने ख़रीदा था-लश्कर के छुपने के ठिकानों और प्रशिक्षण केंद्रोें के पते से मिली चीज़ें- लश्कर के आतंकियों से बरामद छोटी नावें इंजन और क्रीक -ये सब कुछ थाथा कैंप के पास बरामद हुए थे -औैर आतंकियों की जीपीएस रिकार्डिंग, शाहिद रिआज़, अमीन सादिक़ के साथ लश्कर के वित्तीय प्रबंधकों के रिकार्ड और आरोपियों के सेलफोन रिकार्ड बताते हैं कि उन्हें भारत के आतंकियों ने भी फोन किए. जांच से यह बात भी पता चलती है कि लश्कर के छुपे हुए आतंकी जिनका नाम चार्जशीट में आया है-जैसे अमजद ख़ान, शाहिग घटूर, मोहम्मद उस्मान, अतीक-उर-रहमान, अब्दुल रहमान, मोहम्मह सफीर सल्फी, मोहम्मद नईम, अब्दुल शकूर, मोहम्मद मुश्ताक़, शकील अहमद और उनके सहयोगियों ने-मिलकर इस पूरी कार्रवाई के हर पहलू को अंजाम दिया. इसके साथ मिले सबूत ज़ाकिर- उर-रहमान लखवी, मज़हर इक़बाल और अब्दुल वाज़िद को भी इस षड्‌यंत्र से जोड़ते हैं.

 

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