भाजपा में नेताओं की लड़ाई और गुटबाजी सचमुच गहरा गई है. यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और अरुण शौरी ने ऐसा राग छेड़ दिया है कि आडवाणी गुट की हवा ही निकल गई है. विरोध करने वाले नेताओं की बातों में तर्क है, जिसका जवाब आडवाणी और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पास नहीं है. चुनाव के दौरान हुई ग़लतियों पर सवाल खड़े करने वाले नेता उन बातों को सामने लाए हैं जिससे आज भाजपा का हर कार्यकर्ता बावस्ता है. यही वजह है कि यशवंत सिन्हा के इस्तीफे का जवाब अरुण जेटली ने अपने इस्तीफे से दिया है. शह और मात के खेल में अरुण जेटली ने राजनीति की एक शानदार चाल चली है. इस खेल में नुकसान स़िर्फ भाजपा का होने वाला है. भाजपा के कई नेता मानते हैं कि अंदरूनी कलह के केंद्र में आडवाणी हैं. उनको आगे रख कर भाजपा के कुछ नेता अपना खेल कर रहे हैं. उनका मानना है अगर इस नाज़ुक व़क्त में आडवाणी जी संन्यास ले लें तो पार्टी इन झगड़ों को निपटा कर मज़बूत बन सकेगी.
टूट भी सकती है पार्टी!
कभी सबसे अनुशासित और सबसे अलग पार्टी होने का दंभ भरने वाली भारतीय जनता पार्टी की परेशानी भी अलग है. पार्टी का अनुशासन हार की आंधी में ग़ायब हो गया है. विचारधारा को लेकर असमंजस की स्थिति है. संगठन गर्त में जाता दिख रहा है. नेताओं की आपसी फूट के उजागर होने से कार्यकर्ताओं में घोर निराशा है. कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच का संपर्क ख़त्म हो गया है. भारतीय जनता पार्टी फिलहाल युवा नेताओं के लिए रेगिस्तान साबित हो रही है. भविष्य की भाजपा का चेहरा धूमिल हो रहा है. पार्टी आज ऐसे भंवर में इसलिए फंसी है, क्योंकि वह हार को पचाने में सक्षम नहीं है. जो लोग हार की वजहों पर बहस करना चाहते हैं उन्हें पार्टी में अनुशासन का डंडा दिखाया जा रहा है. संकेत तो यह भी मिल रहा है कि अगर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कुछ कठोर ़फैसले नहीं लिए गए तो पार्टी उपाध्यक्ष यशवंत सिन्हा की तरह कई और नेताओं के इस्तीफों की झड़ी लग सकती है. अरुण जेटली का इस्तीफा इसी श्रृंखला की एक कड़ी लग रहा हैै. मज़े की बात तो यह कि इस्तीफा भी उन्होंने भारत की ज़मीन से नहीं दिया. फिलहाल वह विदेश यात्रा पर हैं. पार्टी की अंदरूनी बैठकों से भी वह ख़ुद को बचा रहे हैं. अब भाजपा के मीडिया प्रचारक यह राग अलाप रहे हैं कि जेटली का इस्तीफा तो चार दिन पहले आ गया था, पर मीडिया के सामने तो वह अभी ही आया. हैरानी की बात तो यह भी है कि चुनावी हार की वजहों पर विचार करने से पार्टी कतरा क्यों रही है. ख़तरा तो इस बात का है कि भाजपा में अगर इस मामले का जल्द से जल्द निपटारा नहीं हुआ तो पार्टी टूट जाएगी. भाजपा को बचाने के लिए पार्टी को अपना चाल, चरित्र और चेहरा बदलना ही होगा.
