दो दशकों की दुश्मनी ने भाजपा को एक होने न दिया
लोकसभा चुनाव की तैयारी के बीच भारतीय जनता पार्टी के दो नेताओं के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही है. एक प्रधानमंत्री बनना चाहता है, तो दूसरा उन्हें उसे कुर्सी से दूर रखने के लिए चक्रव्यूह रच रहा है. वर्चस्व की यह लड़ाई उतनी ही पुरानी है, जितनी भारतीय जनता पार्टी की उम्र है. यानी जब से पार्टी बनी, तब से मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच शीत युद्ध चल रहा है. दोनों पार्टी के क़द्दावर नेता हैं. दोनों के अपने-अपने समर्थक हैं. दोनों को लगता है कि उन्होंने भाजपा को दो सांसदों की पार्टी से राष्ट्रीय पार्टी बनाने में अहम भूमिका निभाई है. दोनों को लगता है उनके बिना पार्टी अब तक ख़त्म हो चुकी होती. पार्टी में जितनी भी खामियां हैं, वे दूसरे की वजह से हैं. यही दोनों एक-दूसरे के बारे में सोचते हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी – ये तीन नाम हैं, जिनकी मेहनत और राजनीतिक समझ की वजह से बीजेपी दो सांसदों की पार्टी से आज राष्ट्रीय पार्टी बनी है. अटल हमेशा से इस पार्टी के सर्वोच्च नेता रहे. और आडवाणी ने मुरली मनोहर जोशी को कभी भी दूसरे नंबर का नेता नहीं माना. वह हमेशा से ही अटल बिहारी वाजपेयी के बाद खुद को गिनते थे. कई बार ऐसा भी हुआ कि जोशी ने अपने प्रतियोगी या यूं कहें कि आडवाणी को आड़े हाथ लेने की कोशिश की, लेकिन वाजपेयी और आडवाणी की दोस्ती के सामने हमेशा परास्त हुए. भारतीय जनता पार्टी को अटल-आडवाणी की जोड़ी ने अपने हिसाब से चलाया. अटल बिहारी वाजपेयी के बाद आडवाणी पार्टी के अध्यक्ष बने.
मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच वर्चस्व की लड़ाई तब सामने आई, जब जोशी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष थे. जून 1993 में दूसरे अध्यक्ष का चुनाव होना था. जोशी चाह रहे थे कि उन्हें दोबारा अध्यक्ष बना दिया जाए लेकिन आने वाले चुनाव को देखते हुए अटल और आडवाणी पार्टी की कमान अपने हाथ में रखना चाहते थे. मुरली मनोहर जोशी हमेशा से ही संघ के नज़दीक रहे. आरएसएस के अन्य संगठनों जैसे भारतीय मजदूर संघ के नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी, विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल, विनय कटियार और बी एल प्रेम जैसे नेता जोशी को फिर से अध्यक्ष बना देखना चाहते थे. ये लोग हमेशा से अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी के ख़िला़फ रहे. दोनों नेता आपस में अध्यक्ष पद के लिए लड़ रहे थे. भाजपा के भीतर उठे हर विवाद की आख़िरी सुनवाई आरएसएस में होती है, संघ का फैसला अंतिम होता है. मुरली मनोहर जोशी के संघ के साथ अच्छे रिश्ते होने के बावजूद फैसला आडवाणी के पक्ष में हुआ. जोशी को अध्यक्ष पद से हटना पड़ा. इस हार के बाद वह सिर्फ इतना ही कह पाए कि भारतीय जनता पार्टी में सामूहिक नेतृत्व की प्रथा है, इसलिए अध्यक्ष पद को लेकर कोई लड़ाई नहीं है. लेकिन दोनों तरफ से तलवारें निकल गईं. जोशी को ठंडा करने के लिए स्वर्गीय रज्जू भैया ने पॉलिसी-मेकर नाम का एक नया पद बनाया लेकिन उन्होंने इस पद को लेने से इंकार कर दिया. आडवाणी को फिर से अध्यक्ष बनाने में रज्जू भैया ने अहम भूमिका निभाई थी इसलिए वह जोशी के समर्थक अशोक सिंघल के निशाने पर आ गए. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर बयान दिया कि रज्जू भैया ने आडवाणी को अध्यक्ष बनाने से पहले किसी से बातचीत नहीं की. वह सोचते हैं कि संघ से जुड़े सारे लोग उनके ग़ुलाम हैं. दोनों गुटों के बीच बिगुल बज गया. इसका असर पार्टी की केंद्रीय और राज्य इकाई पर साफ दिखा. पार्टी में सत्ता समीकरण बदलते ही छोटे और बड़े नेताओं ने अपनी निष्ठा का केंद्र बदलना शुरू कर दिया.
