आदरणीय भावी प्रधानमंत्री जी… आप इन दिनों भाजपा की किसी ऐसी चुनावी सभा में जाएं या पार्टी की मीटिंग में, जहां आडवाणी भी मौजूद हों, तो उन्हें इसी संबोधन से संबोधित किया जाता है. वे इस पर कोई एतराज़ भी नहीं जताते. उनकी गैरमौजूदगी में भी लोग उनका ज़िक्र इसी पद-संबोधन से करते हैं. भारतीय राजनीति के इतिहास में पहली बार यह पद सृजित हुआ है. कई टेलीविजन चैनलों ने भी आडवाणी को पीएम इन वेटिंग कहना शुरू कर दिया है. अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में जीते हुए उम्मीदवार को प्रेसिडेंट इलेक्ट कहा जाता है, क्योंकि चुनाव जीतने और शपथ लेने के बीच तीन महीने का फासला होता है. भारत में तो चुनाव जीतने के बाद ही फैसला होता है कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा. हमारी राजनीति ऐसी है कि शपथ ग्रहण करने के एक दिन पहले तक कहना मुश्किल है कि प्रधामंत्री कौन बनेगा. कभी-कभी तो खुद प्रधानमंत्री की शपथ लेने वाले नेता को भी पता नहीं होता. जैसा कि पिछली बार मनमोहन सिंह के साथ हुआ था. इसलिए लगता है कि जब भाजपा के नेता या टेलीविज़न चैनलों ने पहले से ही आडवाणी को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया है, तो सचमुच कोई तैयारी होगी. हालांकि जिस तरह से राजनीति करवट ले रही है, उससे तो यही लगता है कि ये लोग देश के सर्वोच्च नेता एलके आडवाणी के साथ मज़ाक़ कर रहे हैं. कहीं ये आडवाणी नाम की शख्सियत के साथ कोई साज़िश तो नहीं है?
आजकल इंटरनेट अ़खबार और टीवी पर लालकृष्ण आडवाणी छाए हुए हैं. जगह-जगह बड़ी-बड़ी होर्डिंग, इंटरनेट की हर दूसरी साइट पर हवा में हाथ हिलाते आडवाणी की तस्वीर है. साथ में लिखा है – आडवाणी फॉर पीएम. जिस तरह अमेरिका में ओबामा का चुनावी प्रचार हुआ, उसी की नकल भाजपा कर रही है. भाजपा ने आडवाणी को पीएम के रूप में न सिर्फ पेश किया है बल्कि यूं कहें कि उन्हें चुनाव से पहले ही प्रधानमंत्री घोषित कर दिया है. ऐसा प्रचार तो दश के सर्वमान्य नेता अटल बिहारी वाजपेयी के लिए भी नहीं हुआ था. इसमें कोई शक नहीं है कि आडवाणी एनडीए ही नहीं, देश के बड़े नेताओं में से एक हैं. हर दल के नेता ऐसा मानते हैं. लेकिन भाजपा के नेताओं को ही आडवाणी के इस क़द पर शक है. शायद आडवाणी जी को खुद भी.