भाजपा में आज हर नेता अपने प्रतिद्वंद्वियों पर निशाना साध रहा है. चुनाव में हार-जीत होती रहती है, यह कोई नई बात नहीं है. हार को पचाना एक बड़ी बात है. हालांकि भाजपा जिस तरह चुनाव लड़ी, जिस तरह बड़े-बड़े नेताओं को दरकिनार किया गया, जिस तरह बंद और एयरकंडीशंड कमरों में चुनाव से जुड़े फैसले लिए गए, जिस तरह ज़मीनी कार्यकर्ताओं का अपमान हुआ, जिस तरह पुराने नेताओं की अवमानना हुई, जिन नेताओं और सलाहकारों की वजह से भाजपा हारी और उनको पुरस्कृत किया गया, तो विरोध के स्वर तो उठने ही थे. भाजपा के साथ मुश्किल यह है कि पार्टी के पास ज़मीनी नेता ही नहीं बचा. आइए, अब पहले एक नज़र डालते हैं कि चुनाव के बाद ऐसा क्या हुआ जिससे भाजपा नेताओं को सार्वजनिक तौर पर पार्टी के ख़िलाफ़ बोलना पड़ा. चुनाव परिणाम आने के अगले ही दिन से आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया. सबसे पहले, पार्टी के रणनीतिकार और आडवाणी की सलाहकारों की टोली के प्रमुख अरुण जेटली और सुधींद्र कुलकर्णी सामने आए.
इन लोगों ने मीडिया का इस्तेमाल पार्टी की हार का विश्लेषण करने में किया. अपने बयानों और लेखों में ख़ुद की ज़िम्मेदारी को दरकिनार कर वे हार का दोष दूसरों पर मढ़ने लगे. आडवाणी के प्रमुख सलाहकार और चुनाव रणनीतिकार कुलकर्णी ने एक अंग्रेजी अख़बार में लिख दिया कि इस चुनाव में आडवाणी एक विजेता का तेवर नहीं दिखा सके. अगर आडवाणी ने चुनाव से पहले कुछ कठोर फैसले ले लिए होते तो शायद भारतीय जनता पार्टी की स्थिति ऐसी नहीं होती. इसके बाद एक दूसरे अख़बार में सुधींद्र कुलकर्णी ने फिर एक लेख में भाजपा की विचारधारा और उसके आरएसएस के साथ रिश्ते पर सवाल खड़े कर दिए. तब पार्टी के प्रवक्ता का जवाब आया कि कुलकर्णी की राय उचित नहीं है, क्योंकि वह ख़ुद भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों में से एक थे. वाजिब है, इनकी बातें भाजपा के दूसरे गुट के नेताओं को बुरी लगीं. यह भी कितनी अजीब बात है कि जिन लोगों के नेतृत्व में चुनाव की योजना बनी, जिन लोगों ने चुनाव की रणनीति बनाई और जो लोग हार के लिए ज़िम्मेदार थे, वे ही मीडिया में अपने लेखों और वक्तव्यों के ज़रिए ख़ुद को साफ-सुथरा बता कर हार का ठीकरा दूसरे के माथे फोड़ रहे थे. मामला स़िर्फ हार की ज़िम्मेदारी का नहीं है. हार के बाद जब लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेताओं की बात उठी, तब आडवाणी एंड कंपनी के सौजन्य से उन लोगों को कुर्सी दी गई जो हार के लिए ज़िम्मेदार थे. भाजपा के नेता इस बात से नाराज़ हैं कि अरुण जेटली को राज्य सभा में नेता विपक्ष क्यों बनाया गया. सुषमा स्वराज को उपनेता क्यों बनाया गया.
यह तो स़िर्फ सेमीफाइनल है !