देश की जनता को शायद पता नहीं हो, लेकिन सियासी गलियारों में यह बात सब जानते हैं कि एनडीए सरकार के दौरान देश के उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी की आपस में बातचीत नहीं थी. वे एक दूसरे से बात तक नहीं करते थे. जब भी उन्हें बात करनी होती थी, तो इन दोनों के माध्यम बनते थे देश के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी. जो लोग मुरली मनोहर जोशी को नज़दीक से जानते हैं, वे बताते हैं कि एनडीए की सरकार बनने के समय वह गृहमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी बन गए. आडवाणी को हमेशा यह लगता था कि जोशी हर जगह उनसे मुक़ाबला करते हैं, इसलिए दोनों ने एक दूसरे से बातचीत भी बंद कर दी. भारतीय जनता पार्टी के दो दिग्गज नेता दो दशक से एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी बने रहे. इन दोनों की वजह से पार्टी में हमेशा गुटबंदी का बोलबाला रहा. इतिहास का वही पन्ना आज भी बीजेपी को बांट रहा है.
[भाजपा मे दूसरे स्थान पर कौन है, इसको लेकर शुरुआत से ही खींचतान होती रही. लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के बीच दूसरे नंबर के लिए शीत युद्ध का सिलसिला आज भी जारी है. भाजपा के अंदर नेताओं की इस लड़ाई में फिलहाल आडवाणी का पलड़ा भारी दिख रहा है और मुरली मनोहर जोशी हाशिए पर धकेल दिए गए हैं.]
आंडवाणी और मुरली मनोहर जोशी का शीत युद्ध फिर से भाजपा की चुनावी तैयारियों पर असर दिखा रहा है. भारतीय जनता पार्टी के अंदर एक तूफान उफन रहा है. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के सामने यह चुनौती है कि वे पार्टी के किस गुट के साथ जाएं. पार्टी फिर से दो गुटों में बंटी नज़र आ रही है. एक पार्टी को चुनाव जिताना चाहता है, आडवाणी को प्रधानमंत्री बनना चाहता है. दूसरा गुट वह है, जो चुपचाप आडवाणी एंड कंपनी की हर चाल, हर रणनीति को देख रहा है. उनकी ग़लतियों को पकड़ने की कोशिश कर रहा है. दूसरा गुट यह चाहता है कि भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में हार जाए और आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का सपना अधूरा ही रह जाए. चुनाव के बाद नेतृत्व के सवाल पर भारतीय जनता पार्टी के अंदर घमासान शुरू हो चुका है. भाजपा में शीर्ष नेतृत्व को लेकर एक बात शुरू से तय रही. पार्टी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी के ऊपर कभी कोई सवाल नहीं खड़ा हुआ. लेकिन दूसरे स्थान पर कौन है, इसको लेकर शुरुआत से ही खींचतान होती रही. लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के बीच दूसरे नंबर के लिए शीत युद्ध का सिलसिला आज भी जारी है. भाजपा के अंदर नेताओं की इस लड़ाई में फिलहाल आडवाणी का पलड़ा भारी दिख रहा है और मुरली मनोहर जोशी हाशिए पर धकेल दिए गए हैं. पार्टी के लोग बताते हैं कि चुनाव के बाद की स्थिति बदल जाएगी. बीजेपी में मुरली मनोहर जोशी एक बार फिर से मुख्य भूमिका में नजर आएंगे.
अब सवाल यह है कि चुनाव के बाद स्थिति कैसे बदलेगी…
भाजपा में अब कई लोग यह मानने लगे हैं कि लोकसभा चुनाव में पार्टी हार जाएगी. ये वे लोग हैं, जो आडवाणी एंड कंपनी से नाराज़ हैं. इस चुनाव में जिन्हें कोई खास भूमिका नहीं दी गई. इन लोगों के मुताबिक गठबंधन को लेकर ठीक से योजना नहीं बन पाई. एनडीए सरकार में जो पार्टियां भाजपा के साथ थीं, वे इस चुनाव में विरोध में खड़े हैं. ख़ासकर उड़ीसा में बीजेडी के साथ गठबंधन टूटने से बीजेपी में मायूसी है. पार्टी संगठन को मज़बूत करने में भारतीय जनता पार्टी असफल रही है. राजस्थान और दिल्ली के चुनाव परिणामों ने भाजपा की कमर तोड़ दी.
[कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें]
जिस वक्त मुरली मनोहर जोशी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष थे, उस वक्त भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में गुपचुप बातें होती थीं. भाजपा के एक गुट के नेता जब आपस में बातें करते थे, तो लालकृष्ण आडवाणी को आडवाणी जी नहीं, साईं के नाम से बुलाते थे. वे कहते थे, जहां भी तुम्हें एक सिंधी और एक सांप दिखाई दे तो पहले सिंधी को ख़त्म करना चाहिए क्योंकि सिंधी सांप से ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं. सांप के काटे का तो डाक्टर के पास इलाज है लेकिन सिंधी का काटा पानी तक नहीं मांगता है. उनकी बातों में ये सिंधी कोई और नहीं, स्वयं लालकृष्ण आडवाणी होते थे. भाजपा के दूसरे गुट के नेता मुरली मनोहर जोशी को एक हेड क्लर्क बुलाते थे. यह गुट आडवाणी के नज़दीक था. उन्हें लगता था कि जोशी को पार्टी का अध्यक्ष बना कर बहुत बड़ी ग़लती की गई है. जोशी उसके लायक नहीं हैं, क्योंकि उनमें नेतृत्व करने का गुण है ही नहीं, उनकी मानसिकता एक हेडक्लर्क की है. दोनों नेताओं का एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का सिलसिला दो दशकों से चला आ रहा है. आने वाला वक्त भाजपा के लिए आसान नहीं है. चुनाव के बाद पार्टी के अंदर नेतृत्व को लेकर महाभारत होनी तय है.