भाजपा के चुनाव प्रचार के तरीक़े से लगता है कि भाजपा नेताओं की नज़र में आडवाणी देश के बड़े नेता नहीं हैं. उन्हें इस बात पर भी शक है कि अगर कांग्रेस हारती है, तो आडवाणी ही प्रधानमंत्री बन सकेंगे. रणनीति बनाने वाला चाहे कोई हो, उसने इस चुनाव प्रचार में इतना आक्रामक रवैया अपनाया है कि पीछे लौटने की राह ही नहीं बची. यह किसी ने नहीं सोचा कि अगर आडवाणी हार गए, तो न सिर्फ पूरे प्रचार की मिट्टी पलीद होगी बल्कि आडवाणी खुद हंसी के पात्र बन जाएंगे. कोई यह भी कहने वाला नहीं बचेगा कि चुनाव में हार-जीत अलग है, देश के सबसे बड़े नेता आडवाणी ही हैं. पीएम इन वेटिंग जैसी ब्रांडिंग से लगता है कि भाजपा के नेता इस चुनाव में आडवाणी नाम की शख्सियत को खत्म करना चाहते हैं. क्या इस तरह से प्रधानमंत्री की रेस में हिस्सा लेने और हार जाने के बाद वे एक आम सांसद की भूमिका में सहज रह पाएंगे. राजनीति की रीति है कि जो जीता वही सिकंदर और जो हार गया, वह लोगों की नज़रों से ओझल. हारा हुआ उम्मीदवार लोकप्रियता के शिखर से सीधे ज़मीन पर आ जाता है. इतिहास में ऐसी कई कहानियां हैं, जिसमें चुनाव के बाद हारे हुए उम्मीदवार को गहरा सदमा लगा. कइयों ने सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लिया, तो कई गुमनामी की दुनिया में खो गए. लॉस एंजलिस के मशहूर मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट आर बटरवर्थ के मुताबिक जब कोई राजनेता चुनाव हारता है, तो उसकी भावना वैसे ही आहत होती है, जैसे किसी को संबंध टूटने से तक़ली़फ होती है. वे कहते हैं कि अक्सर हारे हुए उम्मीदवार उदासीनता, निराशा और आत्मदया के शिकार हो जाते हैं. कुछ उम्मीदवार हार को स्वीकार नहीं कर पाते. उन्हें लगता है कि वह चुनाव हारे ही नहीं. ऐसा पिछली बार भाजपा के साथ हुआ. चौदहवीं लोकसभा में हारने के बाद कई महीने तक भाजपा हार को पचा नहीं सकी. इतिहास में चार्ल्स गुडइयर, रिचर्ड निक्सन, मोज़ार्ट और हूबर्ट हमी जैसे नाम हैं, जिन्होंने हार के बाद फिर वापसी की. इनके पास वापस लौटने के लिए समय था. आडवाणी 2014 के चुनाव तक 86 साल के हो जाएंगे.
जीवन के उस पड़ाव पर पहुंच जाएंगे, जहां वापसी का हौसला तो हो सकता है, लेकिन शरीर शायद साथ न दे. उम्र की उस दहलीज पर पहुंच जाएंगे, जहां से नई शुरुआत नहीं की जा सकती. भाजपा ने ओबामा के प्रचार की नकल तो कर ली, पर सही आकलन न कर सकी. आडवाणी की वेबसाइट के जरिए भाजपा ने युवाओं को जोड़ने का जो अभियान चलाया, उसकी हवा निकल चुकी है. पूरे देश में अब तक क़रीब 8 हज़ार लोग ही भाजपा के साथ जुड़े हैं. वेबसाइट के जरिए अभियान चलाने की योजना तो बर्बाद हो गई. अब भाजपा के नेताओं को कौन समझाए कि चुनाव में कूदने से पहले अमेरिका की जनता बराक ओबामा को जानती तक नहीं थी. इसलिए प्रचार के जरिए ओबामा की ब्रांडिंग हो सकी. उन्हें एक ऐतिहासिक पुरुष के रूप में पेश करने में सफलता मिली. लेकिन आडवाणी को देश की पूरी जनता जानती है.
पिछले पचास सालों में भारत की राजनीति का शायद ही ऐसा कोई पन्ना हो, जिससे आडवाणी जुड़े हुए नहीं हैं. उनके नाम के साथ कई अच्छी-बुरी घटनाएं जुड़ी हैं. क्या भाजपा के रणनीतिकार देश की जनता को मूर्ख समझते हैं कि अमेरिका से लाए मार्केटिंग मैनेजर पचास साल की यादों को मिटाकर आडवाणी को एक नए रूप में पेश करने में सफल हो जाएंगे?