आजकल भाजपा में चल रही नेताओं की लड़ाई तो स़िर्फ सेमीफाइनल है. यह लड़ाई और भी गंदा रूप तब ले लेगी, जब आडवाणी के उत्तराधिकारी की घोषणा होगी, जब पार्टी के नए अध्यक्ष का नाम तय होगा. फिलहाल नरेंद्र मोदी, शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया और रमन सिंह जैसे कई खिलाड़ी परदे के पीछे हैं. यह तो उत्तराधिकार की लड़ाई है. इस लड़ाई से ही तय होगा कि अगले पांच-दस सालों में भारतीय जनता पार्टी की कमान किसके हाथों में होगी? कहीं यह बग़ावत लालकृष्ण आडवाणी के ख़िला़फ, उनकी नेतृत्व क्षमता और उनके उस फैसले के ख़िला़फ तो नहीं, जिसके तहत वह फिर से नेता प्रतिपक्ष बन बैठे? यह आत्म सम्मान की भी लड़ाई है. आज भाजपा कई धड़ों में बंटी नज़र आ रही है. एक तऱफ वे हैं जिनके नेतृत्व, नीति और नीयत की वजह से पार्टी चुनाव में हारी. इनमें आडवाणी और उनके सलाहकार-अरुण जेटली, वेंकैया नायडू, अनंत कुमार, सुषमा स्वराज आदि प्रमुख हैं. दूसरी तरफ वे हैं, जिनकी पिछले कुछ सालों से पार्टी के फैसले में हिस्सेदारी नहीं है. इनमें जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के साथ-साथ कई अन्य नेता हैं. कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन दोनों ही गुटों के बाहर हैं, लेकिन आडवाणी एंड कंपनी से नाराज़ हैं. ये उसी गुट के साथ जाएंगे जो गुट इस गृहयुद्ध को जीतेगा.
इसके बाद बहुत ही हास्यास्पद तरीक़े से भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह मैदान में कूदे. उन्होंने विरोध के स्वर को रोकने के लिए प्रेस कांफ्रेंस में फरमान जारी कर दिया कि कोई भी नेता पार्टी के मामले को लेकर मीडिया में बयानबाज़ी न करे. राजनाथ सिंह ने पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को हिदायत दी कि भविष्य में वह किसी भी प्रकार की अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करेंगे. उन्होंने पार्टी नेताओं से कहा कि पार्टी की अंदरूनी गतिविधियों के बारे में ऐसा कोई विचार प्रकट न करें, जिससे पार्टी की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़े. अजीब बात है. इससे पार्टी के अंदर की गंभीर स्थिति का पता चल गया कि पार्टी में अनुशासन लाने के लिए अध्यक्ष को भी मीडिया का सहारा लेना पड़ा. उनके प्रेस कांफ्रेंस से भाजपा का गृहयुद्ध जग ज़ाहिर हो गया. इस प्रेस कांफ्रेंस के दौरान राजनाथ सिंह ने ख़ुद को हंसी का पात्र बना लिया. जिस व़क्त वह भाजपा नेताओं के लिए मीडिया से बातचीत न करने फरमान का जारी कर रहे थे, उसी समय एक नेशनल चैनल यशवंत सिन्हा की चिट्ठी के बारे में बता रहा था. ख़बरिया चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रहा था-यशवंत सिन्हा का इस्तीफा. राजनाथ सिंह के बयान ख़त्म होते ही जब रिपोर्टरों ने उनसे यशवंत सिन्हा के इस्तीफे के बारे में पूछा तो वह झेंप गए और कह दिया कि उन्हें इसके बारे में जानकारी नहीं है. अब ऐसी पार्टी के बारे में क्या कहा जाए, जिसके एक वरिष्ठ पदाधिकारी के इस्तीफे के बारे में पूरा देश जान चुका हो, लेकिन उसके अध्यक्ष को उसकी भनक तक नहीं थी.
राजनाथ सिंह ने अगर चुनाव के दौरान अनुशासनहीनता पर उस व़क्त बयान दिया होता, जब अरुण जेटली ने सुधांशु मित्तल का मामला उठा कर राजनाथ के ही ख़िला़फ मीडिया में अनौपचारिक बयानबाज़ी की थी और जब जेटली चुनाव के बीच मीडिया को बता रहे थे कि उन्होंने केंद्रीय समित की बैठकों का बायकाट कर दिया है तो आज यह नौबत नहीं आती. एक के किए को दूसरे ने दोहरा दिया. जसवंत सिंह ने चुनाव में पार्टी की हार के बाद चिट्ठी लिखी, जिसकी ख़बर मीडिया को दी गई. अरुण शौरी की नाराज़गी भी मीडिया में चर्चा बनी. यशवंत सिन्हा की चिट्ठी ने तो अंदरूनी कलह को सबके सामने लाकर खड़ा कर दिया. वैसे भी पार्टी में अंदरूनी राजनीति में विरोधियों को सबक़ सिखाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल करने में भाजपा के ज़्यादातर नेता माहिर हैं.