उदासीनता का आलम यह है कि भाजपा के कुछ नेता तो अब साफ-साफ कहने भी लगे हैं कि हम चुनाव हारने वाले हैं. वे कहते हैं कि भाजपा को अब आडवाणी एंड कंपनी चला रही है. पार्टी में अध्यक्ष राजनाथ सिंह का भी कुछ नहीं चलता. राजनाथ सिंह की अपनी परेशानी है. वह गाज़ियाबाद से लोकसभा उम्मीदवार हैं. इस सीट को जीतना राजनाथ सिंह के लिए आसान नहीं होगा. कोई चमत्कार ही उन्हें जिता सकता है. मुरली मनोहर जोशी जो पार्टी में आडवाणी के समकक्ष माने जाते थे, फिलहाल वाराणसी से चुनाव लड़ रहे हैं. एक वक्त था, जब भाजपा के होर्डिंग्स और प्रचार में जोशी की तस्वीर अटल और आडवाणी के साथ दिखाई देती थी. लेकिन अब पार्टी उन्हें इस लायक नहीं समझती. चुनाव प्रचार के लिए मुरली मनोहर जोशी का कोई व्यापक कार्यक्रम नहीं बनाया गया. एक रणनीति के तहत उन्हें अपने ही चुनाव क्षेत्र में सीमित कर दिया गया है. पत्रकारों ने जब पार्टी की इस बेरुखी के बारे में पूछा, तो बताया गया कि उनकी कहीं से डिमांड नहीं है. अगर कोई अपने क्षेत्र में बुलाना चाहे, तो उनका भी कार्यक्रम बन सकता है. अब ऐसी ग़लती करने की ज़ुर्रत कौन करे. जब पार्टी का हर फैसला आडवाणी एंड कंपनी ले रहा है, तो भला मुरली मनोहर जोशी को बुलाकर कौन अपनी फज़ीहत कराए.
मुरली मनोहर जोशी राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं. जब इस चुनाव में मैनिफेस्टो (घोषणापत्र) कमेटी का अध्यक्ष बना दिया गया, तो उन्होंने अपनी चाल चल दी. आडवाणी एंड कंपनी की पूरी कोशिश ये रही कि आडवाणी को एक उदारवादी चेहरे के रूप में पेश किया जाए. विकास और एनडीए के कामों पर वोट मांगने की रणनीति बनाई गई. इंटरनेट और टीवी के जरिए नौजवानों को लुभाने की कोशिश की जा रही है. लेकिन घोषणापत्र आते ही यह साफ हो गया कि पार्टी की एक जैसी रणनीति नहीं. पार्टी में बिखराव है. बीजेपी और आडवाणी को उदारवादी रूप में पेश करने की रणनीति की मुरली मनोहर जोशी ने हवा निकाल दी. घोषणापत्र में राममंदिर, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद 370 की बात डाल कर तय कर दिया गया कि चुनाव के बाद भी बीजेपी को गठबंधन बनाने में परेशानी होगी. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो घोषणापत्र जारी होने के साथ ही साफ कह दिया कि यदि भाजपा को हमारा समर्थन चाहिए, तो उन्हें ये मुद्दे छोड़ने होंगे, वरना हम उनका साथ नहीं देंगे. मुरली मनोहर जोशी को लगता है कि पार्टी ने उनके साथ नाइंसा़फी की है. उन्हें आडवाणी के समकक्ष मानने के बजाए उन्हें दरकिनार कर दिया गया. ये बात तय है कि चुनाव के बाद अगर भाजपा हार जाती है और आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बनते हैं, तो मुरली मनोहर जोशी का नया अवतार होगा. आडवाणी 82 साल के हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में वह शायद ही हिस्सा ले सकें. इसलिए इस चुनाव के बाद ही भारतीय जनता पार्टी में शीर्ष नेतृत्व के लिए संघर्ष शुरू हो जाएगा. आडवाणी के बाद मुरली मनोहर जोशी ही पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता हैं. वे इस पद के लिए प्रमुख उम्मीदवार होंगे. यही वजह है कि भाजपा में वह एक ध्रुव बन कर उभर रहे हैं. भाजपा के कई नेता अभी से उनसे नज़दीकियां बढ़ा रहे हैं. आडवाणी भी जानते हैं कि यह उनका आख़िरी चुनाव है. वह चाहते हैं कि उनके बाद पार्टी की कमान उनके किसी क़रीबी के हाथ में हो.