क्या यह आडवाणी के खिलाफ एक साजिश है कि इस बार हार जाएं, तो उनके पास संन्यास लेने के अलावा कोई रास्ता न बचे. जिस तरह अटल जी और भैरोंसिंह शेखावत को भाजपा की नई पीढ़ी के नेताओं ने भुला दिया, क्या उसी तरह आडवाणी के राजनैतिक जीवन का अंत होगा. भाजपा दफ्तर के वातानुकूलित दफ्तर में बैठने वाले नेताओं का यह खेल समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है. उन्होंने आडवाणी का नाम आगे बढ़ा दिया और भाजपा को कम़जोर करने में जुट गए. कल्याण सिंह इन नेताओं की वजह से ही साइकिल पर सवार हो गए. बीजद ने ग्यारह साल की दोस्ती तोड़ ली. उड़ीसा में अगर बीजद से बातचीत करने खुद जेटली चले गए होते, तो शायद बात बन भी जाती, लेकिन एक पत्रकार (चंदन मित्रा) से राजनीति कराने का फल भाजपा को महंगा पड़ा. भाजपा को अब उड़ीसा में अकेले ही चुनाव लड़ना पड़ेगा. पत्रकार से न राजनीति करानी चाहिए और न रानीतिज्ञ से पत्रकारिता. आप उन्हें टिकट दें, अपने प्रचार के लिए उनका इस्तेमाल करें, पर अगर राजनीति कराएंगे तो आपके सामने उ़डीसा जैसे हादसे होंगे ही.
शिवसेना, जो भाजपा की सबसे पुरानी साथी है, आडवाणी जी को प्रधानमंत्री मानने से हिचक रही है. बिहार में जेडीयू के साथ मनमुटाव जगजाहिर है. जिन दलों ने पिछली बार एनडीए को समर्थन दिया था, उनमें ज्यादातर दलों ने तीसरे मोर्चे का दामन थाम लिया है. चुनाव से पहले अभी तक जो संके त मिल रहे हैं, वह भाजपा के लिए सकारात्मक नहीं दिखते. ऐसे में अगर कोई यह सवाल उठाए कि अब आडवाणी जी का क्या होगा, तो यह सवाल गलत नहीं होगा.
राजनीति में चमत्कार नहीं होता और न ही कोई ची़ज बेवजह होती है. यह बात भी सही है कि भाजपा में रणनीतिकारों की कमी नहीं है. ऐसा नहीं हो सकता है कि आडवाणी फॉर पीएम का
[क्या भाजपा के रणनीतिकार देश की जनता को मूर्ख समझते हैं कि अमेरिका से लाए मार्केटिंग मैनेजर पचास साल की यादों को मिटाकर आडवाणी को एक नए रूप में पेश करने में सफल हो जाएंगे?]
इतना बड़ा प्रचार अभियान बनाते वक्त किसी ने आज के हालात के बारे में विचार न किया हो. गठबंधन की राजनीति में किसी भी दल को हल्के में नहीं लिया जा सकता. जिस वक्त इस प्रचार की प्लानिंग हुई होगी, उस वक्त किसी भी दल के साथ सीटों के बंटवारे को लेकर अंतिम फैसला नहीं हुआ था. भाजपा यह भी जानती है कि वह अकेले अपने दम पर सरकार नहीं बना सकती. इससे अंदा़जा लग सकता है भाजपा की दूसरी पंक्ति के नेताओं ने इस तरह की परिस्थितियों को जानबूझ कर नजरअंदा़ज कर दिया..
राजनीति का एक और पहलू है. इस खेल में बहुत जल्द मति मारी जाती है. लोग एक ही गलती बार-बार करते हैं. पिछली बार एनडीए ने पांच साल तक शासन किया. अच्छा काम किया. लेकिन चुनाव ऩजदीक आते ही उन पर इंडिया शाइनिंग का भूत सवार हो गया. न चमकने वाले भारत ने भाजपा की चमक को दुत्कार दिया.