उमा भारती भी इसी वजह से पार्टी छोड़कर अपनी अलग पार्टी बना चुकी हैं. उसकी वजह भी मीडिया में अनौपचारिक बयानबाज़ी ही थी. यह बात भी सही है कि चाहे पार्टी के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह हों या यशवंत सिन्हा, आत्ममंथन की दुहाई देकर उन्होंने कहीं न कहीं भारतीय जनता पार्टी में उत्तराधिकार की लड़ाई को बढ़ाया ही है. अरुण जेटली के इस्तीफे ने इस लड़ाई को और भी हवा दे दी है. अगर आत्ममंथन की चिंता इन लोगों को होती, तो भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से पहले ही पार्टी में आंधी नहीं उठती. लड़ाई इसलिए हो रही है कि लालकृष्ण आडवाणी के बाद कौन पार्टी का नेतृत्व करे, कौन आगे आए, किसका कितना महत्व हो, कौन संसद के अंदर विपक्ष का नेतृत्व करे और कौन संगठन के अंदर पार्टी का नेतृत्व करे. कुछ समय पहले तक कांग्रेस की हार की वजह उसका कमज़ोर संगठन हुआ करता था और भाजपा की जीत की वजह इसका मज़बूत संगठन और समर्पित कार्यकर्ता हुआ करते थे. आज मामला ठीक इसके उलट है. पार्टी को समझना पड़ेगा कि जब से एनडीए की सरकार बनी, तब से भाजपा में ऐसे लोगों का वर्चस्व बढ़ा जिन्हें संगठन से कुछ लेना-देना नहीं है. इन पत्रकारों, लेखकों और वकीलों की घुसपैठ पार्टी में विचारक के तौर पर हुई. भाजपा के शीर्ष नेताओं को लगा था कि पहली बार पढ़े-लिखे लोग पार्टी में शामिल हो रहे हैं. लेकिन यहां ग़लती यह हो गई कि विचारकों से सलाह लेकर ख़ुद फैसले लेने के बजाय उन्हें ही फैसले लेने की ज़िम्मेदारी दे दी. इन विचारकों ने भाजपा की कार्यप्रणाली को ही बदल कर रख दिया.
भाजपा फर्ज़ी कॉरपोरेट कल्चर के चक्कर में फंस गई है. जो लोग राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट की तरह चलाना चाहते हैं वह जनता के नेता नहीं हो सकते हैं. कार्यकर्ताओं को हल्के में लेने का ही नतीजा है कि पार्टी दोबारा चुनाव हार गई. आसमान से टपके विचारक अगर पार्टी के मुख्य रणनीतिकार बनेंगे और जनता के बीच काम करने वाले नेताओं को दरकिनार किया जाएगा तो इससे पार्टी का हमेशा नुकसान ही होगा. पार्टी संगठन मज़बूत नहीं होगी. भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं को राहुल गांधी से सबक़ लेना चाहिए कि संगठन को कैसे मज़बूत किया जाता है. कांग्रेस में भी विचारकों का हुजूम है, लेकिन उनका एक निश्चित स्थान है. वे फैसले नहीं लेते स़िर्फ सुझाव देते हैं. कांग्रेस में फैसला लेने का हक़ कुछ शीर्ष नेताओं तक ही सीमित है. लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने इन विचारकों को ही अपने सिर बिठा लिया. विचारकों की इस टोली ने एक ख़तरनाक खेल के तहत आडवाणी को मज़बूत नेता बता कर उन्हें झांसे में डाल दिया और उनके पीछे सारे फैसले लेते रहे. इन लोगों ने पहले जनता के बीच साख रखने वाले नेताओं को पार्टी के अंदर दरकिनार किया. आडवाणी ख़ामोश रहे. इसके बाद कार्यकर्ताओं से पार्टी की दूरी बढ़ा दी. आडवाणी जी कुछ नहीं बोले. शायद प्रधानमंत्री बनने के सपने ने उन्हें सच्चाई देखने से महरूम कर दिया. चुनाव के नतीजे से यह साफ हो गया है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए यही विचारक किस्म के नेता भस्मासुर साबित हुए हैं. चुनाव के नतीजे ने आडवाणी जी को कमज़ोर नेता तो साबित किया ही, अब पार्टी के नेता उन्हें कमज़ोर साबित कर रहे हैं. पार्टी में विरोध की आवाज़ बुलंद करने वाले नेताओं ने आडवाणी के नेतृत्व को ठुकरा दिया है. उन्हें अब आडवाणी पर भरोसा नहीं है कि वह पार्टी को मज़बूत कर सकेंगे. वे कह रहे हैं कि आडवाणी जी के कमज़ोर नेतृत्व की वजह से ही पार्टी कमज़ोर हुई है.
भारतीय राजनीति में आडवाणी जी का एक मुक़ाम है. आडवाणी बनना कोई आसान काम नहीं है. लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि जीवन के इस पड़ाव में उनकी चमक ख़त्म हो रही है. आडवाणी जी को सोचना पड़ेगा कि जिस तरह उनके सलाहकारों ने इस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के पोस्टर और फोटो नहीं लगने दिए, कहीं उसी तरह अगले चुनाव में आडवाणी जी का हाल न हो जाए. पार्टी में उन्हें याद करने वाला कोई बचे ही न. भाजपा में आज भी दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया जाता है. अगर आडवाणी जी चाहते हैं कि भविष्य में भाजपा उन्हें याद करे तो ज़रूरी है कि वह राजनीति से संन्यास ले लें. भारतीय जनता पार्टी का जो हाल है उसके बारे में तो यही कहा जा सकता है कि यहां नेताओं की बड़ी महत्वाकांक्षाएं, बढ़ती खेमेबाज़ी, पैसे का मोह और अंतहीन अनुशासनहीनता का बोलबाला हो चुका है. इस मुश्किल समय में आडवाणी जी को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए कि वह ख़ुद एक पक्ष बन जाएं. बल्कि उन्हें एक सर्वमान्य नेता के रूप में अपनी साख बनाने की कोशिश करनी चाहिए. भारतीय जनता पार्टी को अब उनके नेतृत्व की नहीं, मार्गदर्शन की ज़रूरत है. यह समय पार्टी की ग़लतियों को छुपाने का नहीं है, सच्चाई का सामना करने का है.
पार्टी ने पिछले दस सालों में कौन-कौन से ग़लत क़दम उठाए, उन पर विचार होना ही चाहिए. उन वजहों को समझने की ज़रूरत है कि भाजपा के कार्यकर्ता क्यों नाराज़ हैं? क्यों भाजपा के समर्थक मत देने अपने घरों से नहीं निकल रहे हैं? अब भाजपा में आमूलचूल बदलाव का समय आ गया है. ज़मीनी नेताओं और ख़ासकर युवाओं को- जिनकी छवि अच्छी हो और जो निजी महत्वाकांक्षाओं से ऊपर उठकर पार्टी के प्रति ईमानदार हों-आगे लाने की ज़रूरत है. ऐसा तभी हो पाएगा जब भाजपा के वरिष्ठतम नेता राजनीति से संन्यास लेकर मार्गदर्शक की भूमिका में आ जाएं. भारतीय जनता पार्टी को अगर बचाना है तो आडवाणी जी को चाहिए कि पार्टी को नए, ऊर्जावान और ईमानदार लोगों के हाथों में सौंप कर संन्यास ले लें.