भारत अमेरिका नहीं है. यहां टीवी पर, इंटरनेट पर या अ़खबारों में प्रचार करके चुनाव नहीं जीता जा सकता है. चुनाव जीतने के लिए सामाजिक हक़ीक़त को पहचानने की ज़रूरत है. लेकिन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा बुलंद करने वाली इस पार्टी को अमेरिकन तरीका ज़्यादा भाता है. भाजपा ने यह भूल दूसरी बार की है. वह भूल गई कि अमेरिका और भारत के चुनाव में बुनियादी फर्क है. वहां सत्ता के केंद्र में राष्ट्रपति होता है, लेकिन भारत में प्रधानमंत्री. वहां के लोग राष्ट्रपति को चुनते हैं. भारत में प्रधानमंत्री को लोकसभा के सांसद चुनते हैं. लोग प्रधानमंत्री को नहीं, अपने सांसद को वोट देते हैं. यही वजह है कि पिछली बार हर चुनाव सर्वेक्षण में प्रधानमंत्री के नाम पर अटल बिहारी वाजपेयी आगे रहे, लेकिन भाजपा चुनाव हार गई. भाजपा के रणनीतिकारों को अगर आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाना था, तो पार्टी को मज़बूत करना था. एनडीए में ज़्यादा से ज़्यादा पार्टियों को शामिल करने की तैयारी करनी थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं को दरकिनार कर दिया गया. एनडीए में नए दलों को शामिल करना तो दूर, पुराने साथियों को एक साथ रखने में विफल रहे. भाजपा के लोग ही बताते हैं कि न जाने कहां से यह प्रथा चल पड़ी है कि इस्तेमाल करो और रास्ते से हटा दो. पार्टी की यह अघोषित कार्यप्रणाली बन गई है. क्या आडवाणी जी के साथ यही हो रहा है? बीजेपी का चुनाव प्रचार किसी इवेंट मैनेजमेंट की तरह चल रहा है. सब कुछ हो रहा है, लेकिन कुछ भी नहीं हो रहा है. कुछ दिनों पहले भाजपा के रणनीतिकारों ने देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों की मुलाक़ात आडवाणी से करा दी. ़खबर बन गई कि देश के उद्योगपति आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं.
अब इन लोगों को कैसे समझाया जाए कि उद्योगपति पैसे दे सकते हैं, लेकिन वोट तो देश की जनता देती है. उद्योगपति आडवाणी फॉर पीएम के प्रचार के लिए पैसे तो दे सकते हैं, लेकिन लोगों को पोलिंग बूथ तक लाकर भाजपा को वोट देने की गारंटी नहीं दे सकते. भाजपा के नेताओं को अगर आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाना था, तो इंटरनेट के बजाए भारत के गांवों में रहने वाले किसानों और ग़रीबों को अपने साथ लाने की रणनीति बनानी थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और भैंरोसिंह शेखावत ने भाजपा को दो सासंदों की पार्टी से राष्ट्रीय पार्टी बना दिया. ये तीनों एक दूसरे के प्रतियोगी रहे. इन लोगों ने किसी साज़िश के तहत एक दूसरे को दरकिनार करने की कोशिश नहीं की. इनमें मतभेद तो हमेशा रहा, लेकिन मनभेद कभी नहीं हुआ. यही वजह है कि पार्टी मजबूत हुई. अब भाजपा का चेहरा बदला है. दूसरी पंक्ति के नेता पहली पंक्ति में आने को बेकरार हैं. अटल जी और भैरोसिंह जी अपनी उम्र और स्वास्थ्य की वजह से सक्रिय राजनीति से दूर हैं. दूसरी पंक्ति के नेताओं की राह में सिर्फ आडवाणी जी बचे हैं. हो सकता है कि 2009 लोकसभा चुनाव में आडवाणी जी पितृघात के शिकार हों.